कोरोना वायरस संक्रमण की वजह से जारी देशव्यापी लॉकडाउन के बीच गुरुवार को बुद्ध पूर्णिमा की सुबह प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का संबोधन सुन कर कई तरह के ख़याल आए। प्रधानमंत्री ने संबोधन की शुरुआत में कहा कि मौजूदा समय में बुद्ध की शिक्षा प्रासंगिक है। यह एक सामान्य सी रस्मी बात है जो किसी भी महापुरुष को याद करते हुए कहीं भी कभी भी कही जा सकती है और इससे कोई असहमति भी नहीं हो सकती भले ही कहने वाले कोई भी हों जिनका बुद्ध की करुणा, प्रेम, भाईचारे की नीति पर विश्वास हो या न हो।

इतिहास के पन्ने पलटते समय मौजूदा राजनीतिक सामाजिक परिदृश्य के संदर्भ में मन में आज यह सवाल उठना लाज़िमी है कि अगर आंबेडकर ने बौद्ध धर्म की जगह इसलाम क़बूल कर लिया होता क्या तब भी वह बीजेपी और आरएसएस के लिए उतने ही स्वीकार्य, आदरणीय और स्मरणीय होते?
बुद्ध की शिक्षा (या शिक्षाओं) पर दुनिया भर के तमाम विद्वानों ने मोटी-मोटी पोथियाँ लिख डाली हैं। भारत के संदर्भ में बाबा साहब भीमराव आंबेडकर का नाम सबसे प्रखर बुद्ध अनुयायी के रूप में उभरता है। हिंदू धर्म में जन्मे आंबेडकर ने छुआछूत के ख़िलाफ़ मुहिम के तहत बौद्ध धर्म स्वीकार किया था। आंबेडकर ने अपने एक प्रसिद्ध व्याख्यान 'बुद्ध अथवा मार्क्स' में बुद्ध की शिक्षाओं और मार्क्सवादी सिद्धांतों की तुलना करते हुए बुद्ध की शिक्षाओं को साम्यवाद से भी बेहतर बताया है।