गाँधीजी लिखते हैं, ‘मेरा दोस्त एक बार मुझे एक वेश्यालय में ले गया। उसने पहले ही मुझे समझा दिया था कि वहाँ क्या करना है, कैसे पेश आना है। सबकुछ पहले से ही तय था। पैसा भी दिया जा चुका था। मैं पाप के मुँह में जाने को तैयार बैठा था लेकिन ईश्वर की असीम कृपा से उसने मुझे ख़ुद से ही बचा लिया। मैं उस दुराचार के अड्डे पर जैसे अंधा और गूँगा बन गया। मैं उस औरत के बिस्तर पर उसकी बग़ल में बैठा रहा लेकिन मेरी ज़ुबान को जैसे लकवा मार गया था। स्वाभाविक था कि वह रातभर इंतज़ार नहीं कर सकती थी। नतीजतन उसने मुझे बाहर का रास्ता दिखा दिया, गालियों और अपमानजनक शब्दों के साथ। मुझे लगा जैसे मेरी मर्दानगी तार-तार हो रही हो और मैं मारे शर्म के ज़मीन में गड़ा जा रहा था।’
गाँधी-150: वेश्याओं के ठिकानों से बेदाग़ निकले और ब्रह्मचारी हो गए
- विचार
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- 2 Oct, 2019

गाँधीजी के व्यक्तिगत जीवन पर केंद्रित इस सीरीज़ की पिछली कड़ी में हमने जाना कि कैसे किशोरावस्था में उनके एक मित्र ने उन्हें यह कहकर माँस खाने पर उकसाया कि इससे वह शक्तिशाली और निडर हो जाएँगे। यही मित्र उन्हें वेश्या के पास भी ले गया। वहाँ क्या हुआ, उसके बारे में हम आज पढ़ेंगे।
गाँधीजी बताते हैं कि उनकी ज़िंदगी में ऐसे चार मौक़े और आए और उन सभी मौक़ों पर भगवान ने उन्हें बचा लिया। इनमें से एक घटना तब की है जब वह इंग्लैंड में बैरिस्टरी की पढ़ाई करने गए थे। गाँधीजी शाकाहारी थे और जब उन्हें पता चला कि कुछ अंग्रेज़ भी शाकाहार के प्रचार अभियान में लगे हुए हैं तो वह भी उनके साथ जुड़ गए। ऐसे ही एक शाकाहारी सम्मेलन में उन्हें और उनके एक साथी को आमंत्रित किया गया था। शहर था पॉर्ट्समथ। पॉर्ट्समथ में उन्हें जिस घर में ठहराया गया था, उसकी मालकिन वेश्या तो नहीं मगर नैतिकतावादी भी नहीं थी। गाँधीजी को इसका कोई आभास नहीं था न ही स्वागत समिति को इसकी कोई जानकारी थी।
नीरेंद्र नागर सत्यहिंदी.कॉम के पूर्व संपादक हैं। इससे पहले वे नवभारतटाइम्स.कॉम में संपादक और आज तक टीवी चैनल में सीनियर प्रड्यूसर रह चुके हैं। 35 साल से पत्रकारिता के पेशे से जुड़े नीरेंद्र लेखन को इसका ज़रूरी हिस्सा मानते हैं। वे देश