अपने लेख 'China and India are super-populations-They have to be super responsible' जो thewire.in में प्रकाशित है, में विक्टर गाओ, जो सूचाओ विश्वविद्यालय के प्रोफेसर और चीन और वैश्वीकरण केंद्र के उपाध्यक्ष हैं, ने कहा है कि चीन और भारत को मतभेदों को शांति से हल करना चाहिए।
वह लिखते हैं- "दोनों देशों को दुनिया के प्रति अपनी जिम्मेदारियों के बारे में अधिक जागरूक होने की आवश्यकता है और अपने बीच हो रहे टकराव को शांति पूर्वक सुलझा कर विकास को बढ़ावा देने के लिए मजबूती से एक साथ खड़े रहने की ज़रूरत है।"
प्रो. गाओ आगे लिखते हैं कि चीन और भारत दोनों प्राचीन सभ्यताएं हैं और सदियों तक दुनिया में सबसे अमीर देश थे लेकिन बाद में उपनिवेशवाद के कारण गरीबी से ग्रस्त हो गये। उन्होंने कहा कि चीन और भारत दुनिया के केवल 2 ही देश ऐसे हैं जिनकी आबादी 1 बिलियन यानी सौ करोड़ से अधिक है और इसी सुपर पॉपुलेशन के साथ सुपर जिम्मेदारियां भी आती हैं।
प्रो. गाओ को पूरा सम्मान देते हुए, उनके द्वारा लिखे इस लेख में वास्तविकताओं की समझ की कमी स्पष्ट दिखाई देती है।
जैसा कि मैं अपने लेखों में कहता रहा हूँ कि राजनीति को समझने के लिए ज़रूरी है इसके पीछे की आर्थिक ताकतों को पहचानना। चीन भले ही एक समय में समाजवादी देश रहा हो लेकिन आज ऐसा नहीं है। यह साम्राज्यवादी है और इसके विशाल औद्योगिक आधार और 3.2 ट्रिलियन डॉलर के विदेशी मुद्रा भंडार के लिए एक साम्राज्यवादी शक्ति की तरह वह बाज़ार, कच्चे माल और लाभदायक निवेश के लिए नए रास्तों की तलाश में है।
साम्राज्यवाद के दो प्रकार हैं, विस्तारवादी साम्राज्यवाद और रक्षात्मक साम्राज्यवाद। विस्तारवादी साम्राज्यवाद आक्रामक और रक्षात्मक साम्राज्यवाद की तुलना में अधिक खतरनाक है। उदाहरण के लिए, 1930 और 1940 के दशक की शुरुआत में हिटलर का साम्राज्यवाद 'विस्तारवादी' था जबकि ब्रिटिश और फ्रांसीसी साम्राज्यवाद 'रक्षात्मक'।
रक्षात्मक साम्राज्यवादी देश केवल अपने उपनिवेशों पर कब्ज़ा बनाये रखना चाहते थे जबकि विस्तारवादी साम्राज्यवादी देश अन्य देशों को जीतना और गुलाम बनाना चाहते थे। इसलिए हिटलर का साम्राज्यवाद विश्व शांति के लिए वास्तविक ख़तरा था।
विस्तार में जुटा है चीन
आज चीनी साम्राज्यवाद विस्तार कर रहा है और इसलिए विश्व शांति के लिए सबसे बड़ा खतरा है। इसने विकसित देशों के अलावा एशिया, अफ्रीका और लैटिन अमेरिका की अर्थव्यवस्थाओं में भी प्रवेश कर लिया है। पर्वतीय क्षेत्र जैसे तिब्बत और लद्दाख साइबेरिया की तरह बंजर दिखाई दे सकते हैं लेकिन वे साइबेरिया की ही तरह बहुमूल्य खनिजों और अन्य प्राकृतिक संपदा से भरे हुए हैं।
चीन बड़े पैमाने पर बढ़ रहे अपने उद्योग के लिए कच्चे माल की ज़रूरतों को पूरा करने के लालच से वहां अपनी नज़रें गड़ाए हुए है। लद्दाख में एलएसी के पार गलवान घाटी, पैंगोंग त्सो, डेमचोक, फाइव फिंगर्स आदि में हालिया चीनी घुसपैठ का असली कारण यही है।
भारत के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजीत डोभाल और चीनी विदेश मंत्री वांग यी के बीच हाल ही में हुई वार्ता में दोनों पक्ष डिसइन्गजमेंट (disengagement) और डी-एस्केलेशन (de-escalation) पर सहमत हुए लेकिन यह केवल कुछ ही समय के लिए है। चीन भविष्य में अपने उद्योगों के लिए अधिक कच्चे माल की अपनी सख्त ज़रूरत को पूरा करने हेतु लद्दाख के क्षेत्रों में और आगे तक फिर से घुसपैठ करने के लिए बाध्य है। वास्तव में यही कारण है कि उसने हमेशा ही नक्शे पर स्पष्ट एलएसी को सीमांकित करने से इनकार किया है।
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हमें यह समझना चाहिए कि यह राजनीति केंद्रित अर्थशास्त्र है और अर्थशास्त्र के कुछ परिभाषित सिद्धांत हैं जो किसी भी एक व्यक्ति की इच्छा से अलग, स्वतंत्र कार्य करते हैं। यह पूंजी की प्रकृति है कि वह हमेशा लाभदायक निवेश के लिए रास्ते की तलाश करती है। चीनियों ने एक बड़े पैमाने पर औद्योगिक आधार बनाया है और लगभग 3.2 ट्रिलियन डॉलर विदेशी मुद्रा भंडार का संग्रह किया है, जो बहुत ज़्यादा रकम है और तेज़ी से कच्चे माल, बाज़ार और निवेश के नए रास्तों की मांग कर रही है।
चीन एक विशाल आक्रामक साम्राज्यवादी देश है और राष्ट्रपति शी जिनपिंग या विदेश मंत्री वांग यी जैसे अपने नेताओं की इच्छा से अलग एवं स्वतंत्र रूप से विस्तार करता रहेगा।
इसलिए प्रो. गाओ द्वारा की गई शांति की सभी बातें खाली बयानबाज़ी और शब्दाडंबर हैं। हिटलर ने भी अक्सर आक्रमण करने की राह पर चलते हुए शांति की बातें की थीं।
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