गाँधीजी लिखते हैं, ‘मेरा दोस्त एक बार मुझे एक वेश्यालय में ले गया। उसने पहले ही मुझे समझा दिया था कि वहाँ क्या करना है, कैसे पेश आना है। सबकुछ पहले से ही तय था। पैसा भी दिया जा चुका था। मैं पाप के मुँह में जाने को तैयार बैठा था लेकिन ईश्वर की असीम कृपा से उसने मुझे ख़ुद से ही बचा लिया। मैं उस दुराचार के अड्डे पर जैसे अंधा और गूँगा बन गया। मैं उस औरत के बिस्तर पर उसकी बग़ल में बैठा रहा लेकिन मेरी ज़ुबान को जैसे लकवा मार गया था। स्वाभाविक था कि वह रातभर इंतज़ार नहीं कर सकती थी। नतीजतन उसने मुझे बाहर का रास्ता दिखा दिया, गालियों और अपमानजनक शब्दों के साथ। मुझे लगा जैसे मेरी मर्दानगी तार-तार हो रही हो और मैं मारे शर्म के ज़मीन में गड़ा जा रहा था।’