मैंने कल लिखा था कि देश के राजनीतिक दल और नेता यदि अपने करोड़ों कार्यकर्ताओं को सक्रिय कर दें तो ऑक्सीजन घर-घर पहुँच सकता है। इंजेक्शन और दवाइयों के लिए लोगों को दर-दर भटकना नहीं पड़ेगा। कालाबाजारियों के हौंसले पस्त हो जाएँगे। उन्हें पकड़ना आसान होगा। मेरे सुझावों का बहुत-से पाठकों ने बहुत स्वागत किया है लेकिन आप देख रहे हैं कि हमारे नेताओं का मुख्य ध्यान किधर लगा हुआ है? कोरोना की तरफ नहीं, बंगाल की तरफ़!
बंगाल में दर्जन भर कार्यकर्ता आपस में लड़ मरे, वह नेताओं के लिए पहला राष्ट्रीय संकट बन गया लेकिन चार हजार लोग कोरोना से मर गए, इसकी कोई चिंता उन्हें दिखाई नहीं पड़ी।
बंगाल में जो हिंसा हो रही है, वह सर्वथा निंदनीय है और केंद्र सरकार की चिंता भी अनुचित नहीं है लेकिन क्या यह कोई राष्ट्रीय संकट है? क्या यह कोरोना से भी अधिक गंभीर समस्या है?
अदालतें तो सरकार को झाड़ रही हैं, उसकी लापरवाही के लिए लेकिन रोज कालाबाजारी की ख़बरें गर्म हो रही हैं। फर्जी इंजेक्शन और सिलेंडर पकड़े जा रहे हैं। अस्पताल के पलंगों के लिए धोखाधड़ी हो रही है। लोग अस्पतालों की सीढ़ियों पर दम तोड़ रहे हैं लेकिन हमारी उच्च और सर्वोच्च अदालतें सिर्फ़ चेतावनियाँ जारी कर रही हैं, सरकारों से कह रही हैं कि वे उनकी मानहानि न करें लेकिन उनमें इतना साहस भी नहीं है कि कालाबाजारियाँ और ठगों को लटकाने के आदेश जारी कर सकें।
वे यह क्यों नहीं समझतीं कि यदि हालात इसी तरह से बिगड़ते रहे तो लाचार और कुपित लोग सीधी कार्रवाई पर भी उतारु हो सकते है। मैं उन्हें फ्रांसीसी राज्य-क्रांति की याद दिलाऊँ क्या? हमारी राजनीति और न्याय-व्यवस्था जैसी है, वैसी है लेकिन हमारे धर्म-ध्वजियों का क्या हाल है? उनका हाल नेताओं से भी बुरा है।
नेता लोग तो नोट और वोट के लालच में डर के मारे कभी लोक-सेवा का ढोंग भी करने लगते हैं लेकिन हमारे साधु-संत, मुल्ला और पादरी लोगों ने कौनसा अच्छा उदाहरण पेश किया है?
वे तो ईश्वर, अल्लाह और गाॅड के अलावा किसी के भी सामने जवाबदेह नहीं हैं। उन्हें किसी का डर नहीं है। बस, देश के सिक्ख लोग ऐसे हैं, जिनके आचरण से ये सब धर्मध्वजी सबक़ ले सकते हैं। सिक्खों ने सारे पाखंडियों, ढोंगियों और स्वयंसेवियों (स्वयंसेवक नहीं) के विपरीत कोरोना मरीजों की ग़ज़ब की सेवा की है।
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