एक दिन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी टीवी पर प्रकट होंगे। बुजुर्ग वैभवशाली किसान के वेश में। पूरे भावुक अभिनय के साथ। कहेंगे- "मेरे किसान भाइयों का दुख अब मुझसे नहीं देखा जाता। उन्हें हमने बार-बार कृषि कानूनों के फायदे बताने की कोशिश की। लेकिन विपक्षी दलों के इशारे पर आंदोलनजीवी लोग किसान आंदोलन को चला रहे हैं। गंदी राजनीति कर रहे हैं।...इस समय आंदोलन से किसानों के जीवन और कोरोना के संक्रमण का खतरा है। इसलिए अगर वे बिल रद्द करने पर ही वापस अपने घरों को जाना चाहते हैं तो मैं तीनों कृषि कानूनों को त्यागता हूं ...लेकिन इन छह माह में हमारे अनेक बुजुर्ग और भाई बंधु हमसे बिछड़ गए। (रुँधे गले से)... मैं उन सबके प्रति अपनी संवेदना व्यक्त करता हूं और वादा करता हूं कि अपने प्यारे किसान भाइयों के साथ कुछ भी गलत नहीं होने दूंगा।"

दरअसल, मोदी के सामने किसान आंदोलन सबसे बड़ी चुनौती के रूप में खड़ा है। (कोरोना महामारी गोया उनके लिए कोई आपदा नहीं है!) मोदी कॉरपोरेट और किसान आंदोलन के दोराहे पर खड़े हैं। राजनीतिक नुकसान की आशंका के बावजूद उन्हें कोई रास्ता नहीं सूझ रहा है। जबकि बीजेपी-संघ के दूसरे संगठन इससे होने वाले नुकसान को भाँपकर लगातार सरकार को आगाह कर रहे हैं।
इस पटकथा के परिदृश्य में बदलने की कितनी संभावना है? क्या किसान आंदोलन जल्दी खत्म होगा अथवा और आगे चलेगा? क्या मोदी सरकार तीनों कृषि कानूनों को बिना किसी दाव-पेंच के वापस लेगी?
लेखक सामाजिक-राजनीतिक विश्लेषक हैं और लखनऊ विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग में असि. प्रोफ़ेसर हैं।