कायदे से कश्मीर और अनुच्छेद 370 की उलझनों पर किए गए फैसले और फिर अदालत से मिली क्लीनचिट पर चर्चा करनी चाहिए। क्योंकि यह बहुत बड़े मतलब का है, बहुत शोर है, भाजपा और जनसंघ की राजनीति का एक केन्द्रीय मुद्दा रहा है और कई सारी जमातों (कश्मीर के ही नहीं) के लिए राजनीति करने का एक आधार रहा है। संसद और अदालती मोहर के बाद कायदे से इस मुद्दे को समाप्त मानना चाहिए लेकिन ऐसा हो जाएगा, यह नहीं कहा जा सकता है। पर कश्मीर के बहाने देश भर में हिन्दू ध्रुवीकरण और कश्मीरी मुसलमानों को खास दर्जा देने की राजनीति एक मुकाम तक तो आई ही है जो बहुत साफ़ तौर पर हमारी आज़ादी की लड़ाई और गांधी-नेहरू-पटेल वाले दौर के नेतृत्व द्वारा की गई राजनीति से अलग है। यह जिन्ना की राह वाली राजनीति भी नहीं है लेकिन इससे दो-कौमी नजरिया वाली लाइन ही मजबूत हुई है। कहना न होगा कि आज की भाजपा और सरकार अटल-आडवाणी वाले दौर से भी आगे निकल गई और इससे वह झिझक भी नहीं है जिससे आडवाणी जिन्ना को सेकुलर कहने की ‘गलती’ करते थे और वाजपेयी को ‘कश्मीरियत’ में काफी कुछ ‘जम्हूरियत और इंसानियत’ भी नजर आती थी। तब भी संघ को अपने इन दो सितारों का यह रुख पसंद नहीं आया था और आडवाणी के राजनैतिक पतन में तो इस घटना की बड़ी भूमिका थी ही।
राजनीति में मुसलमानों को लगाया जा रहा किनारे!
- विचार
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- 13 Dec, 2023

राजनीति में क्या मुसलमानों के लिए अब जगह कम होती जा रही है? आज की भाजपा और सरकार अटल-आडवाणी वाले दौर से भी आगे निकल गई। तो बाक़ी दलों में क्या स्थिति है?