देश को आहिस्ता-आहिस्ता ‘
लॉकडाउन’ से बाहर निकालने की तैयारियाँ चल रही हैं। इसके लिए शहरों को संक्रमण-प्रभावित और संक्रमण-मुक्त इलाक़ों के अलग-अलग ज़ोन में बाँटा जाएगा। अब नागरिकों के सामने भी चुनौती आन पड़ी है कि वे भी अपने एक-तरफ़ा चल रहे सोच को अलग-अलग ज़ोन में बाँटना शुरू कर दें। बंद घरों और बंद दिमाग़ के कारण अभी केवल दो ही चीजें हो पा रही हैं: या तो टीवी की ख़बरों के ज़रिए मरने वालों के आँकड़े पता चल रहे हैं, या फिर एंकरों के साथ-साथ दर्शक भी संक्रमण फैलाने वालों को देश भर में ढूंढने में जुट गए हैं। दूसरे यह कि कोरोना महामारी ने अख़बारों का वज़न भी काफ़ी कम कर दिया है। पाठकों को पता ही नहीं चल पा रहा है कि ज़्यादातर अख़बार उनकी वैचारिक नसबंदी करने में जुटे हुए हैं। वे या तो कोरोना से बचने के घरेलू नुस्ख़े छाप रहे हैं या फिर पाठकों को निराशा से उबारने के लिए मोटिवेशनल ज्ञान अथवा मनोरंजन के फ़िल्मी समाचार बाँट रहे हैं। बचने के नुस्ख़े भी ठीक वैसे ही हैं जैसे कि गर्भवती महिलाओं को उनकी सास ‘ड़ूज़ एंड डोंट्स’ गिनाती रहती हैं।
हमें अपने मस्तिष्क के ग्रीन ज़ोन को सक्रिय करके सोचना शुरू कर देना चाहिए कि क्या हमारे प्रधानमंत्री इन दिनों कुछ अलग-अलग नहीं नज़र आ रहे हैं? वह इन दिनों जब भी जनता से बात करते हैं, काफ़ी विनम्र और भावुक दिखाई पड़ते हैं! चाहें तो मंगलवार सुबह दस बजे इसे नोटिस कर सकते हैं। वह ‘मैं’ शब्द के बजाय ‘हम’ या ‘हमें’ का ज़्यादा इस्तेमाल करने लगे हैं! मसलन ‘इस संकट का हम सबको मिलकर मुक़ाबला करना है’, आदि, आदि। वह ग़ैर-भाजपा मुख्यमंत्रियों के सुझावों पर ज़्यादा गम्भीरता से ध्यान दे रहे हैं! इस समय समूचे परिदृश्य से ‘इन ग़द्दारों को...’ वाली ‘जमात’ पूरी तरह से अनुपस्थित है! मुमकिन है क. मिश्रा भी राहत के कामों में जुटे हों। हमें ग़ौर करना चाहिए कि कहीं से भी कोई विवादास्पद बयान नहीं आ रहा है जबकि इसके सारे एक्स्पर्ट इस समय काफ़ी ज़्यादा फ़ुर्सत में हैं।
बहुत कम लोगों ने ध्यान दिया होगा कि संघ के कार्यकर्ता भी इस समय बिना किसी आलोचना की परवाह किए कई स्थानों पर अपनी परम्परागत पोशाक में लॉकडाउन का पालन करवाने में स्थानीय प्रशासनों की मदद कर रहे हैं। भाजपा के देश में 18 करोड़ सदस्य हैं यानी प्रत्येक सात नागरिकों में एक भाजपा का सदस्य है। संघ में वैसे तो कोई औपचारिक सदस्यता का कॉलम नहीं है फिर भी सभी अनुशांगिक संगठनों को भी मिला लें तो उसके एक से दो करोड़ लोग हैं, यह संख्या भाजपा से अलग है। यानी देश के प्रत्येक सौ नागरिकों में एक। इतने लोगों की टीम अगर कोरोना के बचाव में जुट जाए तो क्रांति हो सकती है।
सोचना शुरू करने का वक़्त आ गया है कि महामारी से जूझने के दौरान चारों ओर हृदय-परिवर्तन की जो लहर दिखाई दे रही है वह स्थाई होने जा रही है या फिर सबकुछ वैसा ही है जैसे घरों में किसी बुजुर्ग की गंभीर बीमारी के चलते ‘परिवार’ के सारे सदस्य प्रॉपर्टी के बँटवारे की बातें बंद करके पलंग के पास जमा हो जाते हैं और फिर अंत्येष्टि के तुरंत बाद और उठवाने के पहले ही पूर्ववत हो जाते हैं?
सोचने का समय आ गया है कि इस समय भारतीय गणराज्य का जो संघीय स्वरूप (फ़ेडरल स्ट्रक्चर ही पढ़ें) अपने श्रेष्ठतम अवतार में अभिव्यक्त हो रहा है वह आगे भी क़ायम रहने वाला है या फिर कोरोना की महामारी के इलाज में चुनावों के वैक्सीन ही/भी ईजाद किए जा रहे हैं? अगर कहा जा रहा है कि कोरोना संकट के बाद ज़िंदगी बदल जाएगी और सबकुछ पहले जैसा नहीं रहेगा तो हमें इस बात पर चिंता के साथ ही ख़ुश होना चाहिए। दिमाग़ लगाना शुरू कर देना चाहिए कि किन-किन परिवर्तनों के लिए हमें तैयार रहने को कहा जा सकता है।
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