अमर सिंह के गुज़र जाने पर हिंदी के राष्ट्रीय स्तर पर जाने गए पत्रकारों से लेकर ज़िला स्तर तक के पत्रकारों की टिप्पणियों को पढ़ना ख़ासा दिलचस्प अनुभव था। वीरेंद्र सेंगर, शकील अख़्तर और कुछेक इक्का-दुक्का पत्रकारों को छोड़कर ज़्यादातर भाई लोगों (जो उनसे गाहे-बगाहे उपकृत हुए वे सभी और जो नहीं हुए वे भी) ने उनके जाने का शोक मनाया।
अमर सिंह न अमर थे, न रहेंगे
- विचार
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- 2 Aug, 2020

पूंजीवाद के लिए चाशनी में लिप्त 'कॉरपोरेट' शब्द आ गया और दलाली 'लायज़ाँ' कहलाने लगी। जब सब कुछ नंगा हो गया तो पूंजीपतियों के इर्द-गिर्द घूमने वाले छुटभैये दलाल भी गले में खुले आम दलाली का बिल्ला लटकाये घूमने लगे और पत्रकारिता में छुप-छुप कर दलाली करने वाले बड़े गर्व से किसी ख़ास उद्योग समूह के हितों की 'प्रेस विज्ञप्तियों' को बेशर्मी से 'स्टोरी' बताकर छापने लग गए।