कायदे से कश्मीर और अनुच्छेद 370 की उलझनों पर किए गए फैसले और फिर अदालत से मिली क्लीनचिट पर चर्चा करनी चाहिए। क्योंकि यह बहुत बड़े मतलब का है, बहुत शोर है, भाजपा और जनसंघ की राजनीति का एक केन्द्रीय मुद्दा रहा है और कई सारी जमातों (कश्मीर के ही नहीं) के लिए राजनीति करने का एक आधार रहा है। संसद और अदालती मोहर के बाद कायदे से इस मुद्दे को समाप्त मानना चाहिए लेकिन ऐसा हो जाएगा, यह नहीं कहा जा सकता है। पर कश्मीर के बहाने देश भर में हिन्दू ध्रुवीकरण और कश्मीरी मुसलमानों को खास दर्जा देने की राजनीति एक मुकाम तक तो आई ही है जो बहुत साफ़ तौर पर हमारी आज़ादी की लड़ाई और गांधी-नेहरू-पटेल वाले दौर के नेतृत्व द्वारा की गई राजनीति से अलग है। यह जिन्ना की राह वाली राजनीति भी नहीं है लेकिन इससे दो-कौमी नजरिया वाली लाइन ही मजबूत हुई है। कहना न होगा कि आज की भाजपा और सरकार अटल-आडवाणी वाले दौर से भी आगे निकल गई और इससे वह झिझक भी नहीं है जिससे आडवाणी जिन्ना को सेकुलर कहने की ‘गलती’ करते थे और वाजपेयी को ‘कश्मीरियत’ में काफी कुछ ‘जम्हूरियत और इंसानियत’ भी नजर आती थी। तब भी संघ को अपने इन दो सितारों का यह रुख पसंद नहीं आया था और आडवाणी के राजनैतिक पतन में तो इस घटना की बड़ी भूमिका थी ही।
पर संघ परिवार और उसके सूत्रधार अपनी लाइन पर आगे बढ़ते जा रहे हैं। चुनाव प्रचार के दौरान प्रधानमंत्री द्वारा खुलकर धार्मिक नारे लगवाने से लेकर सांप्रदायिक ध्रुवीकरण के सारे तरीके अपनाना उसका एक अंग भर है। चुनाव वाले राज्यों- जैसे छत्तीसगढ़ और मध्य प्रदेश में तो कम लेकिन राजस्थान में सांप्रदायिक ध्रुवीकरण का प्रयास बड़े पैमाने पर हुआ और भाजपा की जीत में उसका हाथ न हो, यह मानना कठिन है। पर हमने इससे भी ज्यादा तीखे साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण वाले चुनाव देखे हैं।
उत्तर प्रदेश में ही, खासकर पश्चिमी उत्तर प्रदेश में इसके सहारे चुनावी जीत हार भी देखी है। और इस क्रम में भाजपा ने मुसलमान बहुल सीटों पर मुसलमान उम्मीदवार देने का ‘कर्मकांड’ भी समाप्त कर दिया है। इससे मुख्तार अब्बास नकवी और शहनवाज हुसैन जैसे लोग ‘बेरोजगार’ हुए हों और किसी और मुसलमान को अवसर मिल गया हो, यह भी नहीं हुआ है। बीजेपी ने मुसलमान उम्मीदवार उतारने ही बंद कर दिए हैं। और यह प्रयास भी ज्यादा जोर-शोर से होने लगा है कि दूसरी पार्टी का भी मुसलमान नेता न जीत पाए। पिछली बार तो भारी सघन आबादी वाले इलाक़े के साथ प्रदेश में छठवें हिस्से वाले मुसलमान समुदाय का एक भी प्रतिनिधि उत्तर प्रदेश से नहीं जीत पाया।
और इन सबके बीच हम आपने भी यह हिसाब लगाना छोड़ दिया है कि दिल्ली में राष्ट्रपति भवन से लेकर हर बड़े नेता द्वारा रोजा-इफ्तार का आयोजन करना, ईद मिलन आयोजित करना कैसे और किस तेजी से बंद हो गया है। और अगर बिहार और बंगाल में इसका चलन बचा है तो उसके लिए क्या कुछ कहा जाता है।
मोदी सरकार और उसके प्रशंसक यह दावा करते हैं कि किसी भी सरकारी नीति और कार्यक्रम में भेद नहीं है। विभिन्न योजनाओं के लाभार्थियों में मुसलमानों की संख्या या अनुपात में कोई गिरावट या कमी नहीं है। इस दावे का खंडन नहीं किया जा सकता। लेकिन लाभार्थी और नागरिक के भेद को जानना ज़रूरी है। नागरिक के अधिकार भी होते हैं। मुसलमान या अल्पसंख्यकों के लिए लाभार्थी तक का इंतज़ाम तो है लेकिन प्रतिनिधित्व से लेकर किसी तरह के अधिकार मांगने पर मनाही सी हो गई है। और यह नित नए रूप में दिखाई देता है। इसका ताज़ा रूप तरह-तरह की परेशानियों के बावजूद दूसरी पार्टियों और रास्तों से अधिकार सम्पन्न मुसलमान नेताओं और उनको समर्थन करने वाले दलों पर तरह-तरह से दबाव बनाना है। महाराष्ट्र में एनसीपी के सहारे सरकार चलाते वक़्त प्रफुल्ल पटेल को साथ लेने में दिक्कत नहीं हुई, जिन पर दाऊद इब्राहीम से मदद लेने के गंभीर आरोप लगे, लेकिन नाबाब मालिक के आने पर उप मुख्यमंत्री फड़णवीस ही नहीं, सारे भाजपाइयों को भारी ऐतराज हो गया। तेलंगाना में सबसे वरिष्ठ विधायक अकबरुद्दीन ओवैसी के काम चलाऊ अध्यक्ष बनने पर (जबकि यह आम चलन है) भाजपा विधायक टी राजा सिंह शपथ लेने को तैयार न थे। हद तो सांसद दानिश अली के मामले में हुई। भाजपा सांसद रमेश विधुड़ी की खुली गाली का प्रतिरोध करने और महुआ मित्रा का साथ देने के बाद बसपा से वाहवाही मिलने की जगह बहन मायावती ने उन्हें पार्टी से बाहर का रास्ता दिखा दिया।
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