भारत की सामाजिक न्याय की शक्तियाँ हिंदुत्व की प्रतिक्रांति को पलटने के लिए बेचैन हैं। एक ओर तमिलनाडु के मुख्यमंत्री एम. के. स्टालिन ने 3 अप्रैल को ऑल इंडिया फेडरेशन फार सोशल जस्टिस की ओर से चेन्नई में तकरीबन 20 गैर भाजपा पार्टियां का सम्मेलन करके सामाजिक न्याय के अभियान को आगे बढ़ाने का आह्वान किया है तो दूसरी ओर समाजवादी पार्टी के अध्यक्ष अखिलेश यादव ने आंबेडकर और कांशीराम की विरासत को अपने संघर्ष से एक मंच पर लाने की गंभीर पहल की है। डॉ. भीमराव आंबेडकर की जयंती (14 अप्रैल) पर उनकी जन्मस्थली महू में राष्ट्रीय लोकदल के अध्यक्ष जयंत चौधरी और चंद्रशेखर आज़ाद के साथ पहुंचना और उससे पहले तीन अप्रैल को रायबरेली के ऊंचाहार में मान्यवर कांशीराम की प्रतिमा का अनावरण ऐसे प्रयास हैं जो दिखाते हैं कि वे डॉ. आंबेडकर और डॉ. लोहिया के 67 साल पहले किए गए प्रयास को परिणाम की तह तक पहुँचाने में लग गए हैं।
आंबेडकर और लोहिया की सोच मिली तो हिंदुत्व की हार तय?
- विचार
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- 19 Apr, 2023

क्या आंबेडकर और लोहिया की विचारधारा एक साथ आने से देश की राजनीति पूरी तरह बदल जाएगी? क्या 2024 का समय 1977 और 1992 जैसा है?
जाहिर सी बात है कि उनके इस प्रयासों से जहां गैर भाजपा और देश के लोकतंत्र को बचाने में लगी राजनीतिक शक्तियां उत्साहित हैं वहीं बसपा नेता मायावती को यह बात नागवार गुजर रही है। रायबरेली में जब अखिलेश ने कांशीराम की मूर्ति का अनावरण किया तो मायावती ने उसे नौटंकी बताया। वजह यह है कि लखनऊ में कांशीराम के साथ मूर्ति लगवाकर उन्होंने उस पर एक मात्र उत्तराधिकारी लिखवा रखा है जबकि वास्तव में वे उनके उत्तराधिकार को नष्ट कर रही हैं।
लेखक महात्मा गाँधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय में प्रोफ़ेसर रहे हैं। वरिष्ठ पत्रकार हैं।