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प्रियंका गांधी ने आगामी यूपी विधानसभा चुनाव में 40 फ़ीसदी टिकट महिलाओं को देने का एलान किया है। उन्होंने यह भी कहा कि उनका वश चलता तो यह आंकड़ा 50 फीसदी हो सकता था। साथ ही उन्होंने आश्वस्त किया कि आने वाले समय में 50 फीसदी टिकट महिलाओं को दिए जाएंगे।
प्रियंका गांधी का एलान क्या राजनीतिक विमर्श को बदल सकता है? इस एलान का अन्य राजनीतिक दलों पर क्या प्रभाव होगा? महिला मतदाताओं पर इसका क्या प्रभाव पड़ेगा? आखिरकार यूपी चुनाव परिणाम पर इसका कितना असर होगा?
भारतीय समाज परंपरागत रूप से पितृसत्तात्मक रहा है। परिवार के फैसलों में आज भी सबसे वरिष्ठ पुरुष का निर्णय अंतिम माना जाता है। स्त्री की पराधीनता की शुरुआत प्राचीन भारत में ही हो गई थी।
वैदिक साहित्य (बृहदारण्यक उपनिषद) का एक संवाद बहुत मशहूर है। जब याज्ञवल्क्य गार्गी के तर्कों को खारिज नहीं कर सके तो उन्होंने हिंसक प्रतिवाद किया।उन्होंने कहा, "अब आगे ज्यादा बोलोगी तो तुम्हारा सिर धड़ से अलग कर दिया जाएगा!" स्त्री को खामोश करने की यह शुरुआत आगे चलकर परंपरा बन गई। नैतिकताओं और पारिवारिक मूल्यों के नाम पर स्त्री को हाशिए पर धकेल दिया गया।
ब्राह्मणवादी शुंग शासन और मनुस्मृति के दौर में स्त्री को बेजुबान बना दिया गया। शूद्रों की तरह उसे भी शिक्षा और ज्ञान से वंचित कर दिया गया। उसकी निजी और मानवीय स्वतंत्रताओं को छीन लिया गया। दहलीज के भीतर कैद करके उसके मन और शरीर पर पुरुष ने अधिकार कर लिया। वह अपनी मर्जी से ना तो प्रेम कर सकती थी और ना ही अपना घर बसा सकती थी।
सामंती राजसत्ता के दौर में स्त्री सजावट की वस्तु हो गई। उसे हासिल करने के लिए युद्ध होने लगे। वह महज भोग और मनोरंजन का साधन हो गई। सामंती व्यवस्था में स्त्री राजघरानों और युद्धों की साजिशों का हिस्सा बना दी गई। कुछेक अपवादों को छोड़कर मध्यकालीन भारत में भी स्त्री की दशा कमोबेश यथावत बनी रही।
औपनिवेशिक भारत में अंग्रेजी पढ़े-लिखे पुरुष मध्यवर्ग और सामाजिक धार्मिक सुधारकों ने स्त्री उद्धार के लिए प्रयत्न किए। बाल विवाह, सती प्रथा, पर्दा प्रथा से लेकर विधवा विवाह जैसी समस्याओं को ख़त्म करने के लिए कानून बनाए गए।
बंगाली नवजागरण के राजा राममोहन राय, ईश्वरचंद्र विद्यासागर, आर्य समाज के दयानंद सरस्वती आदि सुधारकों ने स्त्रियों की मुक्ति और कल्याण का काम किया। इसके बरक्स सत्यशोधक समाज के प्रवर्तक ज्योतिबा फुले, सावित्रीबाई फुले और पंडिता रमाबाई सरीखे आंदोलनकारियों ने स्त्री शिक्षा और उसके मानवीय अधिकारों के प्रश्न को मुखर किया।
इसके बाद स्वाधीनता आंदोलन में कांग्रेस के बैनर तले तमाम सामाजिक समुदायों के साथ स्त्रियों की भी भागीदारी हुई। एनी बेसेंट से लेकर सरोजिनी नायडू, शिवरानी देवी, कमला नेहरू जैसी तमाम महिलाओं ने कांग्रेस के विभिन्न आंदोलनों में हिस्सा लिया।
बारदोली सत्याग्रह, सविनय अवज्ञा आंदोलन, भारत छोड़ो आंदोलन और आजाद हिंद फौज में भी महिलाओं की भूमिका उल्लेखनीय है।
आजादी के बाद संविधान सभा में राजकुमारी अमृत कौर, हंसा मेहता, बेगम एजाज रसूल आदि नेत्रियों ने अनेक मुद्दों पर सार्थक हस्तक्षेप किया। राजकुमारी अमृत कौर नेहरू कैबिनेट में स्वास्थ्य मंत्री बनीं। कांग्रेस की सुचेता कृपलानी यूपी की पहली महिला मुख्यमंत्री बनीं। लालबहादुर शास्त्री कैबिनेट में सूचना- प्रसारण मंत्री रहीं इंदिरा गांधी ने आगे चलकर देश की बागडोर संभाली।
इंदिरा गांधी भारत की सबसे मजबूत प्रधानमंत्री मानी जाती हैं। 1971 में उन्होंने पाकिस्तान के दो टुकड़े किए। बांग्लादेश के निर्माण के पीछे इंदिरा गांधी का साहसिक निर्णय और भारतीय फौजों का शक्तिशाली प्रदर्शन था। इसके बावजूद संसद और विधानसभाओं में महिलाओं की पर्याप्त भागीदारी अभी भी सुनिश्चित नहीं हो सकी है।
80 के दशक में उभरी सामाजिक न्याय की राजनीति के समय भी संसद में महिलाओं के प्रतिनिधित्व में बढ़ोतरी नहीं हुई। इन राजनीतिक परिस्थितियों में संसद का स्वरूप पुरुष प्रधान और स्वभाव मर्दवादी होता गया।
हिंदुत्व की कट्टर ब्राह्मणवादी राजनीति में महिलाओं की भागीदारी और उसके सशक्तिकरण की गुंजाइश और भी कम हो गई। लेकिन इसी दरमियान कांग्रेस, बीजेपी सहित तमाम राजनीतिक दलों की महिला नेत्रियाँ महिला आरक्षण पर एकजुट हुईं। सोनिया गाँधी, जयललिता, ममता बनर्जी, सुषमा स्वराज, वसुंधरा राजे सरीखी राजनीतिक नेत्रियों ने संसद में स्त्रियों के आरक्षण का सवाल बुलंद किया।
देवेगौड़ा सरकार में पहली बार 1996 में महिला आरक्षण विधेयक पेश किया गया, लेकिन यह पारित नहीं हो सका। इसके बाद 2010 में यूपीए सरकार के दौरान पुनः संसद और विधानसभाओं में महिलाओं को 33 फ़ीसदी आरक्षण देने का विधेयक लाया गया। राज्यसभा में पारित होने के बाद विधेयक लोकसभा में गिर गया।
दरअसल, एसपी, बीएसपी और आरजेडी सरीखे सामाजिक न्याय की राजनीति करने वाले दलों ने कोटा के भीतर कोटा की मांग को लेकर इसका विरोध किया। पिछड़ी जाति से आने वाली बीजेपी की उमा भारती ने भी कोटा के भीतर कोटा की माँग की। उनकी माँग थी कि दलित, आदिवासी और पिछड़े समुदायों से आने वाली महिलाओं का भी प्रतिनिधित्व सुनिश्चित किया जाना चाहिए।
2014 में तीन दशक बाद पूर्ण बहुमत के साथ बीजेपी सरकार सत्ता में आई। नरेंद्र मोदी सरकार के पास महिला आरक्षण पारित कराने का मौका है। लोकसभा में उसका बहुमत है। राज्यसभा में वो बहुमत का जुगाड़ कर लेती है।
नरेंद्र मोदी वंचित तबकों की राजनीति करने का दावा करते हैं। लेकिन बीजेपी के एजेंडे में महिला आरक्षण का मुद्दा नहीं है। जाहिर तौर पर नरेंद्र मोदी ने उज्ज्वला योजना से लेकर इज्जत घर और तीन तलाक जैसे महिला केंद्रित मुद्दों को उभारकर वोट हासिल किए। लेकिन स्त्री सशक्तिकरण के मसले पर उनका कोई स्पष्ट नजरिया नहीं है।
मोदी कैबिनेट में काफ़ी महिला मंत्री हैं। लेकिन सच्चाई यह है कि इन मंत्रियों को फैसले लेने का कोई अधिकार नहीं है। मोदी कैबिनेट की सबसे ताकतवर मानी जाने वाली निर्मला सीतारमण वर्तमान में वित्त मंत्री हैं। पिछली कैबिनेट में वे रक्षा मंत्री थीं।
पिछली लोकसभा में 11 फ़ीसदी महिलाएं चुनकर संसद पहुंची थीं। वर्तमान लोकसभा में महिला सांसदों की तादाद बढ़कर 14 फ़ीसदी हो गई है। लेकिन महिला उत्पीड़न, कुपोषण से लेकर सुरक्षा और निजी जिंदगी के फैसलों पर संसद में खामोशी पसरी है। संसद में महिलाओं का ऐसा प्रतिनिधित्व बेमानी है!
इसलिए जरूरी है कि महिलाओं का पर्याप्त प्रतिनिधित्व संसद और विधानसभाओं में होना चाहिए। लेकिन यह भी जरूरी है कि महिला प्रतिनिधियों में अपेक्षित दलित, पिछड़े और आदिवासी समुदाय की महिलाओं की भागीदारी भी सुनिश्चित हो।
इस लिहाज से प्रियंका गांधी का यूपी चुनाव में 40 फ़ीसदी टिकट महिलाओं को देने का एलान न केवल राजनीतिक विमर्श बल्कि आने वाले वक्त में संसद और विधानसभाओं की सूरत को भी बदल सकता है।
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