-लॉकडाउन की भुखमरी में जूझते उत्तर प्रदेश के गोपीगंज (भदोई) के अपने 5 बच्चों की दुर्दशा जब माँ से देखी नहीं गई तो उसने 12 अप्रैल, 2020 को अपने सभी बच्चों को गंगा में बहा दिया। 2 बच्चों के शव नहीं मिले। माँ को हत्या के आरोप में गिरफ्तार कर लिया गया। इस घटना का उल्लेख लखनऊ स्थित 'आईएएनएस' की संवाददाता अमिता वर्मा ने 13 अप्रैल की अपनी रिपोर्ट में किया। अगले दिन एसपी भदोई ने इस ख़बर का खण्डन करते हुए एक प्रेस विज्ञप्ति जारी करके स्पष्टीकरण दिया कि महिला ने अपने पति से घरेलू झगड़ा करने के चलते ऐसा किया। अमिता ने अपनी रिपोर्ट पर क़ायम रहते हुए एसपी के उक्त खंडन को भी प्रकाशित कर दिया। ज़िला प्रशासन ने तब भी आईएएनएस' के संवाददाता और संपादक के नाम से एफ़आईआर दर्ज़ की। अमिता को जब एफ़आईआर की जानकारी हुई तो वह अतिरिक्त मुख्य सचिव (गृह) अवनीश अवस्थी से इस अनुरोध के साथ मिलीं कि एफ़आईआर में उनके सम्पादक का नाम हटा दिया जाए, उन्हें जो कहना होगा उसे वह कोर्ट में साबित करेंगी। बताते हैं कि श्री अवस्थी ने नाराज़गी व्यक्त करते हुए उन्हें कहा कि इस क़िस्म की 'फ़र्ज़ी' ख़बरों पर तो सुप्रीम कोर्ट का साफ़-साफ़ ऑर्डर है और कि उन्हें जेल जाना पड़ेगा। फ़िलहाल अक्टूबर में आईएएनएस के नयी दिल्ली स्थित कार्यालय में क़ानूनी समन पहुँचा है और अमिता गहरे तनाव में हैं। वह और उनका कार्यालय अदालती लड़ाई की तैयारी में लगे हैं।
योगी सरकार की सबसे कर्तव्यनिष्ठ माने जाने वाली यूपी पुलिस की 'स्पेशल टास्क फ़ोर्स' (एसटीएफ़) की कार्यप्रणाली कैसी अद्भुत है, यह इस घटना से साबित होता है। लखनऊ स्थित 'जनसंदेश टाइम्स' के वरिष्ठ पत्रकार सुरेश बहादुर सिंह अजीब मुश्किल में फँसे हैं। 6 अक्टूबर को लखनऊ एसटीएफ़ ने उनके विरुद्ध ऐसे मामले में एफ़आईआर दर्ज़ की है जिसमें उनका कोई अपराध नहीं। वस्तुतः साल 2018 में सुरेश के हाथ एसटीएफ़ के आईजी अमिताभ यश द्वारा डीजी इंटेलिजेंस को भेजा गया एक गोपनीय पत्र को आधार बनाकर उन्होंने तब उक्त पत्र के खुले आम लीक होने को लेकर एक ख़बर की थी। उक्त पत्र बसपा के बाहुबली पूर्व सांसद धनंजय सिंह की हत्या की कोशिश में जुड़े मुख़्तार अंसारी के शार्प शूटर मुन्ना बजरंगी गैंग के एक सदस्य आईबी सिंह के फ़ोन सर्विलेंस की रिपोर्ट को लेकर था जिससे प्रतीत हो रहा था कि वह पूर्व सांसद की हत्या की ताक में है। धनंजय सिंह ने हाईकोर्ट में रिट दायर करके ऐसे अति गोपनीय पत्र के इस तरह लीक किए जाने के कारणों की जाँच की माँग की। हाईकोर्ट ने उक्त मामले को गंभीर मानते हुए सितम्बर 2019 में एसटीएफ़ को जाँच का आदेश दिया। कोरोना काल किस तरह प्रदेश पुलिस की पूर्णतः स्वच्छंदता प्राप्ति का स्वर्णकाल साबित हुआ है, इसकी मिसाल देखिए। बजाय इसके कि अपनी विभागीय जाँच करके 'एसटीएफ़' पता लगाती कि पत्र कहाँ से लीक हुआ, उसने 16 अक्तूबर 2020 को सुरेश बहादुर सिंह को ही 'ऑफ़िशियल सीक्रेट एक्ट' के तहत पहला मुल्ज़िम बनाकर मुक़दमा क़ायम कर दिया। 'एसटीएफ़' ने इस मामले में दूसरा अभियुक्त पूर्व सांसद धनंजय सिंह को ही बनाया जिन्होंने जाँच की माँग की थी।
-बीते 16 सितंबर को सीतापुर के पत्रकार रवींद्र सक्सेना पर प्रशासन की नज़रें टेढ़ी हो गईं। रवींद्र का दोष इतना था कि वह कोरोना काल में बढ़ते सरकारी कुप्रबन्धन और क्वारंटीन सेंटर की बदइंतज़ामियों पर ख़बरें कर रहे थे। प्रशासन ने उनके विरुद्ध 'आपदा प्रबंधन एक्ट' के तहत तो मुक़दमे दर्ज़ किए ही, आईपीसी के तहत सरकारी काम में बाधा डालने और एससी-एसटी एक्ट के अंतर्गत एफ़आईआर भी दायर कीं।
-7 सितंबर 2020 को बिजनौर के 5 पत्रकारों पर अलग-अलग आपराधिक मामले दर्ज़ किए गए। विभिन्न संस्थानों में काम करने वाले इन सभी पत्रकारों ने प्रशासन की दृष्टि में 'बड़े गंभीर अपराध' किए थे। ये पत्रकार हैं- आशीष तोमर, लाखन सिंह, शक़ील अहमद, आमिर ख़ान तथा मोईन अहमद। हुआ दरअसल यह था कि इन पत्रकारों ने स्थानीय दबंगों के डर से वाल्मीकि बस्ती के 5 दलित परिवारों के पलायन और इस मामले में पुलिस और प्रशासन द्वारा अनदेखी किए जाने के समाचार प्रकाशित किए थे। इन सभी के विरुद्ध आईपीसी की धारा 153 ए, 268 तथा 505 के तहत एफ़आईआर दायर की गई थी। इस मामले में रोचक तथ्य यह है कि स्थानीय न्यायालय ने इनमें 'त्रुटिपूर्ण विवेचना' मानते हुए इनका संज्ञान लेने से साफ़ इंकार कर दिया।
-10 सितम्बर 2020 को आज़मगढ़ के एक सरकारी स्कूल में बच्चों से झाड़ू लगवाने की घटना को छापने वाले 6 पत्रकारों के विरुद्ध आईपीसी के तहत एफ़आईआर दर्ज़ की गई। एक और पत्रकार संतोष जायसवाल के विरुद्ध सरकारी काम में बाधा डालने और रंगदारी मांगने सम्बन्धी मामले दर्ज़ किए गए।
-दिल्ली के स्वतंत्र पत्रकार प्रशांत कनौजिया को अगस्त के महीने में यूपी पुलिस ने ट्वीट करने के आरोप में गिरफ़्तार किया। प्रशांत पर आरोप है कि उन्होंने अपने ट्वीट में हिंदू सेना के नेता सुशील तिवारी को यह कहते बताया है कि अयोध्या के राम मंदिर में दलितों, आदिवासियों और ओबीसी के लोगों का प्रवेश निषेध होगा। इससे सामाजिक समरसता भंग होती है। इससे पहले जून में भी यूपी पुलिस ने प्रशांत को ट्विटर पर मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के बारे में की गई एक महिला की 'आपत्तिजनक टिप्पणियों' से भरे वीडियो के प्रसारण की वजह से गिरफ्तार किया गया था। ट्विटर को नोएडा के एक पोर्टल पर प्रसारित करने वाले पोर्टल सम्पादक को भी इस मामले में गिरफ़्तार किया गया था।
-नई दिल्ली स्थित 'दि वायर' के सम्पादक सिद्धार्थ वरदराजन के ख़िलाफ़ यूपी पुलिस ने विभिन्न वर्गों के बीच वैमनस्य पैदा करने की कोशिश के आरोप में एफ़आईआर दायर की। वरदराजन ने अपनी रिपोर्ट में लॉकडाउन के दौरान 25 मार्च से अयोध्या में शुरू होने वाले रामनवमी मेले की संभावित भीड़ जमा होने की प्रशासन द्वारा की गई अनदेखी की आलोचना की थी।
दुर्भाग्य से पत्रकारितागत कारणों से मीडिया कर्मियों पर होने वाली इन सरकारी हमलों और ज़्यादत्तियों की जानकारी उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ को अपने प्रदेश की सीमाओं के भीतर रहकर नहीं हो पाई।
हाल में जब वह बिहार की चुनावी सभाओं में पहुँचे और उन्होंने सुना कि मुंबई पुलिस ने किसी को आत्महत्या के लिए उकसाने के एक आपराधिक कृत्य में ‘रिपब्लिक टीवी’ के सम्पादक और मालिक अर्णब गोस्वामी को गिरफ़्तार कर लिया है तो उन्हें अचानक प्रेस की आज़ादी का इलहाम हुआ। चूँकि शिवसेना और एनसीपी बिहार चुनाव के मैदान में थे नहीं इसलिए उन पर तो क्या बरसते, उन्होंने मुंबई पुलिस, महाराष्ट्र सरकार को चलाने वाली कांग्रेस और कांग्रेस के आपातकाल को जी भर के कोसा।
अर्णब की गिरफ्तारी पर अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के लिए आँसू बहाने वालों में योगी अकेले बीजेपी नेता नहीं थे। भोपाल और चंडीगढ़ के उनके जोड़ीदार शिवराज सिंह चौहान और मनोहरलाल खट्टर के अलावा केंद्रीय सरकार के रक्षामंत्री राजनाथ सिंह, गृह मंत्री अमित शाह और …(प्रधानमंत्री को छोड़कर उनकी समूची टीम) 'फ़्रीडम ऑफ़ प्रेस' की फ़ील्ड में चौके-छक्के लगाने में जुट गई।
मोदी शासनकाल में प्रेस की आज़ादी
प्रेस की आज़ादी पर ज़ार-ज़ार आँसू बहाने वाली बीजेपी का 6 साल का मोदी शासनकाल 'विश्व प्रेस सूचकांक' की नज़र से खासी चिंता पैदा करता है। यह 'सूचकांक' सारी दुनिया के देशों में प्रेस की आज़ादी का निर्धारण करने के लिए स्थापित किया गया है। 4 सालों में यह लगातार नीचे आते-आते सन 2020 में लुढ़ककर 142वीं ‘रैंकिंग’ पर आ गया। पिछले साल यह 140वीं रैंक पर था। इससे पहले सन 2016 में 133, 2017 में 136, 2018 में 138 पर था। मौजूदा साल में भारत के पड़ेसी देशों- श्रीलंका (127), नेपाल (112) और भूटान (67) अपने देश की प्रेस को ज़्यादा बेहतर आज़ादी मुहैया कराने वाले साबित हुए हैं।
विश्व में स्वतंत्र पत्रकारिता की वकालत करने वाले संगठन 'रिपोर्टर्स विदाउट बॉर्डर' की रिपोर्ट के अनुसार 2014 से 2019 के बीच भारत में पत्रकारों पर 198 हमले हुए जिनमें अकेले साल 2019 में हुए 36 हमले शामिल हैं।
समूची दुनिया में मिलने वाली बदनामी से डरकर अब मोदी सरकार को अपनी 'रैंकिंग' सुधारने की सूझी है। सूचना प्रसारण मंत्री प्रकाश जावड़ेकर ने एक 'प्रेस इंडेक्स मॉनिटरिंग सेल' का गठन करने की घोषणा ज़रूर की है लेकिन यह घोषणा कितनी बेमानी है इसका आकलन करने के लिए केवल 2020 वर्ष के बीजेपी कार्यकाल का अध्ययन ही काफ़ी है।
मंडी (हिमाचल प्रदेश) के वरिष्ठ पत्रकार अश्विनी सैनी पर अप्रैल के पहले हफ़्ते में एफ़आईआर दर्ज़ की गई। सुंदरनगर उपखण्ड के एसडीएम उनसे नासाज़ हो गए थे। 'आपदा प्रबंधन एक्ट' की विभिन्न धाराओं में उनके विरुद्ध एफ़आईआर दर्ज़ करवा दी गयी। अश्विनी का दोष इतना था कि उन्होंने भूख से बिलखते उपखण्ड के प्रवासी श्रमिकों को राशन वितरण न किये जाने की ख़बर 'मंडी लाइव' पोर्टल पर चला दी थी। अश्विनी ने 'प्रेस का गला दबाने' की प्रशासन की कोशिशों के विरुद्ध जब पीएम और सीएम को चिट्ठी लिखी तो उनके विरुद्ध 3 और एफ़आईआर दर्ज़ की गईं।
पत्रकारों पर मुक़दमे
13 अप्रैल को अश्विनी और 'दिव्य हिमाचल' के एक और पत्रकार ने ईंट के भट्टों के अवैध निर्माण से जुड़ी ख़बर छापी। भट्टे तो बंद कर दिए गए लेकिन पुलिस ने आईपीसी की विभिन्न धाराओं में दोनों के विरुद्ध 5 एफ़आईआर दायर कर दी। अश्विनी की कार भी 'मोटर व्हीकल एक्ट' में चालान करके ज़ब्त कर ली गयी। 'दिव्य हिमाचल' के ओम शर्मा ने औद्योगिक नगर बड्डी में फंसे भूखे प्रवासी श्रमिकों के प्रदर्शन की ख़बर चलाई तो उनके विरुद्ध 'डिज़ास्टर मैनेजमेंट एक्ट' और आईपीसी की विभिन्न धराओं के अंतर्गत 'फेक न्यूज़' और 'भावना भड़काने वाली ख़बरों' का आरोप चस्पां करके मुक़दमा दायर कर दिया गया। अगले दिन उन्होंने 'अमर उजाला' में प्रकाशित प्रशासन के कुप्रबंध को दर्शाने वाली ख़बर अपने फ़ेसबुक वॉल पर शेयर कर दी तो एफ़आईआर। तीसरे दिन बाज़ार की बंदी को लेकर आये प्रशासन के विरोधाभासी आदेशों से उपजे ज़बरदस्त भ्रम पर ख़बर लिखना था कि ले एफ़आईआर। डलहौज़ी (चम्बा) में पत्रकार ने स्थानीय 'गांधी चौक' को प्रतीक बनाकर अव्यवस्था को दर्शाया तो दे एफ़आईआर। एफआईआर न हुई आइस-पाइस के खेल का 'धप्पा' हो गया। जिसे जब जो मिला 'चटका' दिया।
एन राम से लेकर विनोद दुआ जैसे अनेक नामचीन पत्रकारों को दी गई प्रताड़ना का ज़िक्र यहाँ इसलिए नहीं किया जा रहा है क्योंकि अदालतों में चले उनके प्रकरणों पर काफ़ी कुछ छप चुका है।
ध्यान देने की बात यह है कि ये तमाम घटनाएँ सिर्फ़ पत्रकारिता के पेशे में काम करने के सरकारी विरोध के चलते घटी हैं। इनमें से किसी ने किसी को न तो आत्महत्या के लिए उकसाया है न हत्या के लिए।
पत्रकारों के ‘पेशेगत अधिकारों और स्वतंत्रता’ का अध्ययन करने वाली दिल्ली की संस्था 'राग' (राइट एंड रिस्क एनॅलिसिस ग्रुप) का हालिया अध्ययन बताता है कि अकेले मार्च 2020 से लेकर अक्टूबर 2020 तक पत्रकारों की स्वतंत्रता पर कुल 55 हमले हुए हैं जिसमें उनकी गिरफ्तारी, एफ़आईआर, समन, सरकारी कारण बताओ नोटिस और शारीरिक मारपीट की घटनाएँ शामिल हैं। 'राग' के अध्ययन के अनुसार बीते 5 महीनों में सरकारी ज़्यादतियों की इन घटनाओं का पलीता इस प्रकार है- उप्र (11), जम्मू-कश्मीर (6), हिमाचल प्रदेश (5), पश्चिम बंगाल, ओडिशा, महाराष्ट्र (प्रत्येक में- 4), दिल्ली, पंजाब, मप्र, केरल (प्रत्येक में- 2), असम, अरुणाचल प्रदेश, बिहार, गुजरात, छत्तीसगढ़, नागालैंड, कर्नाटक, अंडमान और निकोबार, तेलंगाना (प्रत्येक में- 1)। इस दौरान 22 एफ़आईआर हुईं, 10 पत्रकारों की गिरफ़्तारियाँ, (जिनमें से 4 को सुप्रीम कोर्ट से राहत मिली), 7 को समन और कारण बताओ नोटिस मिले हैं। 'प्रेस काउन्सिल ऑफ़ इंडिया' ने 4 मामलों में स्वतः संज्ञान लिया है। 'राग' के निदेशक सुहास चकमा स्वीकार करते हैं कि चाहकर भी वे लोग छोटे शहरों की बहुत सी घटनाओं को समेट पाने में कामयाब नहीं हो सके हैं।
कोरोना काल तो पत्रकारों को गूंगा कर देने के लिए जैसे सरकारों के लिए अमृत वर्षा की मानिंद साबित हुआ। 85 लाख रुपये हज़म करके अपनी कम्पनी का स्टूडियो बनवाने और बनाने वाले को भुगतान न करके आत्महत्या के लिए मजबूर कर देने के आरोप में अर्णब गोस्वामी को जब पुलिस ने गिरफ़्तार किया तो ‘प्रेस की आज़ादी' के खतरे बीजेपी गिनवाने लगी।
हम यहाँ याद दिला दें कि सुप्रीम कोर्ट में 'आपदा प्रबंधन क़ानून' की धारा 55 के अंतर्गत 2 याचिका दायर करके उसने कोरोना काल की कवरेज की बाबत प्रेस की कथित ‘सेंसरशिप’ के लिए माँग की थी। यह याचिका फ़ील्ड में काम करने वाले पत्रकारों का दिल दहला देने वाली थी। उसने उन मीडियाकर्मियों की आँखों पर काली पट्टी बांधने की 'अदालत' से अपील की, जो सन्देश वाहक की भूमिका में अपनी जान जोख़िम में डालकर जर्जर, बिलखते तमाम अप्रवासी मज़दूरों-गरीब नागरिकों और उनकी औलादों की भूख की हैरतअंगेज़ कहानियों से सारी दुनिया को आगाह कर रहे थे। यह सरकार ‘कोर्ट’ से उन लोगों के होठों को सिल देने की गुज़ारिश कर रही थी जो बेख़ौफ़ घूम-घूम कर अस्पतालों में बिना पीपीई पहने मौत से पंजा लड़ाते जांबाज़ मर्दों और औरतो की बहादुरी की दास्तानों को सारे जहाँ तक पहुँचा रहे थे। यह सरकार क़लम के कामगारों की निब तोड़ डालने की दरख़्वास्त ‘सुप्रीम अदालत’ से कर रही थी, ऐसे कामगार जो होशियारी से उनके रोज़नामचे तैयार करने में मसरूफ़ थे जिनकी राक्षसी निगाहें कुप्रबंध, भ्रष्टाचार और लूट फरोश को गड़प कर जाना चाहती थीं और केंद्र और राज्य के सचिवालयों से लेकर ब्लॉक और पंचायतों तक की बिल्डिंगों में जो जम गए थे।
वस्तुतः बिना किसी पूर्व प्रशासनिक तैयारी के प्रधानमंत्री ने 3 हफ़्ते के लॉकडाउन की घोषणा कर डाली थी। भूख और इलाज से तड़पते प्रवासी मज़दूरों ने किसी तरह 3 हफ़्ते तो निकाल लिए लेकिन लॉकडाउन आगे बढ़ा तो वे आतंकित हो गए और फिर वे पैदल, साईकिल पर रिक्शों में, बसों में, जिसे जो मिला वैसे ही अपने परिवार से जुड़ने के लिए सैकड़ों-सैकड़ों मील भाग पड़ा। रास्ते में तमाम मौतें हुईं। आज़ादी के बाद के इतिहास की इस तसवीर को मीडिया ने जैसा देखा, वैसा ही पेश किया। यह समूची दृश्यावली यदि वीभत्स, लोमहर्षक और दिल दहलाने वाली थी तो मीडिया कैसे उसे रोमानी और रंगीन बना कर पेश करता? उसको यह रूप देने के लिए मीडिया तो ज़िम्मेदार नहीं था। आज़ादी के बाद की यह सबसे बड़ी प्रशासनिक कुप्रबंधन की आपदा थी। कुप्रबंधन की इस आपदा के लिए जो ज़िम्मेदार थे, वही सुप्रीम कोर्ट में 'आपदा प्रबंधन' की दुहाई देकर राहत मांगने पहुँच गए।
यद्यपि 21अप्रैल 2020 को 'अदालत' ने उनकी इस प्रकार की कथित सेंसरशिप की याचिका मंज़ूर करने से साफ़ इंकार कर दिया लेकिन उन्हें राहत देने की नीयत से मीडिया (प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक) और सोशल मीडिया को यह हिदायत ज़रूर दे दी कि प्रवासी श्रमिकों के पलायन के लिए या कोरोना काल की कवरेज के लिये वे जो कुछ भी छाप रहे हैं, उसमें सरकार का नज़रिया भी शामिल कर लें।
फिर क्या था? केंद्र और राज्य सरकारें सुप्रीम अदालत के इस आदेश को अपनी नाकाबलियत छिपाने और मीडिया और जनता के लिए 'डंडे' की तरह इस्तेमाल करने में जुट गईं। हर राज्य के हर सचिवालय में बैठकर हर अतिरिक्त मुख्य सचिव (गृह) सभी अमिताओं को धमकाने के लिए सुप्रीम कोर्ट की जिस रूलिंग का हवाला देने लग गए थे, वह यही है। दरअसल ज़रूरत इस बात की है कि सुप्रीम कोर्ट के दरवाज़े पर एक बार फिर से दस्तक दी जाए- यह ये मालूमात करने के लिए कि 'आपदा प्रबंधन' और 'आपदा कुप्रबंधन' का पैमाना क्या होगा और कौन किसके लिए ज़िम्मेदार ठहराया जाएगा।
27 मई को महाराष्ट्र के गृह मंत्री अनिल देशमुख ने अदन्या नायक के आवेदन पर उसके पिता अन्वय नायक की आत्महत्या और उससे जुड़े पैसे की देनदारी के मामले को पुनर्जांच के लिए सीआईडी को सौंपे जाने की घोषणा की थी। इस बात से भला कौन इंकार कर सकता है कि यह एक राजनीतिक फ़ैसला था, अर्णब गोस्वामी को लपेटने का। वैसे ही जैसे 2 साल पहले देवेंद्र फणनवीस ने राजनीतिक फ़ैसला लेकर अर्णब को आज़ाद कर दिया था और आत्महत्या के मामले को 'दाख़िल दफ़्तर' करवा दिया था।
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