यह हैरानी की बात नहीं है कि जब दुनिया COP-28 के तमाशे में पेट्रोलियम बनाम कोयले की ख़पत और कुल मिलाकर जैव स्रोत से कार्बन उत्सर्जन घटाने की ‘लड़ाई या महायुद्ध’ में लगी थी और ताक़तवर तेल उत्पादक देशों के दबाव में दुबई के इस आयोजन में पेश प्रस्तावों में हेर-फेर करनी पड़ी तब अमेरिकी और पश्चिमी जगत के नागरिक समाज समूहों की तरफ़ से एक दिलचस्प मांग उठी कि दुनिया को स्थानीय उत्पादों की ख़पत की तरफ़ ही लौटना पड़ेगा।
पश्चिम को गांधी के दर्शन में दिख रहा है जलवायु परिवर्तन का समाधान!
- विचार
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- 21 Dec, 2023

गांधी जिन वजहों से पश्चिमी सभ्यता को शैतानी कहते थे उनमें पश्चिम का अंध उपभोग भी एक बड़ा कारण था। यही पश्चिम अब गांधी के तौर-तरीकों जैसी मांग क्यों उठा रहा है?
‘लोकल लवर्स’ से बने ‘लोकलवर्स’ नाम से सक्रिय इन समूहों की बुनियादी स्थापना है कि अगर हम अपने रहने की जगह से कुछ मील के दायरे में ही उगने वाली फसलों, सब्जियों और फलों, मांस-मछली, दूध-दही का सेवन शुरू करेंगे तो दुनिया की ऊर्जा समस्या का काफी हद तक निदान हो जाएगा। आज ऐसी चीजों की ढुलाई और उनको उपयोग लायक स्थिति में रखने में जितनी ऊर्जा खपत होती है वह बेकार है। ऐसा करने में हमें महंगी ही नहीं, कम पौष्टिक भोजन मिलता है, बेस्वाद मिलता है और खाने की चीजों का एक बड़ा हिस्सा बेकार हो जाता है। इसलिए लोकल खाने-पीने से न सिर्फ ऊर्जा की बचत होगी बल्कि पौष्टिकता की रक्षा होगी और स्वास्थ्य पर होने वाले खर्चे भी घटेंगे।