यद्यपि 43 साल पहले ही इब्राहिम अल्काज़ी ने रंगकर्म को बाय-बाय कह दिया था लेकिन तब भी भारतीय (विशेषकर हिंदी) रंगमंच में उनकी धमक बरक़रार रही और रहेगी भी। उनके नाटकों के प्रोडक्शन, उनकी रंग परिकल्पनाएँ (स्टेज क्राफ़्ट), उनके पैदा किये अभिनेतागण और सबसे ज़्यादा उनका बनाया संस्थान- नेशनल स्कूल ऑफ़ ड्रामा हमेशा-हमेशा के लिए भारतीय रंगमंच के 'आर्काइव' में उनके अमिट योगदान की गाथा सुनाते रहेंगे। नाटकों को अलविदा कहने के बाद 'कला पारखी' के रूप में उन्होंने अपनी नई पहचान से देश को अवगत कराया। अस्सी के दशक में 'डिज़ायनों' पर आई उनकी किताबें और दिल्ली में उनकी 'आर्ट हैरिटेज गैलरी' की स्थापना- अल्काज़ी का व्यक्तित्व और प्रतिरूप दोनों ही जगहों पर साफ़-साफ़ झलकता है।
अल्काज़ी : स्टेज का ‘तुग़लक़’ जिसने भारतीय रंगमंच को जड़ों से काट दिया!
- विचार
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- 6 Aug, 2020

जब थिएटर नहीं बचेगा तो थिएटर में कॅरियर कहाँ बचेगा? इब्राहिम अल्काज़ी के अपने निर्देशकीय काल में ही हिंदी रंगकर्म बिखराव की उलटी सीढ़ी गिरने लगा था। उनके अपने शिष्यों का बड़ा समूह 'पासआउट' करते ही थिएटर को धता बताकर मुंबई फ़िल्म उद्योग की राह भागने लगा था। अल्काज़ी इसे देख रहे थे। थिएटर का यह 'तुग़लक़' अपनी आँखों के सामने अपने सपनों को किरिच-किरिच बिखरते नहीं देख सकता था।
अल्काज़ी का सबसे बड़ा योगदान यह है कि उन्होंने छितरे-बिखरे भारतीय रंगकर्म को अनुशासनबद्ध किया। निर्देशक और शिक्षक के रूप में उन्होंने आधुनिक रंगमंच को शास्त्रीय निबद्धता प्रदान की। आलीशान रंग परिकल्पनाओं वाले सेट निर्माण और जादुई रंगदीपन (स्टेज लाइटिंग) के बीच शास्त्रीयबद्ध 'ब्लॉकिंग' और 'मूवमेंट्स' में उनके अभिनेता का आरूढ़ संचालन महानगरों के रंगकर्मियों और दर्शकों को तो चौंधियाता रहा ही, हिंदी के छोटे शहरों के रंगकर्मियों और निर्देशकों के लिए भी प्रेरणा बिंदु बना रहा।