आज जबकि कोरोना अपने उत्ताप पर है, मुझे अपना जन्मदिन (22 मई) बेहद कचोट रहा है। कचोटे जाने की वजह है स्मृतियों में जन्म के छठे दिन मेरे 'महामारी' की चपेट में आ जाने की हौलनाक कथा जो माँ (अपने जीवन पर्यन्त) मेरे हर जन्मदिन पर सुनाती थीं। बाद के दिनों में, जबकि हमारे बेटों का कैशोर्य शुरू हो गया था (और दादी से दुलार की नूराकुश्ती उनका शगल बन चुका था) वह ज्यों ही अपना स्टीरियो टाइप शुरू करतीं, उनके नाती अंत तक का पूरा स्टोरी रिकॉर्ड बजा डालते थे।
कोरोना काल : क्या करूँ इस ‘हैप्पी बर्थडे’ का
- विचार
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- 22 May, 2020

'जॉन हॉपकिंस यूनिवर्सिटी' के हालिया अध्ययन में कहा गया है कि मौजूदा महीनों में 143 देशों के जो 36 करोड़ 85 लाख बच्चे स्कूल जाने से महरूम रह गए और जिन्हें 'मिड डे स्कूल मील' नहीं मिल पा रहा है, वे ज़बरदस्त कुपोषण का शिकार हैं और आने वाले दिनों में गंभीर बीमारियों की चपेट में आने को अभिशप्त हैं।
माँ बताती थीं कि ज्यों ही उन्हें शक हुआ कि मेरे बार-बार होने वाले दस्त दरअसल डायरिया है, वह मुझे लेकर पिता के क्लीनिक की तरफ़ भागीं जो घर से ज़्यादा दूर नहीं था। आज की तरह उन दिनों सलाइन वॉटर की बोतल नहीं आती थीं। अगले 35 घंटे तक मेरे पिता और उनके सहायक इन्ट्राविनस सीरिंज से निरंतर मेरे शरीर में सलाइन वॉटर की सप्लाई करते रहे। माँ के पास उन पूरे 35 घंटों की विस्तृत दास्तान है जिसे वह हर बार पूरा-पूरा सुनातीं (पहले मुझे, फिर मेरी पत्नी को और बाद में अपने नातियों को) जिसका उपसंहार था कि 35 घंटे बाद जब मैं थोड़ा चैतन्य हुआ तो पिताजी ने मुस्कराकर पड़ोस वाली विद्या जीजी से (जो ताउम्र हमारी फ़ैमिली मेंबर की मानिंद रहीं) कहा ‘इन्हें (मां को) ले जाओ और चाय-वाय पिलाओ।’ माँ बमुश्किल वहाँ से हटीं। उनके गणित के मुताबिक़ आगे चलकर, मेरा पेट जो बार-बार गड़बड़ करता था, वह 6 दिन की उम्र में हुए उस डायरिया की बदौलत था। यह अलग बात है कि उनके नाती बहस में उनसे उलझ पड़ते ‘हमने तो देखा है कि पापा को कंकड़-पत्थर सब हज़म हो जाता है।’ माँ कभी अपने संस्थापनाओं से पीछे नहीं हटतीं ‘अरे जाओ, तुम क्या जानो? तुमने अभी देखा ही क्या है?’