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कोरोना के टीके पर बड़े देशों का एकाधिकार क्यों ख़त्म हो?

इस समय उन्नत देशों से आशा की जाती है कि वे दरियादिली दिखाएँगे। वे अपनी कंपनियों से पूछें कि क्या कोरोना से उन्होंने कोई सबक़ नहीं सीखा? अपने एकाधिकार से वे पैसे का अंबार ज़रूर लगा लें लेकिन ऊपर से बुलावा आ गया तो वे उस पैसे का क्या करेंगे? वे जरा भारत को देखें। भारत ने कई जरूरतमंद देशों को करोड़ों टीके मुफ्त में बाँट दिए या नहीं?
डॉ. वेद प्रताप वैदिक

ऐसा लगता है कि भारत और दक्षिण अफ्रीका की पहल अब शायद परवान चढ़ जाएगी। पिछले साल अक्टूबर में इन दोनों देशों ने मांग की थी कि कोरोना के टीके का एकाधिकार ख़त्म किया जाए और दुनिया का जो भी देश यह टीका बना सके, उसे यह छूट दे दी जाए। विश्व व्यापार संगठन के नियम के अनुसार कोई भी किसी कंपनी की दवाई की नकल तैयार नहीं कर सकता है। प्रत्येक कंपनी किसी भी दवा पर अपना पेटेंट करवाने के पहले उसकी खोज में लाखों-करोड़ों डाॅलर ख़र्च करती है। दवा तैयार होने पर उसे बेचकर वह मोटा फायदा कमाती है। यह फायदा वह दूसरों को क्यों उठाने दें? 

इसीलिए पिछले साल भारत और दक्षिण अफ्रीका की इस मांग के विरोध में अमेरिका, यूरोपीय संघ, ब्रिटेन, जापान, स्विट्ज़रलैंड जैसे देश उठ खड़े हुए। 

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ये समृद्ध देश अपनी गाढ़ी कमाई को लुटते हुए कैसे देख सकते थे लेकिन पाकिस्तान, मंगोलिया, केन्या, बोलिविया और वेनेजुएला- जैसे देशों ने इस मांग का समर्थन किया। अब खुशी की बात यह है कि अमेरिका के बाइडन प्रशासन ने ट्रंप की नीति को उलट दिया है। अमेरिका यदि अपना पेटेंट छोड़ने को तैयार है तो अन्य राष्ट्र भी उसका अनुसरण क्यों नहीं करेंगे? अब ब्रिटेन और फ्रांस- जैसे राष्ट्रों ने भी भारत के समर्थन की इच्छा जाहिर की है। क्यों की है? क्योंकि अब दुनिया को पता चल गया है कि कोरोना की महामारी इतनी तेजी से फैल रही है कि मालदार देशों की आधा दर्जन कंपनियां 6-7 अरब टीके पैदा नहीं कर पाएंगी। 

अब कनाडा, बांग्लादेश और दक्षिण कोरिया- जैसे लगभग आधा दर्जन देश ऐसे हैं, जो कोरोना का टीका बना लेंगे। लेकिन यह ज़रूरी है कि उन्हें पेटेंट का उल्लंघन न करना पड़े। विश्व स्वास्थ्य संगठन के 164 सदस्य-देशों में से अगर एक देश ने भी आपत्ति कर दी तो यह अनुमति उन्हें नहीं मिलेगी। जर्मनी आपत्ति कर रहा है। उसका तर्क यह है कि दुनिया की कई कंपनियाँ ये टीके नहीं बना पाएँगी, क्योंकि उनके पास इसका कच्चा माल नहीं होगा, तकनीक नहीं होगी और कारखाने नहीं होंगे। डर यही है कि अधकचरे और नकली टीकों से दुनिया के बाज़ार भर जाएँगे और मरनेवाले मरीजों की संख्या दिन दूनी, रात चौगुनी हो जाएगी। 

यह तर्क निराधार नहीं है लेकिन जिस देश की कंपनी भी ये टीके बनाएगी, वह मूल कंपनी के निर्देशन में बनाएगी और उस देश की सरकार की कड़ी निगरानी में बनाएगी। उन टीकों की क़ीमत भी इतनी कम होगी कि ग़रीब देश भी अपने नागरिकों को उन्हें मुफ्त में बाँट सकेंगे।
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इस समय उन्नत देशों से आशा की जाती है कि वे दरियादिली दिखाएँगे। वे अपनी कंपनियों से पूछें कि क्या कोरोना से उन्होंने कोई सबक़ नहीं सीखा? अपने एकाधिकार से वे पैसे का अंबार ज़रूर लगा लें लेकिन ऊपर से बुलावा आ गया तो वे उस पैसे का क्या करेंगे? वे जरा भारत को देखें। भारत ने कई जरूरतमंद देशों को करोड़ों टीके मुफ्त में बाँट दिए या नहीं? कोरोना की इस महामारी का महासंदेश यही है कि आप सारे विश्व को अपना कुटुम्ब समझकर काम करें। वसुधेवकुटुम्बकम् या विश्व-परिवार!

(डॉ. वेद प्रताप वैदिक के ब्लॉग www.drvaidik.in से साभार)
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डॉ. वेद प्रताप वैदिक
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