यद्यपि 43 साल पहले ही इब्राहिम अल्काज़ी ने रंगकर्म को बाय-बाय कह दिया था लेकिन तब भी भारतीय (विशेषकर हिंदी) रंगमंच में उनकी धमक बरक़रार रही और रहेगी भी। उनके नाटकों के प्रोडक्शन, उनकी रंग परिकल्पनाएँ (स्टेज क्राफ़्ट), उनके पैदा किये अभिनेतागण और सबसे ज़्यादा उनका बनाया संस्थान- नेशनल स्कूल ऑफ़ ड्रामा हमेशा-हमेशा के लिए भारतीय रंगमंच के 'आर्काइव' में उनके अमिट योगदान की गाथा सुनाते रहेंगे। नाटकों को अलविदा कहने के बाद 'कला पारखी' के रूप में उन्होंने अपनी नई पहचान से देश को अवगत कराया। अस्सी के दशक में 'डिज़ायनों' पर आई उनकी किताबें और दिल्ली में उनकी 'आर्ट हैरिटेज गैलरी' की स्थापना- अल्काज़ी का व्यक्तित्व और प्रतिरूप दोनों ही जगहों पर साफ़-साफ़ झलकता है।