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गाँधी-150: अहिंसा के पुजारी रहे गाँधीजी क्यों खाने लगे थे माँस?

क्या कोई कल्पना कर सकता है कि अहिंसा का पुजारी किसी जीव का माँस भी खा सकता है और वह भी एक नहीं, कई-कई बार? लेकिन यह सच है और इसके बारे में ख़ुद गाँधीजी ने अपनी आत्मकथा ‘सत्य के साथ मेरे प्रयोग’ में लिखा है। आइए, गाँधीजी के व्यक्तिगत जीवन में झाँकने और उन्हें समझने के क्रम में आज हम जानते हैं कि वे क्यों और कैसे माँसाहारी बने।
नीरेंद्र नागर

गाँधीजी वैष्णव परिवार से थे जहाँ माँसादि का सेवन तो दूर, नाम लेना तक बिल्कुल वर्जित था। मगर जब वह हाई स्कूल में थे तो उनका एक दोस्त था जो उनको बराबर कहा करता था कि माँस खाना सेहत के लिए अच्छा है। यह दोस्त उनसे उम्र में बड़ा था और वास्तव में गाँधीजी के मँझले भाई का मित्र था। बाक़ी घरवाले उस दोस्त के बारे में अच्छी राय नहीं रखते थे और गाँधीजी को टोका करते थे कि वह उससे दोस्ती न रखें। गाँधीजी बड़ों की आज्ञा तो टाल नहीं सकते थे, इसलिए उनको मनाने के लिए उन्होंने उन्हें यह कहकर समझाया, ’मैं जानता हूँ, उसमें बहुत-सी बुरी आदतें हैं लेकिन मैं आपको विश्वास दिलाता हूँ कि मैं उसकी वे आदतें छुड़वा दूँगा और एक बार वह अपनी वे बुरी आदतें छोड़ दे तो बहुत अच्छा इंसान बन जाएगा। बाक़ी मेरी तरफ़ से आप निश्चिंत रहें।’ घरवाले उनकी बातों से संतुष्ट तो नहीं दिखे लेकिन उन्होंने उनको टोकना बंद कर दिया।

उस दोस्त ने गाँधीजी को बताया कि हमारे स्कूल के शिक्षक और कुछ छात्र तथा राजकोट के कई बड़े-बड़े लोग चुपके-चुपके माँस और शराब का सेवन करते हैं। उसने गाँधीजी को समझाया, ‘हम माँस नहीं खाते इसीलिए हम कमज़ोर लोग हैं। अंग्रेज़़ हमपर इसीलिए शासन कर पा रहे हैं कि वे माँस खाते हैं। तुम तो जानते ही हो कि मैं कितना शक्तिशाली हूँ और कितना तेज़ भाग भी सकता हूँ। इसका कारण वही है - माँसाहार। माँसाहारियों को फुंसी-फोड़े नहीं निकलते और कभी निकलते भी हैं तो तुरंत ठीक हो जाते हैं। हमारे शिक्षक और दूसरे बड़े-बड़े लोग जो माँस खाते हैं, वे मूर्ख नहीं हैं। वे इसकी ख़ूबियाँ जानते हैं। तुमको भी माँस खाना चाहिए। एक बार लेने में क्या हर्ज़ है? तुम एक बार खाकर देखो कि उससे कितनी ताक़त आती है।’

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उस दोस्त ने गाँधीजी को एक बार नहीं, कई बार माँसाहार के पक्ष में ऐसी दलीलें दीं। गाँधीजी के मँझले भाई ने भी उसकी हाँ में हाँ मिलाई क्योंकि वह भी माँस खाना शुरू कर चुके थे। दोनों शारीरिक दृष्टि से मज़बूत थे और उनके सामने गाँधीजी बहुत ही क्षीणकाय लगते थे। वे चाहते थे कि गाँधीजी भी उनके जैसा बन जाएँ।

इसके अलावा गाँधीजी उन दिनों बहुत डरपोक भी थे। वह लिखते हैं- 

‘मैं बहुत कायर था। मुझे चोरों, भूत-प्रेतों और साँपों से बहुत डर लगता था। रात में मैं दरवाज़ा खोलकर बाहर नहीं जा सकता था। अँधेरा मेरे लिए आतंक था। रात में मैं घुप्प अँधेरे में नहीं सो सकता था - मुझे ऐसा प्रतीत होता था कि कमरे में एक तरफ़ से चोर, दूसरी तरफ़ से भूत और तीसरी तरफ़ से साँप आ रहे हैं। इसलिए मैं बत्ती जलाकर सोता था। लेकिन मैं ये सारी बातें अपनी पत्नी को कैसे बताता जो मेरी ही हमउम्र थी! मुझे मालूम था कि वह मुझसे ज़्यादा साहसी है और यह मेरे लिए और भी शर्म की बात थी। उसे न साँपों का डर था, न भूतों का। वह अँधेरे में कहीं भी जा सकती थी। मेरा दोस्त मेरी ये सारी कमियाँ जानता था। वह कहता था कि मैं हाथ में ज़िंदा साँप पकड़ सकता हूँ, चोरों का मुक़ाबला कर सकता हूँ और भूत-प्रेतों में यक़ीन नहीं करता। और (उसके अनुसार) यह सब, बेशक माँस खाने का ही परिणाम था।’

उन दिनों गाँधीजी के स्कूल में बच्चों के बीच एक गुजराती कविता लोकप्रिय थी जिसका हिंदी भावानुवाद कुछ इस तरह होगा - 

महाबली अंग्रेज़ की, देख निराली शान

मरियल हिंदुस्तानी, उसका बना ग़ुलाम,

खाता है वह माँस, इसलिए हट्टा-कट्टा, 

आठ फ़ुट का कद है, चेहरा गोरा-चिट्टा।

इन सबका गाँधीजी के मन-मस्तिष्क पर बड़ा प्रभाव पड़ा और उनको विश्वास हो गया कि माँसाहार अच्छा है, और अगर सारे भारतवासी माँस खाना शुरू कर दें तो अंग्रेज़ों को क़ाबू में किया जा सकता है।

लेकिन अभी भी एक भारी समस्या थी। गाँधीजी जानते थे कि उनके माता-पिता को अगर पता चल गया कि उन्होंने माँस खाया है तो वे यह सदमा झेल नहीं पाएँगे। इसलिए उनको बताकर तो यह काम हो नहीं सकता था। मगर यह काम इतना महत्पवूर्ण था कि उन्हें यह बात अपने माता-पिता से छुपाना ग़लत नहीं लगा। उनके मुताबिक़ बात स्वाद की नहीं थी क्योंकि उनको तो मालूम ही नहीं था कि माँसाहारी भोजन का क्या स्वाद होता है; बात तो शक्तिशाली और बहादुर होने की थी, और हर हिंदुस्तानी को ऐसा होना चाहिए ताकि वे अंग्रेज़ों को हराकर देश को स्वाधीन कर सकें।

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जब पहली बार चखा बकरे का गोश्त...

फिर वह ख़ास दिन तय हुआ जब गाँधीजी को पहली बार माँसाहार करना था। नदी के पास एक गुप्त स्थान चुना गया जहाँ पहली बार उन्होंने बकरे का गोश्त देखा और चखा। चखा इसलिए कि वह उसे खा नहीं पाए - वह उनको चमड़े जैसा सख़्त लगा। उनको मिचली आने लगी और छोड़ दिया।

वह रात उनके लिए बहुत ही ख़ौफ़नाक रही। नींद में उनको कई बार लगा जैसे कोई ज़िंदा बकरा उनके शरीर के भीतर मिमिया रहा है। वह झटके से उठ जाते और पछताने लगते। लेकिन फिर ख़ुद को ही समझा लिया कि माँसाहार वह किस बड़े लक्ष्य के लिए कर रहे हैं।

उनका दोस्त भी हार मानने वाला नहीं था। उसने उनको माँस के बने व्यंजन खिलाने शुरू कर दिए। वह उनको एक सरकारी भवन में ले गया जहाँ टेबल-कुर्सी पर सबकुछ क़रीने से सजाकर परोसा जाता। धीरे-धीरे गाँधीजी को ये माँसाहारी व्यंजन अच्छे लगने लगे और बकरे के प्रति करुणा का भाव भी जाता रहा। क़रीब एक साल तक ऐसा चला लेकिन दावतें आधा दर्जन से ज़्यादा बार नहीं हुईं क्योंकि ये दावतें ख़र्चीली होती थीं और उसके इंतज़ाम का सारा भार उस दोस्त पर था जो ख़ुद भी कोई धनी नहीं था।

जब गाँधीजी यह दावत खाकर आते तो घर पर उन्हें झूठ बोलना पड़ता कि आज पेट ख़राब है या भूख नहीं है। लेकिन ऐसा कहते हुए उन्हें बहुत ग्लानि होती थी। वह जानते थे कि यदि उनके माता-पिता को इसका पता चल गया तो सदमे के मारे मर जाएँगे। यह बात उनको मन ही मन खाए जा रही थी।

अंततः उन्होंने एक दिन एक ऐसा फ़ैसला कर लिया जिससे उनका माँसाहार भी जारी रह सकता था और माता-पिता से झूठ बोलने की ज़रूरत भी नहीं पड़नी थी। उन्होंने ख़ुद से कहा, ‘हालाँकि माँसाहार आवश्यक है और देशभर में माँसाहार को बढ़ावा मिलना चाहिए, लेकिन इसके लिए माता-पिता को धोखा देना माँसाहार से भी बुरा है। इसलिए उनके जीते-जी मैं माँसाहार नहीं करूँगा। जब वे नहीं रहेंगे और मैं आज़ाद हो जाऊँगा, तब मैं सबके सामने माँस खाऊँगा, लेकिन तब तक के लिए माँसाहार से दूर रहना ही उचित है।’

उन्होंने यह निर्णय अपने दोस्त को बताया और उस दिन के बाद कभी माँसभक्षण नहीं किया। उनके माता-पिता को भी जीवनपर्यंत पता नहीं चला कि उनके दो बेटे माँसाहारी हो चुके हैं।

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मैंने माँसाहार केवल इस कारण छोड़ा कि मेरे निर्मल मन को यह स्वीकार्य नहीं था कि माता-पिता से झूठ बोलूँ, लेकिन इन सबके बावजूद मैंने उस दोस्त का साथ नहीं छोड़ा, इस भ्रम में कि मैं उसको सुधारकर रहूँगा। मगर मेरा यह सोचना बहुत ही भ्रामक था।


गाँधीजी

इस अनुभव से गाँधीजी ने यह निष्कर्ष निकाला कि दोस्ती में सुधार की गुँजाइश नहीं होती। वह लिखते हैं - 

'किसी सुधारक को उस व्यक्ति के साथ गहरी अंतरंगता नहीं रखनी चाहिए जिसे वह सुधारना चाहता है क्योंकि दोस्ती में सुधार की बहुत कम गुँजाइश है। …दोस्त एक-दूसरे पर असर डालते हैं… और मेरा विचार है कि मनुष्य अच्छाई के मुक़ाबले बुराई की ओर जल्दी आकृष्ट होता है। और वह जो ईश्वर के साथ मैत्री चाहता है, उसे तो हमेशा अकेला रहना चाहिए या फिर सारी दुनिया को अपना मित्र बना लेना चाहिए।'

जिस दोस्त ने गाँधीजी को माँसाहारी बनाया था, उसी ने उनको वेश्यागमन के लिए भी प्रोत्साहित किया जिसका नतीजा यह हुआ कि वह एक दिन वेश्या के कोठे पर भी पहुँच गए। उसके बाद क्या हुआ, इसके बारे में हम जानेंगे अगली कड़ी में।

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