28 अप्रैल, 1976 को भारत के नागरिकों को सुप्रीम कोर्ट से सबसे बड़ा झटका लगा। इस दिन अतिरिक्त ज़िला मजिस्ट्रेट बनाम एस. एस. शुक्ला के मामले में सुप्रीम कोर्ट की पाँच सदस्यीय बेंच ने अपना फ़ैसला सुनाया। इस फ़ैसले ने संविधान, संवैधानिक नैतिकता और संविधानवाद को गहरे घाव दिए।
सुप्रीम कोर्ट बदले छवि, संवैधानिक अधिकारों की रक्षा में क्यों चूक रहा?
- विचार
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- 28 Aug, 2019
आज कहीं आपातकाल नहीं लगा है फिर भी जम्मू-कश्मीर में संवैधानिक और मौलिक अधिकार निलंबित हैं। इससे बुरा यह है कि सुप्रीम कोर्ट ने इन अधिकारों को लागू करने वाले संवैधानिक उपायों को भी छीन लिया है।

इस फ़ैसले ने आपातकाल में एक व्यक्ति की बंदी प्रत्यक्षीकरण के अधिकार को निरस्त करने की इजाज़त दे दी। अदालत की टिप्पणी थी कि, ‘सार्वजनिक ख़तरे की आशंका के मद्देनज़र वे सारे क़ानून जो शांतिकाल में प्रत्येक व्यक्ति को सुरक्षा और भरोसा देते हैं, को देशहित में त्यागने पड़ सकते हैं’ -(जस्टिस ए एन रे)। ‘किसी क़ानून को लागू करना वैधानिक अधिकार का एक तत्व है और राज्य की वैधानिक सत्ता के तहत किसी अधिकार को लागू करना समाज के क़ानूनी स्तंभ के तौर पर राज्य के अख़्तियार में है कि वह ऐसे क़ानून को लागू करे या वापस ले ले’ -(जस्टिस बेग)। ‘निजी स्वतंत्रता मौलिक अधिकार है इसलिए अनुच्छेद 21 के तहत इस अधिकार को लागू करने से मना करने का अर्थ है कि अनुच्छेद 21 के अंतर्गत बंदी प्रत्यक्षीकरण या किसी और क़ानून को सस्पेंड करना भी है’ -(जस्टिस वाई वी चंद्रचूड़)। ‘संविधान... कहता है कि अगर कोई ग़ैर क़ानूनी तौर पर भी हिरासत में लिया जाता है तो भी वह निजी स्वतंत्रता के अधिकार का इस्तेमाल नहीं कर सकता यदि अनुच्छेद 21 का उल्लेख करते हुए भी अनुच्छेद 359 की उप धारा 1 के तहत प्रेजिडेंशियल ऑर्डर व्यवहार में हो’ -(जस्टिस भगवती)।