यूपी में पंचायत चुनाव बीत चुके हैं। चुनाव का हलाहल गंगा में तैरती लाशों के रूप में प्रकट हो रहा है। सरकारी आँकड़ों के अनुसार चुनाव ड्यूटी पर तैनात रहे एक हज़ार से अधिक सरकारी कर्मचारी कोरोना से कालकवलित हो चुके हैं। सरकार की तरफ़ से न तो उनके परिवार को कोई मुआवजा देने की घोषणा हुई है और न ही उनके आश्रितों को नौकरी देने की पेशकश अभी तक की गई है। इलाहाबाद हाईकोर्ट ने ऐसे परिवारों को एक करोड़ रुपए मुआवजा देने का सरकार को निर्देश दिया है।
चुनाव के बीच में ही गाँवों से कोरोना संक्रमण की ख़बरें आने लगी थीं। अब इसके भयावह परिणाम सामने आने लगे हैं। रोज ही हज़ारों की तादाद में लोगों के मरने की ख़बरें आ रही हैं। बुखार के कारण इन मौतों को होना बताया जा रहा है। जबकि टेस्टिंग नहीं होने के कारण कोविड की पुष्टि नहीं हो पा रही है। सरकार अपनी ज़िम्मेदारी से भागने की कोशिश कर रही है।
पंचायत चुनाव कराने की हठधर्मिता ने यूपी के गाँवों को कोरोना महामारी की तरफ़ जानबूझकर धकेल दिया है। ऐसे में सवाल उठता है कि देश के सबसे बड़े सूबे में कोरोना महामारी से जूझने की बिना किसी तैयारी के चुनाव कराना क्यों इतना ज़रूरी काम था? बंगाल, असम और तमिलनाडु सहित पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव के मद्देनज़र मद्रास हाईकोर्ट की तल्ख टिप्पणी के बावजूद यूपी सरकार को कोरोना संक्रमण को लेकर कोई भय क्यों नहीं था? क्या चुनाव आयोग के अधिकारियों पर हत्या का केस दर्ज करने की टिप्पणी के बावजूद यूपी चुनाव आयोग चुनाव कराने के लिए मजबूर था?
इलाहाबाद हाईकोर्ट में मामला जाने के बावजूद चुनाव आयोग ने चुनाव कराने की अपनी प्रतिबद्धता दोहराई। अब जबकि इसके भयावह नतीजे सामने आ रहे हैं, सवाल यह है कि गाँवों में पसरते कोरोना की ज़िम्मेदारी चुनाव आयोग पर होगी या सरकार पर? क्या इनमें से कोई ज़िम्मेदारी उठाने के लिए तैयार है? चुनाव प्रचार, मतदान और मतगणना के दौरान कोरोना प्रोटोकॉल का कोई पालन नहीं किया गया। क्या सरकार ने अपने कर्मचारियों और नागरिकों को महज सत्ता की मशीनरी के कलपुर्जे में तब्दील कर दिया है?
पंचायत चुनाव के बाद यूपी में रोजाना लोगों की जानें जा रही हैं। इसका कारण मौसमी बुखार को बताया जा रहा है। जबकि सच्चाई यह है कि पूर्वांचल के अतिरिक्त यूपी में जानलेवा मौसमी बुखार आमतौर पर नहीं होता था। आख़िर मौसमी बुखार से भी मौतें क्यों हो रही हैं?
बढ़ते संक्रमण और स्वास्थ्य सेवाओं के खस्ताहाल होने के कारण गाँवों की व्यवस्था झोलाछाप डॉक्टरों के हवाले है। ये डॉक्टर्स मरीजों को ग्लूकोज चढ़ाकर और बुखार की दवा देकर चरमराती व्यवस्था को संभालने की नाकाम कोशिश कर रहे हैं। गाँवों में सरकारी डॉक्टर्स, दवाएँ और टेस्टिंग उपलब्ध नहीं हैं, ऑक्सीजन, वेंटिलेटर ऑक्सीमीटर और कोरोना की दवाएँ तो अलग बात है। गाँव के लोगों को खुला वातावरण और शारीरिक प्रतिरोधक क्षमता ज़िंदा रखे हुए है। लेकिन जहाँ मरीज कमजोर पड़ता है उसका मरना लगभग अवश्यंभावी हो जाता है। उसे बचाने के कोई विकल्प मौजूद नहीं हैं। यही कारण है कि उन्नाव, गाजीपुर, बनारस जैसे गंगा के घाटों पर मुर्दों को जलाने, दफनाने और अधजली लाशों के बहाने की भयावह तस्वीरें सामने आ रही हैं। ऐसे में भी योगी आदित्यनाथ का बहुत संवेदनहीन रवैया सामने आ रहा है। अब उन्होंने लाशों को बहाने वालों की धरपकड़ के लिए जल पुलिस की गश्ती बढ़ाने के आदेश दिए हैं। सब जानते हैं कि पुलिस किस तरह क़ानून का दुरुपयोग करके लोगों को सताती है।
गोया यूपी में मरना और लाश का अंतिम संस्कार करना भी अपराध हो गया है। एक संन्यासी के मुख्यमंत्री होते हुए इतने कठोर और संवेदनहीन रवैये के बारे में कोई सोच भी नहीं सकता। उन्नाव के पुष्कर घाट की सच्चाई हैरान करने वाली ही नहीं, बल्कि मानवता पर एक गहरा धब्बा है। जिस देश में मृत्यु को एक संस्कार और एक नए जीवन का आगाज माना जाता हो, उस देश में शव को ले जाने के लिए चार कंधे नसीब नहीं हो रहे हैं और घाटों पर अधजली लाशों को नोंचते हुए कुत्ते स्वर्ग और नरक के मिथक की धज्जियाँ उड़ा रहे हैं। ऐसे में एक संन्यासी का कर्तव्य क्या है?
अब सवाल यह है कि गाँवों में मरने वाले कौन हैं? आख़िर इनकी ज़िंदगी की कोई क़ीमत सरकार की नज़र में क्यों नहीं है? रैलियों में चंद पैसों के बदले भर भरकर जयकारा लगवाने के लिए लाए जाने इन लोगों की हैसियत क्या सिर्फ़ वोट देने तक सीमित हो गई है? ग़रीबी और बदहाली से निकलकर दुनिया की बड़ी अर्थव्यवस्था में शुमार होने वाले भारत की यह तस्वीर आज़ादी से पूर्व 1930 के दशक में एन्फ्लूएंजा महामारी की याद दिलाती है। इसमें हजारों-लाखों लोग कालकवलित हो गए थे और लाशों को चील-कौवे-कुत्ते नौंच-नौंचकर खा रहे थे। मौत का वही तांडव फिर से गंगा-यमुना के घाटों पर दिखाई दे रहा है।
आख़िर देश को रसातल में ले जाने की ज़िम्मेदारी किसकी है? एक आत्ममुग्ध प्रधानमंत्री और यूपी के हठयोगी मुख्यमंत्री की पेशानी पर चिंता की लकीरें क्यों नहीं हैं?
सार्वजनिक लोककल्याणकारी सरकारी तंत्र को समाप्त करके लोगों को निजी संस्थाओं की ओर धकेलना क्या महज एक आर्थिक योजना है? अथवा लोगों को अपाहिज और बेबस लाचार बनाकर मुफ्त पाँच किलो राशन की बैसाखी के सहारे छोड़ देना है। और खुद के लिए हजारों करोड़ का हवाई जहाज और पीएम आवास बनवाना है। जनता का नागरिकबोध ख़त्म करके उसे भेड़ में तब्दील करना मोदी और योगी सरकार की नीति हो गई है!
मरने वालों में गाँव के ग़रीब हैं। जातिगत आधार पर विश्लेषण इस बात की पुष्टि करता है कि इनमें ज़्यादातर दलित और पिछड़े हैं। बीजेपी को सत्ता में पहुँचाने वाला यह तबक़ा सरकार और पार्टी की नज़र में महज वोटबैंक है। यही कारण है कि इस ग़रीब दलित पिछड़े समुदाय की सारी सहूलियतों को धीरे-धीरे ख़त्म कर दिया गया और अब कोरोना महामारी ने उनकी ज़िंदगी की साँसों को भी छीन लिया है।
कोरोना का फिलहाल कोई इलाज नहीं है। लेकिन इससे बचाव के लिए टीकाकरण ज़रूरी है। टीकाकरण को उत्सव क़रार देने वाले प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को इस बात की क़तई चिंता नहीं है कि उनके पास पर्याप्त टीके उपलब्ध नहीं हैं। पच्चीस करोड़ की आबादी वाले यूपी में बीजेपी के ही तमाम मंत्रियों और विधायकों के तीखे बयानों के बावजूद योगी आदित्यनाथ अपनी प्रशासनिक अधिकारियों की टीम इलैवन से कोरोना संकट से निपटने का दिखावा कर रहे हैं। यूपी में टीकाकरण की दर सबसे कम बताई जा रही है। गाँव के ग़रीब दलित पिछड़ों तक टीकाकरण की पहुँच न के बराबर है। ऐसे में पूछा जा सकता है कि क्या यही रामराज्य है?
जिस प्रदेश में कांवड़ियों पर फूल तो बरसाए जा सकते हैं लेकिन मुफ्त कोरोना टीका नहीं दिया जा सकता। तब इसके मायने क्या हैं? क्या रामराज्य अंधविश्वास पर टिकी वर्णवादियों की विशेषाधिकार संपन्न व्यवस्था नहीं है? अगर ऐसा है तो इसका मिट जाना ही लोकतंत्र और मानवता के लिए अपरिहार्य है।
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