देश को आहिस्ता-आहिस्ता ‘लॉकडाउन’ से बाहर निकालने की तैयारियाँ चल रही हैं। इसके लिए शहरों को संक्रमण-प्रभावित और संक्रमण-मुक्त इलाक़ों के अलग-अलग ज़ोन में बाँटा जाएगा। अब नागरिकों के सामने भी चुनौती आन पड़ी है कि वे भी अपने एक-तरफ़ा चल रहे सोच को अलग-अलग ज़ोन में बाँटना शुरू कर दें। बंद घरों और बंद दिमाग़ के कारण अभी केवल दो ही चीजें हो पा रही हैं: या तो टीवी की ख़बरों के ज़रिए मरने वालों के आँकड़े पता चल रहे हैं, या फिर एंकरों के साथ-साथ दर्शक भी संक्रमण फैलाने वालों को देश भर में ढूंढने में जुट गए हैं। दूसरे यह कि कोरोना महामारी ने अख़बारों का वज़न भी काफ़ी कम कर दिया है। पाठकों को पता ही नहीं चल पा रहा है कि ज़्यादातर अख़बार उनकी वैचारिक नसबंदी करने में जुटे हुए हैं। वे या तो कोरोना से बचने के घरेलू नुस्ख़े छाप रहे हैं या फिर पाठकों को निराशा से उबारने के लिए मोटिवेशनल ज्ञान अथवा मनोरंजन के फ़िल्मी समाचार बाँट रहे हैं। बचने के नुस्ख़े भी ठीक वैसे ही हैं जैसे कि गर्भवती महिलाओं को उनकी सास ‘ड़ूज़ एंड डोंट्स’ गिनाती रहती हैं।
कोरोना: ग़ैर-भाजपा सीएम के सुझावों पर अब गम्भीरता क्यों दिखाने लगे प्रधानमंत्री?
- विचार
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- 14 Apr, 2020

अगर कहा जा रहा है कि कोरोना संकट के बाद ज़िंदगी बदल जाएगी और सबकुछ पहले जैसा नहीं रहेगा तो हमें इस बात पर चिंता के साथ ही ख़ुश होना चाहिए। दिमाग़ लगाना शुरू कर देना चाहिए कि किन-किन परिवर्तनों के लिए हमें तैयार रहने को कहा जा सकता है।