एक दिन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी टीवी पर प्रकट होंगे। बुजुर्ग वैभवशाली किसान के वेश में। पूरे भावुक अभिनय के साथ। कहेंगे- "मेरे किसान भाइयों का दुख अब मुझसे नहीं देखा जाता। उन्हें हमने बार-बार कृषि कानूनों के फायदे बताने की कोशिश की। लेकिन विपक्षी दलों के इशारे पर आंदोलनजीवी लोग किसान आंदोलन को चला रहे हैं। गंदी राजनीति कर रहे हैं।...इस समय आंदोलन से किसानों के जीवन और कोरोना के संक्रमण का खतरा है। इसलिए अगर वे बिल रद्द करने पर ही वापस अपने घरों को जाना चाहते हैं तो मैं तीनों कृषि कानूनों को त्यागता हूं ...लेकिन इन छह माह में हमारे अनेक बुजुर्ग और भाई बंधु हमसे बिछड़ गए। (रुँधे गले से)... मैं उन सबके प्रति अपनी संवेदना व्यक्त करता हूं और वादा करता हूं कि अपने प्यारे किसान भाइयों के साथ कुछ भी गलत नहीं होने दूंगा।"
इस पटकथा के परिदृश्य में बदलने की कितनी संभावना है? क्या किसान आंदोलन जल्दी खत्म होगा अथवा और आगे चलेगा? क्या मोदी सरकार तीनों कृषि कानूनों को बिना किसी दाव-पेंच के वापस लेगी?
किसान आंदोलन के 6 माह पूरे हो गए हैं और मोदी की सत्ता के सात साल। अभी मोदी के पास भी समय है और किसानों के पास भी। संयुक्त किसान मोर्चा के नेता पहले ही आंदोलन को तीन साल तक चलाने की बात कह चुके हैं।
फंस गए मोदी
दरअसल, मोदी के सामने किसान आंदोलन सबसे बड़ी चुनौती के रूप में खड़ा है। (कोरोना महामारी गोया उनके लिए कोई आपदा नहीं है!) मोदी कॉरपोरेट और किसान आंदोलन के दोराहे पर खड़े हैं। राजनीतिक नुकसान की आशंका के बावजूद उन्हें कोई रास्ता नहीं सूझ रहा है। जबकि बीजेपी-संघ के दूसरे संगठन इससे होने वाले नुकसान को भाँपकर लगातार सरकार को आगाह कर रहे हैं।
चुनावी नुकसान
किसान आंदोलन से मोदी सरकार की लोकप्रियता और बीजेपी-संघ की विश्वसनीयता दरक रही है। सत्ता पाने के लिए सब कुछ झोंक देने वाली बीजेपी को किसान आंदोलन अब चुनावों में भी नुकसान पहुंचा रहा है।
पिछले दिनों संपन्न पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों में से बीजेपी की चुनौती बने बंगाल और असम में किसान नेताओं ने सभाएं आयोजित करके बीजेपी को वोट नहीं करने का आह्वान किया था। इसका बहुत असर भले ही ना हुआ हो लेकिन बंगाल की पराजय ने बीजेपी संघ के केंद्रीय नेतृत्व को सोचने के लिए मजबूर कर दिया है।
अब सवाल यह है कि किसान आंदोलन के मायने क्या हैं? दरअसल, पिछले दशकों में सबसे बड़े जन आंदोलन के रूप में इसका उभार हुआ है। मुख्य रूप से पंजाब, हरियाणा और पश्चिमी यूपी के किसान संगठनों के नेतृत्व में चलने वाले इस आंदोलन को मोदी ने पहले बहुत नजरअंदाज किया।
इसके बाद नागरिकता विरोधी कानून के खिलाफ होने वाले शाहीन बाग आंदोलन को बदनाम करके सांप्रदायिक दंगों के मार्फत निपटाने वाली बीजेपी सरकार द्वारा सबसे पहले किसान नेताओं में फूट डालने की कोशिश की गई। फिर मीडिया और अन्य हिंदुत्ववादी संगठनों के जरिए किसानों को बांटने की साजिश की गई।
सरकार के नुमाइंदों ने भी इसे अमीर जमींदारों का आंदोलन कहकर बदनाम करने की कोशिश की। उनका कहना था कि तीनों कृषि बिल छोटे और मझोले किसानों के हित में हैं। इसलिए बड़े किसान और जमींदार इनका विरोध कर रहे हैं और आंदोलनकारी छोटे मझोले किसानों का भला नहीं चाहते।
बावजूद इसके किसान आंदोलन का दायरा बढ़ता गया। इसके समर्थन में तमाम कामगार, मजदूर, दलित, पिछड़े, स्त्री, अल्पसंख्यक और अन्य सांस्कृतिक संगठन खड़े हो गए।
दूसरी तरफ केंद्र और राज्यों की बीजेपी सरकारों ने कृषि क़ानूनों के पक्ष में जन समर्थन जुटाने का प्रयास किया। लेकिन ऐसे आयोजन फीके ही नहीं रहे बल्कि हरियाणा, पंजाब और पश्चिमी यूपी में बीजेपी नेताओं को पुरजोर विरोध का सामना करना पड़ा।
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हरियाणा के किसान नाराज़
हरियाणा के करनाल में नाराज किसानों ने मुख्यमंत्री मनोहर लाल खट्टर की होने वाली रैली के तंबू उखाड़ दिए। खट्टर को रैली रद्द करनी पड़ी। कई जगहों पर बीजेपी के विधायकों, सांसदों को गुस्साए किसानों ने दौड़ा-दौड़ाकर पीटा। बीजेपी नेताओं का क्षेत्र में निकलना मुश्किल हो गया। नेताओं को सबसे ज्यादा चिंता अपनी जीत की होती है। लिहाजा, विरोध को देखते हुए नेता, लोगों से अनौपचारिक चर्चा में कृषि कानूनों के विरोध में खड़े होने की बात कहने लगे। जाहिर तौर पर ऐसे में किसानों का सारा गुस्सा नरेंद्र मोदी पर केन्द्रित हो गया।
करीब दो महीने तक मोदी आंदोलन पर खामोश बने रहे। अलबत्ता, उन्होंने अपने कृषि मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर और रेल मंत्री पीयूष गोयल जैसे विश्वस्त नुमाइंदों को किसानों से बातचीत करने के लिए लगाया था। सरकार और किसान नेताओं के बीच ग्यारह दौर तक चली वार्ता बेनतीजा टूट गई। सरकार ने बातचीत बंद कर दी। लेकिन किसान मोर्चे पर डटे रहे।
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26 जनवरी को किसानों ने गणतंत्र दिवस परेड में ट्रैक्टर रैली आयोजित करने का ऐलान किया। पंजाब, हरियाणा, महाराष्ट्र, कर्नाटक, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, राजस्थान, उत्तराखंड आदि अनेक राज्यों से हजारों किसान ट्रैक्टर लेकर परेड में हिस्सा लेने पहुंचे। यह भारतीय लोकतंत्र के इतिहास का शानदार लम्हा बन सकता था। लेकिन सरकार के मंसूबे कुछ और ही थे।
ट्रैक्टर रैली में हिंसा
इतनी बड़ी संख्या में पहुँचे, दिल्ली की सड़कों से अनजान ट्रैक्टरों को साजिश के तहत लाल किले की ओर मोड़ दिया गया। आईटीओ, नांगलोई, बादली में हिंसा हुई। कई जानें गईं। लाल किले पर उपद्रव हुआ। बीजेपी सांसद हेमा मालिनी और सनी देओल के करीबी दीप सिद्धू ने लाल किले पर निशान साहिब फहरा दिया। इन घटनाओं के अतिरिक्त 95 फीसद ट्रैक्टर परेड शांतिपूर्वक संपन्न हुई। लेकिन सरकार और मीडिया को मौका मिल चुका था।
गोदी मीडिया ने आसमान सिर पर उठा लिया। किसान गद्दार हो गए। राष्ट्रध्वज का अपमान करने वाले देशद्रोही! जबकि तिरंगा अपनी जगह गर्व से लहरा रहा था। किसान नेताओं पर यूएपीए जैसी धाराएं लगा दी गईं। छापेमारी और गिरफ्तारियां चालू हो गईं। आंदोलन को खत्म करके किसान नेताओं को जेलों में ठूँसने की पूरी तैयारी हो चुकी थी।
अंतरराष्ट्रीय साजिश का तर्क
आंदोलनकारियों के खिलाफ होने वाली कार्रवाई पर अंतरराष्ट्रीय जगत में तीखी प्रतिक्रिया हुई। पॉप सिंगर रिहाना, पर्यावरण कार्यकर्ता ग्रेटा तनबर्ग और कमला हैरिस ने ट्वीट करके इसे लोकतंत्र पर हमला बताया। सरकार को एक और मौका मिल गया। अब उसने इसे भारत को बदनाम करने की अंतरराष्ट्रीय साजिश करार दिया।
सोशल मीडिया पर प्रचार
गौरतलब है कि कोरोना महामारी के दौर में ध्वस्त मोदी की इमेज बचाने के लिए सोशल मीडिया पर कैंपेन चल रहा है। कहा जा रहा है कि चीन और पाकिस्तान जैसे देश भारत को विश्वगुरु बनने से रोकने के लिए अंतरराष्ट्रीय स्तर पर कोरोना फैलाने की साजिश कर रहे हैं। यह भी कैंपेन चल रहा है कि मोदी नहीं होते तो 10 लाख की जगह 10 करोड़ लोग कोरोना से मर जाते। इसलिए आएगा तो मोदी ही, यानी 2024 में।
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टिकैत ने बदला माहौल
बहरहाल, गणतंत्र दिवस परेड की घटना के बाद जामिया, शाहीन बाग और जेएनयू आंदोलनों की तरह किसान आंदोलन को भी निपटाने की पूरी पटकथा पहले ही लिखी जा चुकी थी। आंदोलन स्थलों को कीलों, नुकीले तारों से घेर दिया गया। एक तरफ स्टील के डंडे लिए पुलिस वाले खड़े थे तो दूसरी तरफ लोकल बीजेपी-संघी गुंडे किसानों को घेरकर देशद्रोही और आतंकवादी करार देते हुए उन पर पत्थर बरसा रहे थे। लेकिन राकेश टिकैत के आंसुओं ने गोया उपद्रव के दाग को धो दिया।
दिल्ली की सरहदों पर फिर से चहल-पहल बढ़ गई। कोरोना काल में आंदोलन ठहरा हुआ जरूर है, लेकिन अपनी अपार ऊर्जा और ताकत को संजोए हुए।
छह माह से चल रहा किसान आंदोलन ठिठुरती सर्दी और प्रचंड गर्मी से जूझते हुए आज कोरोना संकट की चुनौती का सामना कर रहा है। आंदोलन में सैकड़ों किसान शहीद हो चुके हैं। किसानों के सामने जानमाल की चुनौती बनी हुई है। इसके बाद बरसात और फसल की बुआई की चुनौती होगी। लेकिन उनके सामने सबसे बड़ी चुनौती बिल वापसी की है और किसानों से बड़ी चुनौती मोदी सरकार के सामने है।
क्या सरकार आंदोलन से निपट पाएगी? सूत्रों की मानें तो अंदरखाने सरकार किसानों से बातचीत कर रही है। बीजेपी-संघ और दूसरे संगठनों के प्रतिनिधियों ने मोदी को फीडबैक दिया है कि बिल वापस लिए बिना आगामी चुनाव जीतना मुमकिन नहीं होगा। क्या मोदी अपने प्रिय अंबानी अडानी की प्रत्याशाओं को पूरा किए बिना तीनों कृषि कानून वापस करेंगे?
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