गाँधीजी के निजी जीवन से जुड़ी हमारी सीरीज़ में हमने अब तक यह जाना है कि कैसे उन्होंने अपनी किशोरावस्था में बीड़ी पीने के लिए चोरियाँ कीं, दोस्त के उकसावे पर माँसाहार किया और वेश्यालय तक भी पहुँच गए। लेकिन हमने यह भी देखा कि इन सबसे वह आसानी से निकल भी आए। कारण था उनका सच की शक्ति पर विश्वास। बचपन में सत्यवादी हरिश्चंद्र और श्रवण कुमार के नाटकों ने उनपर ऐसा गहरा असर किया था कि माता-पिता से छुपकर किया गया कोई भी काम उनके लिए नैतिक संकट बन जाता। यही कारण था कि उन्होंने माँसाहार छोड़ दिया और चोरी की बात अपने पिता के सामने स्वीकार कर ली।
गाँधी-150: वकालत के पेशे में कैसे चली सच्चाई की दुकान?
- विचार
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- 3 Jun, 2020

पिछली कड़ियों में आपने पढ़ा कि गाँधीजी की शुरुआती ज़िंदगी आम इंसान की तरह ही थी, लेकिन जैसे-जैसे वह आगे बढ़ते जाते हैं वह कुछ सिद्धांतों और विचारों पर चलने वाले बनते जाते हैं। इन्हीं सिद्धांतों और विचारों पर अमल करके वह हम सबसे अलग बन गए। लेकिन इस बीच ऐसा दौर भी आया जिसमें वह वकालत के पेशे में रहे। इस कड़ी में पढ़िए कि उन्होंने वकालत की चुनौतियों का कैसे सामना किया।
मगर एक सवाल किसी भी व्यक्ति के दिमाग़ में आ सकता है कि सत्य के इस पुजारी ने जब वकालत का पेशा अपनाया होगा तो उसने कैसे अपनी प्रैक्टिस चलाई होगी। क्या वह कामयाब हुआ होगा या फिर उसने समझौते किए होंगे? आज की इस कड़ी में हम यही जानेंगे कि गाँधीजी ने वकालत के पेशे से जुड़ी उलझनों और चुनौतियों का कैसे सामना किया जिसके बारे में उन्होंने ख़ुद सुन रखा था कि वह झूठ के गोरखधंधे के बिना नहीं चल सकता।
नीरेंद्र नागर सत्यहिंदी.कॉम के पूर्व संपादक हैं। इससे पहले वे नवभारतटाइम्स.कॉम में संपादक और आज तक टीवी चैनल में सीनियर प्रड्यूसर रह चुके हैं। 35 साल से पत्रकारिता के पेशे से जुड़े नीरेंद्र लेखन को इसका ज़रूरी हिस्सा मानते हैं। वे देश