4 फरवरी 2021 को ऐतिहासिक चौरी चौरा घटना के शताब्दी वर्ष समारोह का उद्घाटन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने किया। प्रधानमंत्री ने चौरी चौरा के शहीदों को याद करते हुए, इतिहास में उनकी अवहेलना को दुर्भाग्यपूर्ण बताया। ज़ाहिर है, उनका इशारा राष्ट्रवादी इतिहास लेखन और लंबे समय तक सत्ता में रही कांग्रेस की ओर है।
यह आयोजन यूपी सरकार द्वारा किया गया। योगी आदित्यनाथ ने चौरी चौरा शताब्दी समारोह को साल भर आयोजित करने का ऐलान किया है। इसके माध्यम से बीजेपी सरकार राष्ट्रीय आंदोलन के इतिहास को हथियाने और मुख्य विपक्षी पार्टी कांग्रेस पर हमला करने की कोशिश करेगी।
दलितों के लिए चौरी चौरा का महत्व
दरअसल, असहयोग आंदोलन का हिस्सा होते हुए भी चौरी चौरा विद्रोह का अलग महत्व है। चौरी चौरा विद्रोह में अधिकांश दलित, पिछड़े और मुसलिम समुदाय के ग़रीब, कमज़ोर किसान शामिल थे। सबाल्टर्न इतिहासकार शाहिद अमीन ने अपनी किताब 'इवेंट, मेटाफ़र, मेमोरी- चौरी चौरा 1922- 1992' में स्थानीय जमीदारों और ब्रिटिश सत्ता के ख़िलाफ़ जनसाधारण के विद्रोह के रूप में चौरी चौरा के ऐतिहासिक महत्व को रेखांकित किया है।
इसके बाद सुभाष चंद्र कुशवाहा ने अपनी शोधपरक किताब 'चौरी चौरा का विद्रोह और स्वाधीनता आंदोलन' में बहुजन नज़रिए से इस विद्रोह की पड़ताल की है।
225 में से 215 दलित
सुभाष चंद्र कुशवाहा चौरी चौरा को ज़मीदारों- सामंतों के ख़िलाफ़ दलित-पिछड़ों के विद्रोह के रूप में रेखांकित करते हैं। उन्होंने स्पष्ट किया है कि चौरी चौरा के विद्रोह में ब्रिटिश हुक़ूमत द्वारा जिन 225 लोगों को सजा दी गई थी, उनमें 215 दलित, पिछड़े और मुसलिम थे। अगड़ी जाति के केवल 10 लोग थे। इनमें 19 लोगों को स़जाए-मौत, 110 लोगों को आजीवन कारावास, 19 लोगों को 8 साल का सश्रम कारावास और 20 लोगों को 3 साल के सश्रम कारावास की सजा सुनाई गई थी।
सुभाष चंद्र कुशवाहा का आरोप है कि कांग्रेस और महात्मा गांधी ने ज़मीदारों-सामंतों के ख़िलाफ़ ग़रीब बहुजनों के विद्रोह को अपराध माना। लेकिन वे यह भी स्वीकारते हैं कि हाईकोर्ट में इन विद्रोहियों का मुकदमा कांग्रेस नेता मदन मोहन मालवीय ने लड़ा था।
सम्माजनजक स्थान नहीं
चौरी चौरा के कथित 'आपराधिक कृत्य' को स्वतंत्र भारत में भी लंबे समय तक स्वाधीनता आंदोलन का सम्मानजनक हिस्सा नहीं माना गया। चौरी चौरा के विद्रोहियों को भारत सरकार ने 1981 में शहीद स्वीकार किया। दरअसल, स्वाधीनता आंदोलन में बहुजनों के योगदान को समुचित महत्ता नहीं मिली।
कांग्रेस और गांधी के साथ चलने वाले दलितों और पिछड़ों को शहीदों में बहुत कम स्थान दिया गया। बावजूद इसके गांधी पर यह आरोप लगाना कि सवर्ण होने के नाते उन्होंने बहुजनों के विद्रोह को अपराध कहा था, अतिवाद लगता है।
बीजेपी की रणनीति
बीजेपी सरकार बड़ी चालाकी से केवल चौरी चौरा विद्रोह का शताब्दी समारोह आयोजित करने जा रही है। चूंकि यह आयोजन यूपी सरकार कर रही है और चौरी चौरा मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के अपने जनपद गोरखपुर में स्थित है, इसलिए कुछ लोग इसका कारण योगी की निजी दिलचस्पी में भी देख सकते हैं। लेकिन वास्तविकता कुछ और है।
यह साल अवध के किसान आंदोलन का भी शताब्दी वर्ष है। दिल्ली की सरहदों और पश्चिमी यूपी में किसान आंदोलन चल रहे हैं। इन हालातों में सरकार के लिए ज़रूरी है कि एक ऐसा विमर्श खड़ा किया जाए जो इस आंदोलन की अनदेखी करने, आज़ादी के आंदोलन की विरासत हथियाने और साथ ही अपने वोट बैंक को बनाए रखने में काम आए। चौरी चौरा विद्रोह में इसकी गुंजाइश भी है। बीजेपी आज़ादी के आंदोलन में दलितों-पिछड़ों के योगदान को नज़रअंदाज करने का कांग्रेस पर आरोप लगाकर इन समुदायों पर अपनी पकड़ को मजबूत बनाए रखना चाहती है।
चौरी चौरा की स्थाई महत्ता है। लेकिन इसे असहयोग आंदोलन से एकदम अलग करके नहीं देखा जा सकता।
बहुजन इतिहासकार इस घटना को असहयोग आंदोलन से अलग करके देखते हैं, इसलिए उनके विश्लेषण और निष्कर्ष बदल जाते हैं। बीजेपी चौरी चौरा विद्रोह को आगे करके असहयोग आंदोलन और इसके समानांतर किसान आंदोलन को विस्मृत कर देना चाहती है।
क्या हुआ था?
दरअसल, चौरी चौरा असहयोग आंदोलन का ही हिस्सा है। गाँधी जी के आह्वान पर पूरे देश में असहयोग आंदोलन चल रहा था। एक तरफ जगह-जगह स्वयंसेवक आंदोलन कर रहे थे और दूसरी तरफ ब्रिटिश हुकूमत इन स्वयंसेवकों की धर-पकड़ कर रही थी।
चौरी चौरा घटना की शुरुआत एक फरवरी को हुई। पहले विश्वयुद्ध में सेना में शामिल रहे भगवान अहीर और उनके साथियों रामरूप बरई तथा महादेव को पकड़कर मुंडेरा बाज़ार की छावनी में बंद कर दिया गया।
इन तीनों स्वयंसेवकों को थानेदार गुप्तेश्वर सिंह ने बुरी तरह मारा-पीटा। इसी दिन शाम को स्थानीय लोगों की एक बैठक हुई जिसमें स्वयं सेवकों पर थानेदार की बर्बरता की जानकारी ली गई। 2 और 4 फरवरी को बहुजनों के गाँव डुमरी खुर्द में स्वयं सेवकों की फिर से बैठक हुई। 4 फरवरी की बैठक में तय किया गया कि पुलिसिया बर्बरता के ख़िलाफ़ जुलूस निकाला जाए।
इस बैठक में ख़िलाफ़त कमेटी के सुलेमान, दशरथ प्रसाद द्विवेदी और हाकिम आरिफ आदि लोग भी शामिल थे। जाहिर है, ये सब असहयोग आंदोलन से जुड़े हुए थे। जिला कार्यालय ने 4 फरवरी को जुलूस निकालने की अनुमति नहीं दी। कुछ लोगों ने जुलूस कार्यक्रम रद्द करने की सलाह दी। लेकिन विशेषकर डुमरी खुर्द गाँव के लोग जुलूस लेकर थाने की ओर बढ़े। करीब 300 स्वयंसेवक थाने के गेट पर पहुँचे। दरोगा ने पहले स्वयंसेवकों से माफ़ी मांग ली।
लेकिन जमींदार बख्श सिंह के कारिंदे अवधू तिवारी के उकसाने पर दरोगा गुप्तेश्वर सिंह ने जुलूस पर लाठीचार्ज करवा दिया। भीड़ अनियंत्रित हो गई। स्वयंसेवकों ने थाने पर पथराव किया। इसके बाद पुलिस ने गोली चला दी। कई स्वयंसेवक मारे गए। इससे भीड़ और उग्र हो गई।
तब थाने को आग लगा दी गई। इसमें दरोगा समेत 23 सिपाहियों की मौत हो गई। उग्र भीड़ ने रेल पटरियों को उखाड़ दिया और चौरी चौरा स्टेशन तथा पोस्ट ऑफिस पर तिरंगा फहरा दिया। गांधी जी को जब इसकी ख़बर मिली तो उन्होंने इस घटना की निंदा करते हुए असहयोग आंदोलन वापस ले लिया।
नेहरू को क्यों गुस्सा आया था?
गांधी जी के इस निर्णय से कांग्रेस के ज़्यादातर नेता असहमत थे। जवाहरलाल नेहरू जैसे नौजवान तो गुस्से में थे। जवाहरलाल नेहरू ने निराश होकर लिखा,
“
“एक ऐसे समय में, जबकि हम अपना पैर जमाते जा रहे थे और सभी मोर्चों पर आगे बढ़ रहे थे, संघर्ष के इस तरह बंद किए गए जाने का समाचार पढ़कर हमें क्रोध आया। किंतु जेल में पड़े-पड़े हमारी निराशा और हमारे क्रोध से किसी को लाभ नहीं पहुँच सकता था!”
जवाहरलाल नेहरू, प्रथम प्रधानमंत्री
चौरी चौरा घटना को समझने के लिए असहयोग आंदोलन की पृष्ठभूमि को भी जानना ज़रूरी है। दिसंबर 1920 में नागपुर में कांग्रेस के वार्षिक अधिवेशन में असहयोग आंदोलन का प्रस्ताव पारित हुआ। इसमें उपाधियों- प्रशस्तिपत्रों को लौटाना, सरकारी स्कूलों, कालेजों, अदालतों और विदेशी वस्तुओं के बहिष्कार का कार्यक्रम था।
सरकारी नौकरियों से इस्तीफ़ा और कर अदा नहीं करना भी आगे इस कार्यक्रम का हिस्सा होना था। हाथ से कताई बुनाई को प्रोत्साहन देना, हिंदू मुसलिम एकता को मजबूत करना, छुआछूत मिटाना और हर हाल में अहिंसा का पालन करने का सख्त निर्देश था।
इस आंदोलन में गांधी ने सादगी को हमेशा के लिए अपना लिया था। अमेरिकी पत्रकार लुई फिशर ने अपनी किताब 'गाँधी की कहानी' में लिखा, “सितंबर 1921 में गांधी जी ने खादी और सादगी के प्रति अपने आग्रह को बल देने के लिए टोपी, जाकेट, नीची धोती या ढीला पाजामा सदा के लिए त्याग दिए और लंगोटी धारण कर ली।”
हिंसक दमन
असहयोग आंदोलन के शुरू होते ही अंग्रेजी सरकार ने कांग्रेसी नेताओं को गिरफ़्तार करना शुरू कर दिया। गांधी को छोड़कर सभी बड़े कांग्रेसी नेता जेल में डाल दिए गए। जब किसानों ने लगानबंदी शुरू की तो उनकी भी गिरफ़्तारियाँ होने लगीं। दिसंबर 1921 से जनवरी 1922 के बीच 19 हज़ार से अधिक भारतीयों को जेलों में ठूँस दिया गया। चौरी चौरा के बहुजन किसानों की गिरफ़्तारी भी इसी का हिस्सा थी। लेकिन दरोगा द्वारा मारपीट के पीछे निश्चित तौर पर उसका सामंतवादी-वर्णवादी नजरिया था।
असहयोग आंदोलन प्रारंभ करते हुए गांधी ने आश्वासन दिया था कि अगर इन कार्यक्रमों पर अमल किया गया तो एक साल के भीतर आजादी मिल जाएगी। स्वाभाविक तौर पर गांधी के इस आश्वासन के बाद बहुजन भी अपनी मुक्ति का सपना देखने लगे। बहुजनों को अंग्रेजी साम्राज्यवाद के साथ भारतीय सामंतवाद और ब्राह्मणवाद से भी मुक्ति चाहिए थी। सैकड़ों साल से जारी सांस्कृतिक और राजनीतिक गुलामी, हिंसा और शोषण से मुक्ति पाने के लिए दलित, पिछड़े और पसमांदा मुस्लिम छटपटा उठे।
अंग्रेजी साम्राज्यवाद के साथ गलबहियाँ करने वाली देसी सामंती और वर्णवादी ताकतों के लिए बहुजनों का स्वाभिमान, चेतना और मुक्ति की कामना जाहिर तौर पर असहनीय थी।
देसी सामंतवाद
बहुजनों की गुलामी से ही देसी सामंतवाद और वर्णवाद पोषित होता था। यही वजह है कि चौरी चौरा का विद्रोह बहुजनों और देसी सामंती-वर्णवादी शक्तियों के बीच टकराव में बदल गया। इससे यह भी जाहिर होता है कि बहुजन तबका गाँधी और कांग्रेस के साथ जुड़कर अपनी गुलामी का जुआ उतारकर फेंकने को बेताब था, जबकि ज्यादातर सामंती और ब्राह्मणवादी शक्तियाँ अंग्रेजी साम्राज्य के साथ खड़ी थीं।
गांधी ने चौरी चौरा के इस कृत्य को अपराध माना। उन्होंने 8 फरवरी को नवजीवन में 'चौरी चौरा का अपराध' शीर्षक से एक लेख लिखा और 12 फरवरी को असहयोग आंदोलन को स्थगित करने का ऐलान कर दिया। क्या गाँधी ने बहुजनों के जमींदारों और सवर्णों के प्रति विद्रोह के कारण यह निर्णय किया? बहुजन इतिहासकार यही आरोप लगाते हैं।
क्या कहा था नेहरू ने?
लेकिन जवाहरलाल नेहरू ने भी गांधी के इस निर्णय और उनके सिद्धांत की तीखी आलोचना थी। उन्होंने लिखा,
“
“यह भी ठीक है कि वह घटना हमारे अहिंसात्मक आंदोलन के सिद्धांत के विरुद्ध थी, किंतु क्या हमारे राष्ट्र का स्वतंत्रता संग्राम एक दूर के गांव और एक अनजान स्थान के उत्तेजित किसानों की भीड़ के कारण बंद होने वाला था?"
जवाहरलाल नेहरू, प्रथम प्रधानमंत्री
लेकिन गांधी के लिए यह केवल अहिंसा के सिद्धांत का मामला नहीं था। गांधी ने कई दफा इस तरह के निर्णय लिए हैं। जब आंदोलन अपने चरम पर होता था तो गांधी उसे रोक देते थे। ऐसे निर्णय के पीछे हिंसा और भटकाव ही कारण होता था। निश्चित तौर पर गांधी के लिए अहिंसा का सिद्धांत और सत्याग्रह का रास्ता अनिवार्य था। भगत सिंह जैसे क्रांतिकारियों को नहीं बचाने का आरोप भी गांधी पर लगता है।
दरअसल, गांधी हिंसा के परिणाम को बखूबी जानते थे। गांधी ब्रिटिश सत्ता की ताक़त और उसकी बर्बरता को भी जानते थे। चौरी चौरा से तीन साल पहले अमृतसर के जलियाँवाला बाग हत्याकांड की बर्बरता को भुलाया नहीं जा सकता।
जालियाँवाला कांड से शिक्षा
लेकिन इस घटनाक्रम के पीछे का एक सच यह भी है कि रौलट एक्ट के विरोध में होने वाला आन्दोलन अमृतसर में हिंसक हो गया था। इसकी आड़ में डायर ने हजारों निहत्थों का खून बहाया था। इसलिए चौरी चौरा के संदर्भ में यह कहना कि केवल बहुजनों के विद्रोह के कारण इस आंदोलन को दबा दिया गया, ठीक नहीं लगता।
इसका कारण निश्चित तौर पर गांधीजी का अहिंसा का सिद्धांत और ब्रिटिश हुक़ूमत की बर्बरता की आशंका भी थी।
आज के किसान आंदोलन के संदर्भ में चौरी चौरा को याद करना लाज़िमी है। 26 जनवरी की ट्रैक्टर परेड में एक बहुत छोटे हिस्से द्वारा लाल किले पर उपद्रव किया गया। कुछ लोगों का आरोप है कि यह बीजेपी सरकार की ही साजिश थी।
लाल किले की हिंसा की आड़ में सरकार बर्बरतापूर्वक किसान आन्दोलन को कुचलकर खत्म करना चाहती थी। लेकिन राकेश टिकैट सहित अन्य किसानों के गांधीवादी सत्याग्रह के कारण ही आज दोगुनी ताक़त के साथ किसान आन्दोलन खड़ा है। आश्चर्यजनक रूप से अंग्रेजी हुक़ूमत के नज़रिए से देश चलाने वाली बीजेपी सरकार चौरी चौरा के शहीदों को याद करके समारोह आयोजित कर रही है। यह उलटबांसी ही नहीं हास्यास्पद भी लगता है।
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