गाँधीजी वैष्णव परिवार से थे जहाँ माँसादि का सेवन तो दूर, नाम लेना तक बिल्कुल वर्जित था। मगर जब वह हाई स्कूल में थे तो उनका एक दोस्त था जो उनको बराबर कहा करता था कि माँस खाना सेहत के लिए अच्छा है। यह दोस्त उनसे उम्र में बड़ा था और वास्तव में गाँधीजी के मँझले भाई का मित्र था। बाक़ी घरवाले उस दोस्त के बारे में अच्छी राय नहीं रखते थे और गाँधीजी को टोका करते थे कि वह उससे दोस्ती न रखें। गाँधीजी बड़ों की आज्ञा तो टाल नहीं सकते थे, इसलिए उनको मनाने के लिए उन्होंने उन्हें यह कहकर समझाया, ’मैं जानता हूँ, उसमें बहुत-सी बुरी आदतें हैं लेकिन मैं आपको विश्वास दिलाता हूँ कि मैं उसकी वे आदतें छुड़वा दूँगा और एक बार वह अपनी वे बुरी आदतें छोड़ दे तो बहुत अच्छा इंसान बन जाएगा। बाक़ी मेरी तरफ़ से आप निश्चिंत रहें।’ घरवाले उनकी बातों से संतुष्ट तो नहीं दिखे लेकिन उन्होंने उनको टोकना बंद कर दिया।
गाँधी-150: अहिंसा के पुजारी रहे गाँधीजी क्यों खाने लगे थे माँस?
- विचार
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- 1 Oct, 2019

क्या कोई कल्पना कर सकता है कि अहिंसा का पुजारी किसी जीव का माँस भी खा सकता है और वह भी एक नहीं, कई-कई बार? लेकिन यह सच है और इसके बारे में ख़ुद गाँधीजी ने अपनी आत्मकथा ‘सत्य के साथ मेरे प्रयोग’ में लिखा है। आइए, गाँधीजी के व्यक्तिगत जीवन में झाँकने और उन्हें समझने के क्रम में आज हम जानते हैं कि वे क्यों और कैसे माँसाहारी बने।
उस दोस्त ने गाँधीजी को बताया कि हमारे स्कूल के शिक्षक और कुछ छात्र तथा राजकोट के कई बड़े-बड़े लोग चुपके-चुपके माँस और शराब का सेवन करते हैं। उसने गाँधीजी को समझाया, ‘हम माँस नहीं खाते इसीलिए हम कमज़ोर लोग हैं। अंग्रेज़़ हमपर इसीलिए शासन कर पा रहे हैं कि वे माँस खाते हैं। तुम तो जानते ही हो कि मैं कितना शक्तिशाली हूँ और कितना तेज़ भाग भी सकता हूँ। इसका कारण वही है - माँसाहार। माँसाहारियों को फुंसी-फोड़े नहीं निकलते और कभी निकलते भी हैं तो तुरंत ठीक हो जाते हैं। हमारे शिक्षक और दूसरे बड़े-बड़े लोग जो माँस खाते हैं, वे मूर्ख नहीं हैं। वे इसकी ख़ूबियाँ जानते हैं। तुमको भी माँस खाना चाहिए। एक बार लेने में क्या हर्ज़ है? तुम एक बार खाकर देखो कि उससे कितनी ताक़त आती है।’
नीरेंद्र नागर सत्यहिंदी.कॉम के पूर्व संपादक हैं। इससे पहले वे नवभारतटाइम्स.कॉम में संपादक और आज तक टीवी चैनल में सीनियर प्रड्यूसर रह चुके हैं। 35 साल से पत्रकारिता के पेशे से जुड़े नीरेंद्र लेखन को इसका ज़रूरी हिस्सा मानते हैं। वे देश