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वंचित वर्गों व जातियों के ललाट पर जाति का ठप्पा लगाना चाहती है बीजेपी

तमाम कवायदों के बावजूद भारत में जाति गंभीर समस्या बनी हुई है। सरकारी नौकरियों से लेकर शिक्षा तक में आरक्षण दिए जाने के बाद सरकारी और निजी क्षेत्र में मलाईदार पदों पर उच्च कही जाने वाली जातियां बनी हुई हैं, जिनकी कुल जनसंख्या में हिस्सेदारी 15 प्रतिशत से कम है। 

निम्न जातियों को अभी भी जाति असहज करती है और इन जातियों के लोग अपनी जाति का खुलासा करने से हिचकिचाते हैं। वहीं, बीजेपी निम्न जातियों के माथे पर जाति का ठप्पा लगा देने की कवायद में जुटी हुई है। 

असम के 3 सरकारी स्कूलों में जाति पूछे जाने का मामला बीजेपी सरकार की मंशा की एक नजीर है। सामान्यतया विद्यालयों में प्रवेश फार्म में श्रेणी पूछी जाती है, जिसमें सामान्य, ओबीसी, अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति का विकल्प होता है। यह पूछे जाने का मकसद इस वर्ग के कोटे के मुताबिक आरक्षण मुहैया कराना होता है। 

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वहीं, असम के स्कूलों ने हर किसी आवेदक छात्र-छात्रा से जाति पूछ डाली। राज्य के एआईएसएफ के सेक्रेटरी निरंगकुश नाथ ने इस मामले को उठाया। उसके बाद राज्य सरकार के प्राधिकारियों का स्पष्टीकरण आया कि यह “सॉफ्टवेयर की गड़बड़ी” की वजह से हुआ है, राज्य सरकार की ओर से ऐसा निर्देश जारी नहीं किया गया है।

जातीय पहचान छुपाना मजबूरी  

जातीय पहचान छुपाना निम्न कही जाने वाली जातियों की मजबूरी है। इसकी वजह साफ है कि जाति का खुलासा होने पर निम्न कही जाने वाली जातियों को अपमान का सामना करना पड़ता है। इसके अलावा व्यक्ति जिस संस्थान में काम करता है, या कहीं नौकरी पाने की कवायद करता है तो उसे जातीय भेदभाव का सामना करना पड़ता है, क्योंकि उच्च पदों पर उनके अपने लोग पदासीन नहीं होते हैं। 

निम्न जातियों के लोग अपने जाति समूह में होने पर भले ही अपनी जाति पर गर्व कर लें, खुद को किसी राजवंश का उत्तराधिकारी बता दें, लेकिन अकेले पड़ने पर जाति छिपाना उनकी मजबूरी बन जाती है।

जाति जनगणना करा लेना और जातियों के मुताबिक देश की जनता की स्थिति जान लेना अलग बात है। यह बिल्कुल उसी तरह है, जैसे सरकार आयकर भुगतान करने वालों के खाते का ब्योरा जानती है, पैनकार्ड में सब कुछ उल्लिखित होता है, लेकिन उसका खुलासा नहीं किया जाता। 

इसी तरह आधार कार्ड के आंकड़ों को भी गोपनीय माना जाता है। इसका खुलासा व्यक्तिगत स्वतंत्रता का हनन है। लेकिन सरकार और जनता को पता होता है कि कितने लोग करदाता हैं। कितने लोगों से कितना कर आता है। 

ये आंकड़े सार्वजनिक किए जाते हैं। लेकिन किसी व्यक्ति का नाम लेकर उल्लेख नहीं किया जाता है, कि किस व्यक्ति की व्यक्तिगत आमदनी कितनी है। या वह व्यक्ति कहां-कहां घूमने जाता है। सरकार के पास हर किसी के आंकड़े होते हैं और उनका इस्तेमाल विभिन्न योजनाएं बनाने में किया जाता है। बजट बनाते समय इसका इस्तेमाल किया जाता है।

जाति जनगणना न कराए जाने के पीछे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की विचारधारा को मानने वाले लोगों का एक तर्क यह भी होता है कि इससे जातीय विभाजन बढ़ेगा और हिंदुत्व कमजोर होगा। जबकि हकीकत यह है कि भारतीय समाज जातियों में बंटा है। लोगों में जातीय घृणा यथावत है।

1931 के बाद जातीय जनगणना बंद किए जाने के 90 साल बाद भी जातियां यथावत हैं और कहीं भी किसी भी इलाके में जातिवाद ख़त्म होना तो दूर, कम भी नहीं हुआ है। बल्कि जातियों में इस दौरान उपजातीय कट्टरता बढ़ गई लगती है।

नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली सरकार ने कई ऐसे तरीके अपनाये हैं जिस पर वंचित तबकों को आपत्ति हो सकती है। शहरी और ग्रामीण आवासों के जिन निर्माण में सरकार अनुदान देती है, उन मकानों के बाहर यह लिखा जाने लगा है कि  इस मकान के निर्माण में प्रधानमंत्री आवास योजना से इतने लाख का योगदान मिला है। उसमें बाकायदा लाभार्थी का नाम आदि अंकित होता है। 

जाति जनगणना पर देखिए चर्चा- 

इसी तरह से जब रेलवे का टिकट लिया जाता है तो उसमें उल्लेख किया जाने लगा कि सरकार की भीख पर लोग रेल में यात्रा करते हैं। गैस सब्सिडी का तमाशा बनाया गया और लोगों से सब्सिडी छोड़ देने की अपील की गई। अब मुफ्त टीकाकरण का भी अहसान जताया जा रहा है। 

देश भर में जगह-जगह बोर्ड लगे हुए हैं कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जनता को मुफ्त टीका दे दिया। बाकायदा सरकारों के लगाए गए बड़े-बड़े होर्डिंग्स में मोदी को धन्यवाद दिया जा रहा है और जनता को यह अहसास दिलाया जा रहा है कि वह इसके लिए सरकार का अहसान माने।

सरकारें इसीलिए बनाई जाती हैं कि वे जनहित में काम करें। मानव संसाधन का बेहतर प्रबंधन करें। लोगों के जीवन को सुगम बनाएं। लोकतंत्र या लोक कल्याणकारी राज्य की अवधारणा में प्रधानमंत्री या मंत्रियों व सांसदों का चयन इसीलिए किया जाता है कि वे जनता के हित में काम करें।

सरकार की जिम्मेदारी 

अगर कोई सरकार ऐसा नहीं करती है तो उसे जनता द्वारा चुने जाने का कोई मतलब ही नहीं होता। अगर सरकार कुछ उद्योगपतियों या कुछ चुनिंदा लोगों व चुनिंदा जातियों के लिए काम करने लगे, जो पहले से ताकतवर हैं तो सरकार का कोई मतलब ही नहीं रह जाता। 

अगर सरकार न रहे, तब भी ताकतवर तबका लूटपाट मचाकर ताकतवर बना रहेगा और वंचित तबका लुटता रहेगा। सरकार का काम है कि वह प्रत्येक देशवासी को लुटने से बचाए। उसे यह अहसास न होने पाए कि ताकतवर या अमीर तबका, संपन्न जातियों के लोग उन्हें लूट रहे हैं।

caste census debate in india - Satya Hindi

गरीबों पर पड़ रही मार 

मौजूदा सरकार में इसका उल्टा हो रहा है। कुछ अमीरों की संपदाएं लगातार बढ़ रही हैं और आम जनता के हाथों से धन खिंच रहा है। वस्तु एवं सेवाकर, नोटबंदी, बिना विचार किए कोरोना के कारण देशबंदी की वजह से तमाम मौतें हुईं और जनता से लेकर तमाम छोटे छोटे उद्योग तबाह हो गए। इसकी मुसीबत वंचित तबके पर टूटी है। 

आबादी को दिया दोष 

वंचित तबके की तबाही में थोड़ी बहुत सरकारी मदद पहुंचाकर सरकार अपने होर्डिंगों के माध्यम से यह जताने की कोशिश कर रही है, जैसे वह भिखारियों को भीख दे रही हो। जनता के एक बड़े तबके में यह बिठाया जा रहा है कि सारा कुप्रबंधन और समस्याएं बढ़ती आबादी की वजह से है। 

आबादी की हकीकत यह है कि 1930 के दशक में जब भारत की आबादी मौजूदा आबादी का महज पांचवां हिस्सा थी तो बंगाल प्रांत में लाखों की संख्या में लोग भूख से मर गए। 1918-19  में आए स्पेनिश फ्लू में देश में करीब 1.8 करोड़ लोगों यानी 6 प्रतिशत आबादी की मौत हो गई। उस समय आबादी बहुत कम थी। वहीं, मौजूदा मोदी सरकार के समर्थक कुछ ऐसा प्रचार करते हैं जैसे नरेंद्र मोदी के सत्ता संभालने के बाद अचानक आबादी बढ़ गई, जिसकी वजह से सारी समस्या हो रही है। 

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जाति जनगणना से परहेज 

आश्चर्य की बात है कि आबादी का रोना रोने वाले निम्न-मध्य वर्ग के लोग खुद को या अपने बाप-दादाओं को आबादी बढ़ाने का “अपराधी” नहीं मानते। वह इसके लिए अल्पसंख्यकों, दलितों, पिछड़ों को जिम्मेदार बताते हैं। हालांकि जाति जनगणना से परहेज करते हैं, जिससे खुलासा हो सके कि 1931 के बाद किन जातियों ने आबादी बढ़ाने का कथित “अपराध” सबसे ज्यादा किया है। सब कुछ धुप्पलबाजियों पर चल रहा है।

एक लोककल्याणकारी राज्य के रूप में सरकार को जाति जनगणना कराने, जातीय शोषण को ख़त्म करने, जातियां अगर ख़त्म नहीं होतीं तो उन्हें शिथिल करने की ज़रूरत है। जातीय पहचान वाले सभी सार्वजनिक शब्दों, जातीय पहचान वाले उपनाम को ख़त्म करने की ज़रूरत है।

साथ ही गोपनीय तरीके से यह भी जान लेने की ज़रूरत है कि जातीय शोषण के कारण कौन सा तबका शासन-प्रशासन, शिक्षा, धन संपदा, जमीन जायदाद से अब तक वंचित रखा गया है। उसके मुताबिक कदम उठाकर एक ऐसा समाज बनाने की ज़रूरत है, जिसमें कोई भी व्यक्ति खुद को उत्पीड़ित महसूस न करे। उसे यह अनुभव हो कि भारत उसका भी देश है, जो सरकार काम कर रही है, वह उसकी भी है। 

सरकार यह सब करने के बजाय लोगों को और गरीब बनाकर उनके ऊपर मदद की दया दिखाने और उन्हें उपकृत होने के बोझ के नीचे दबाने की कवायद कर रही है। 

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प्रीति सिंह
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