आश्चर्य व्यक्त किया जा सकता है कि एक बहुत ही महत्वपूर्ण ख़बर को या तो ग़ैर-इरादतन या फिर पूरी तरह से सोच-समझकर बहस में आने ही नहीं दिया गया। ख़बर सरकार के एक आधिकारिक प्रवक्ता द्वारा दी गई यह जानकारी है कि देश को अब कोरोना वायरस के साथ ही जीना सीखना होगा। जानकारी में किसी तरह की वैसी आशा की किरणें नहीं हैं जैसी कि अब तक दिखाई जाती रही हैं। कोई स्पष्ट आश्वासन और उसका ब्योरा नहीं है कि संकट पर कब तक क़ाबू पा लेने की उम्मीद है, दवा या वैक्सीन की खोज किस मुक़ाम तक पहुँच गई है, आने वाले कितने दिनों में ज़िंदगी पटरी पर आ पाएगी, नागरिकों को सरकार से किस तरह की राहत की उम्मीद करना चाहिए, आदि, आदि। न तो मीडिया की ओर से ऐसा कोई सवाल पूछा गया और न ही अपनी ओर से प्रवक्ता द्वारा कुछ भी बताया गया। इतनी बड़ी ख़बर को सब्ज़ी के साथ मुफ़्त में बँटने वाले धनिए की तरह जारी किया गया और वे तमाम लोग जिन्हें उसका संज्ञान लेना था अपने थैलों में रखकर भूल भी गए।
वायरस के साथ और संसद के बिना जीना सीखने की आदत?
- विचार
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- 10 May, 2020

सरकार के एक आधिकारिक प्रवक्ता ने कहा है कि देश को अब कोरोना के वायरस के साथ ही जीना सीखना होगा। लेकिन इस सवाल का उत्तर अब किससे माँगा जाए कि महामारी के संकट से निपटने के दौरान सरकार द्वारा किए गए प्रयासों के प्रति धन्यवाद ज्ञापन और प्रवासी मज़दूरों सहित नागरिकों द्वारा भुगते गए कष्टों की जवाबदेही तय करने लिए कोई सदन 2024 के चुनावों के पहले देश को उपलब्ध होगा भी कि नहीं?