आजकल भारत की लोकतांत्रिक शासन व्यवस्था के लिए बार-बार रामराज्य शब्द का प्रयोग क्यों होता है? बीजेपी और संघ के प्रवक्ताओं तथा हिंदूवादी संगठनों द्वारा इस शब्द का इतना व्यापक प्रचार हुआ है कि वामपंथी, समाजवादी बुद्धिजीवियों के विमर्श से लेकर आम जनता की जबान में पूरी शासन व्यवस्था के लिए रामराज्य शब्द का चलन हो गया है।
वस्तुतः रामराज्य को एक आदर्शलोक के प्रतीक के रूप में स्थापित किया जा रहा है। सवाल यह है कि आख़िर एक लोकतांत्रिक संवैधानिक व्यवस्था के लिए रामराज्य जैसे मिथकीय मुहावरे को चस्पाँ करने का औचित्य क्या है? दरअसल, हिंदुत्ववादी अपनी वैचारिकी को पोसने के लिए इसका इस्तेमाल कर रहे हैं।
ग़ौरतलब है कि जनसंघ से शुरू हुई दक्षिणपंथी हिन्दूवादी राजनीति बीजेपी-संघ के राम मंदिर आंदोलन के बाद भारतीय राजनीतिक सत्ता तक पहुँची है। यह दीगर बात है कि राम के नाम पर शुरू हुई बीजेपी की राजनीति ने विशुद्ध सांप्रदायिक विभाजन को आगे बढ़ाकर ही सफलता हासिल की। जाहिर तौर पर इसका खामियाजा आज की पीढ़ी भुगत रही है। दरअसल, रामराज्य हिन्दूराष्ट्र की ही छायाप्रति है। हिन्दुत्व के उग्र प्रचार के बावजूद अभी भी भारतीय समाज एक धार्मिक (हिन्दू) राष्ट्र को स्वीकारने के लिए तैयार नहीं है। इसलिए रामराज्य के रूप में उस विचार और व्यवस्था को प्रचारित करने की कोशिश हो रही है।
अब सवाल उठता है कि एक आदर्श लोक कल्याणकारी व्यवस्था के लिए रामराज्य मुहावरे का प्रयोग करने में हर्ज क्या है। पहली बात तो यह है कि वर्तमान स्थितियों में एक आदर्श लोक कल्याणकारी व्यवस्था जैसी चीज है कहाँ? दूसरा, आधुनिक राज्य व्यवस्था के लिए मध्यकालीन विचार का प्रयोग क्यों होना चाहिए?
ऐसा लगता है कि बहुत ही महीन तरीक़े से लोगों के दिमाग़ में यह बिठाने की कोशिश की जा रही है कि रामराज्य एक ईश्वरीय व्यवस्था है। प्रधानमंत्री मोदी और योगी एक तरह से ईश्वर के प्रतिनिधि हैं। इसलिए इनसे ग़लती नहीं हो सकती है।
यह भी कहा जा सकता है कि यह आपदा ईश्वरीय विधान है। बकौल संघ प्रमुख मोहन भागवत, कोरोना से मरने वाले मुक्त हो गए हैं!
दरअसल, रामराज्य अब अपनी नाकामियों को छुपाने का एक बेहूदा मुहावरा बनता जा रहा है। शायद हिन्दुत्ववादी भूल रहे हैं कि अगले सालों में उन्हें चुनाव के मैदान में भी जाना है, जहाँ जनता ही जनार्दन है। जनता को धार्मिक अफीम आख़िर कब तक चटाई जा सकती है? जिस दिन जनता का यह नशा उतर जाएगा, उस दिन सब तदवीरें उलटी पड़ जाएँगी!
पिछले कुछ सालों से कारपोरेट मीडिया केन्द्र और बीजेपी शासित राज्य की सरकारों के लिए रामराज्य शब्द का प्रयोग कर रहा है। यह तो सर्वविदित है कि सरकार की गोद में बैठा हुआ यह मीडिया अपने हितों के लिए सरकारी नीतियों की तरफदारी करने और उसके बचाव में ही मुब्तिला नहीं है बल्कि बीजेपी-संघ के एजेंडे और हिन्दुत्व के प्रतीकों को आगे बढ़ाने में भी सक्रिय है। इतना ही नहीं, ऊँची अदालतें भी इस का प्रयोग करने में नहीं हिचकती हैं। अदालतें कभी-कभार जब सरकारी अव्यवस्था पर सवाल खड़े करती हैं तो पूछती हैं कि क्या यही रामराज्य है। गोया, अदालतें भी रामराज्य देखना चाहती हैं! यह भी सच है कि दलित और वामपंथी बुद्धिजीवी भी इस शब्द का प्रयोग करते हैं लेकिन उनका नज़रिया आलोचनात्मक होता है। उनका मत इस विचार की वैधता, पुरातनपंथी सोच तथा व्यवस्था के यूटोपिया को कटघरे में खड़ा करता है।
सवाल यह है कि रामराज्य कहने में हर्ज क्या है? इसके पक्ष में एक दलील दी जा सकती है कि रामचरितमानस के रचयिता तुलसीदास के यूटोपिया रामराज्य में 'सबके सुखी, सबके निरोगी' होने की कामना से उपजे इस मुहावरे या लोकभाव में बुरा क्या है? आख़िर गांधी जी ने भी आदर्श राज्य के लिए रामराज्य शब्द का प्रयोग किया था।
पहली बात तो यह है कि रामराज्य अकबरकालीन सुशासन से उपजा मुहावरा है। अकबर ने प्रशासन को धर्मनिरपेक्ष यानी सर्वधर्म समभाव के आधार पर चलाया। तमाम धर्मों की पूजा-पद्धतियों के साथ अकबर ने ख़ुद बहुत सी हिंदू परंपराओं को अपनाया। देवनागरी लिपि में अंकित सीताराम चित्रित अकबरकालीन सिक्के उसकी धार्मिक उदारता के परिचायक हैं। इसी काल में तुलसी ने रामकथा को नया रूप दिया था और लोक कल्याणकारी राजतंत्र के लिए रामराज्य का यूटोपिया पेश किया था। यह सामंती और ईश्वरीय व्यवस्था का प्रतीक है। लेकिन सवाल तुलसी या अकबर का नहीं है। सवाल आधुनिक संवैधानिक लोकतांत्रिक भारत की व्यवस्था का है।
हालाँकि इस कारण की तलाश ज़रूर की जा सकती है कि एक आदर्श राज्य के लिए रामराज्य शब्द ही क्यों लोकप्रिय हुआ। संत रविदास का बेगमपुरा या एक कबीर का अमरदेसवा आदर्श कल्पनालोक क्यों नहीं बन सका?
दरअसल, आधुनिक भारत में रामराज्य को एक आदर्श लोक कल्याणकारी राज्य के रूप में गाँधी ने बुना और प्रचारित किया। संभव है कि आज़ादी के लिए अंग्रेजों के विरुद्ध लड़ाई में इस मुहावरे या आदर्श ने लोगों को नैतिक बल दिया हो। लेकिन ग़ौरतलब है कि संविधान सभा में अन्य तमाम गांधीवादी आदर्शों की तरह रामराज्य के मुहावरे को छोड़ दिया गया। इसका कारण गांधी के प्रतिद्वंद्वी और आलोचक रहे सिर्फ़ डॉ. आंबेडकर नहीं थे बल्कि गांधी के सबसे मज़बूत सारथी और उनके घोषित उत्तराधिकारी जवाहरलाल नेहरू भी थे। यही कारण है कि गांधी के 'भक्तों' ने नेहरू पर गांधीवाद से विमुख होने का दोषारोपण किया है।
बहरहाल, नेहरू और आंबेडकर सहित अन्य नेताओं ने रामराज्य जैसे शब्द से परहेज किया। अंततः संविधान को समाजवादी स्वीकार किया गया। हालाँकि संविधान की प्रस्तावना में इसका उल्लेख नहीं किया गया। समाजवादी व्यवस्था और धर्मनिरपेक्षता को दर्ज करने के सवाल पर संविधान सभा में आंबेडकर ने कहा था कि इसे आने वाली पीढ़ियों के विवेक पर छोड़ देना चाहिए। इसके पीछे कई कारण हो सकते हैं। आंबेडकर नई पीढ़ी को राह दिखाते हुए उसे इस व्यवस्था का सूत्रधार बनने का मौक़ा देना चाहते थे। यह हुआ भी। 1976 के 42वें संविधान संशोधन द्वारा संविधान की प्रस्तावना में 'समाजवाद, पंथनिरपेक्षता और अखंडता' तीन शब्दों को जोड़ा गया। ग़ौरतलब है कि लोकतंत्र के स्याह पक्ष आपातकाल को लगाने वाली इंदिरा गांधी ने इन शब्दों के मायने को भी मज़बूत किया। एक मज़बूत भारत की छवि निरूपित करने वाली इंदिरा गांधी ने प्रिवी पर्स को ख़त्म करके, बैंकों आदि का राष्ट्रीयकरण करके समाजवाद की व्यवस्था को अधिक मज़बूत और कारगर बनाया।
संविधान के मूल स्वरूप में समाजवाद और धर्मनिरपेक्षता का उल्लेख नहीं होने का मतलब यह नहीं है कि आंबेडकर के मन में इनको लेकर कोई संशय था। इसी तरह नेहरू आधुनिक भारत को अधिक समावेशी, समाजवादी और धर्मनिरपेक्ष परिप्रेक्ष्य में देखते थे। गांधी के शिष्य होने के बावजूद नेहरू ने गांधी की कई मान्यताओं को खामोशी से अस्वीकार किया। सच्चाई यह है कि गाँधी के भावनायक राम की अपेक्षा नेहरू ऐतिहासिक महात्मा बुद्ध के ज़्यादा समीप थे। नेहरू को समझने वाले जानते हैं कि उन्होंने 'भारत : एक खोज' से लेकर अपनी आत्मकथा जैसी महत्वपूर्ण किताबों में महात्मा बुद्ध, उनके धार्मिक मूल्यों, आध्यात्मिक कृत्यों और सामाजिक विचारों की बहुत प्रशंसा की है। नेहरू बुद्ध से बहुत प्रेरित और प्रभावित नज़र आते हैं। जबकि उन्होंने हिन्दू धर्म के पाखंडवाद की कई जगह तीखी आलोचना की है। इसलिए नेहरू की दिलचस्पी किसी यूटोपिया में न होकर एक आधुनिक लोकतांत्रिक व्यवस्था में थी। मंदिर मसजिद के बजाय नेहरू के लिए एम्स, बाँध, बिजली परियोजनाएँ, आईआईटी जैसे सार्वजनिक संस्थान ज़रूरी थे।
असल में, रामराज्य जैसे मुहावरे से सरकार को समाजवाद के अर्थ और उसके उद्देश्य को पदस्थापित करके अपनी ज़िम्मेदारी से भागने में मदद मिलती है। कोरोना जैसी महामारी के समय दवाई, इलाज, डॉक्टर, वेंटिलेटर, ऑक्सीजन, आईसीयू, से लेकर मुफ्त वैक्सीन का इंतज़ाम करना सरकार का दायित्व है। कोरोना से हो रही मौतों की ज़िम्मेदारी सरकार की होनी चाहिए। सच्चाई यह कि लोग कोरोना से कम बल्कि स्वास्थ्य सेवाओं की बदहाली और अव्यवस्था से ज़्यादा मर रहे हैं।
पत्रकारिता से लेकर न्यायपालिका के बयानों और लोकतांत्रिक बहस, चिंतन में भी संवैधानिक भाषा का प्रयोग होना चाहिए। क़ानून, संविधान और आधुनिक लोकतांत्रिक मूल्यों से चुनी हुई सरकार द्वारा संचालित भारतीय समाज को शांत और स्वस्थ रखने की ज़िम्मेदारी सरकार की बनती है। इसलिए सरकार का दायित्व समाजवादी व्यवस्था और मूल्यों को प्रोत्साहित करना है। साथ ही अपनी नाकामी को स्वीकार करना और अपने पदों से त्यागपत्र देकर बेहतर उदाहरण पेश करना भी है। रामराज्य का प्रतिनिधि बनकर मरते हुए लोगों की सांसों को दबोचकर अपने आभामंडल को चमकाते रहना क़तई अन्याय है। इसकी इज़ाज़त संविधान और लोकतंत्र नहीं देता। इसलिए छद्म और भ्रम पोसने वाले रामराज्य जैसे शब्दों के प्रयोग से बचना चाहिए।
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