दिल्ली विधानसभा चुनाव में मुँह की खाने के बाद केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने कहा है कि पार्टी के कुछ नेताओं ने चुनाव प्रचार के दौरान जिस तरह की नफ़रती भाषा का इस्तेमाल किया, संभव है, उससे पार्टी को नुक़सान हुआ हो। अमित शाह न्यूज़ चैनल टाइम्स नाउ के एक कार्यक्रम में चुनाव प्रचार के दौरान दिए गए नफ़रती भाषणों पर पूछे गए सवालों का जवाब दे रहे थे (ख़बर पढ़ें)।
ध्यान दीजिए, अमित शाह यह नहीं कह रहे हैं कि पार्टी को अपशब्दों के कारण नुक़सान हुआ है। वे कह रहे हैं, संभव है नुक़सान हुआ हो। यानी वह ख़ुद भी संशय में हैं कि अपशब्दों का पार्टी को लाभ हुआ है, नुक़सान हुआ है या कोई असर नहीं हुआ है।
संशय इसलिए कि पार्टी के बड़े तबक़े का मानना है कि यदि बीजेपी इन चुनावों में इतनी आक्रामक नहीं हुई होती और उसके नेताओं ने इतनी गंदी भाषा का प्रयोग नहीं किया होता तो उसका और भी बुरा हाल होता। यानी जो 38% वोट और 8 सीटें मिली हैं, वे भी नहीं मिली होतीं।
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इस दौरान आम आदमी पार्टी (आप) के समर्थन का उतार-चढ़ाव कैसा रहा, इस पर भी नज़र डालते हैं। 53% लोगों के शुरूआती समर्थन से आरंभ होकर उसका ग्राफ़ अंत तक आते-आते 45% तक गिर गया (देखें चित्र 2)। यानी 8% वोटर जो शुरू में ‘आप’ को वोट देने का मन बनाए हुए थे, मतदान का दिन क़रीब आते-आते उनका मन बदल गया। लेकिन मन बदलने के बाद उन्होंने किया क्या? क्या उन्होंने वोट नहीं दिया? या उन्होंने बीजेपी को वोट दे दिया?
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अगर ‘आप’ के समर्थन में आई इस गिरावट की तुलना इन्हीं आख़िरी तीन हफ़्तों में बीजेपी के समर्थन में हुई 10% से भी ज़्यादा की बढ़ोतरी से करें तो यही लगता है कि बीजेपी के धुआँधार प्रचार के कारण ‘आप’ के कई समर्थक आख़िर में बीजेपी के पक्ष में हो गए। यानी बीजेपी के आक्रामक और गंदे प्रचार का पार्टी को नुक़सान नहीं, फ़ायदा हुआ है।
यहाँ एक महत्वपूर्ण सवाल पूछा जा सकता है कि अगर मतदान से दो दिन पहले ‘आप’ का समर्थन घटकर 44% तक आ गया था तो वास्तविक मतदान में उसे 54% वोट कैसे मिले? क्या इसका मतलब यह है कि सी-वोटर का लाइव ट्रैकर गड़बड़ है या अंतिम दिनों में उसमें कुछ ‘चतुराई’ की गई थी ताकि दोनों दलों के बीच फ़ासला कम करके दिखाया जा सके?
अगर हम अनिश्चित यानी डाँवाँडोल मतदाताओं के हिस्से पर ध्यान दें तो ऐसी आशंका निराधार प्रतीत होती है। लाइव ट्रैकर के अनुसार नवंबर, 19 में यह आंकड़ा 12% था जो बीच में बढ़ता-घटता रहा और मतदान से दो दिन पहले वापस इसी के आसपास आ गया।
अर्थात मतदान से दो-तीन दिन पहले भी 12% मतदाता ऐसे थे जो तय नहीं कर पा रहे थे कि बीजेपी को वोट दें या ‘आप’ को। ऐसे लोगों में से कई ने या तो वोट ही नहीं दिया होगा या फिर दोनों में से किसी एक पार्टी को वोट दिया होगा। आख़िर किसको वोट दिया इन अनिश्चित वोटरों ने?
वोटिंग के दिन ‘आप’ के समर्थन में पड़े 54% वोटों से तो यही लगता है कि यही वह अनिश्चित मतदाता हैं जिन्होंने वोटिंग के दिन ‘आप’ को वोट दे दिया और उसका समर्थन 44% से बढ़ाकर 54% कर दिया।
‘आप’ के साथ क्यों गए अनिश्चित वोटर?
अब सवाल उठता है कि वोटिंग के दिन 12% अनिश्चित वोटरों का विशाल हिस्सा ‘आप’ के पक्ष में ही क्यों गया, बीजेपी के पक्ष में क्यों नहीं? क्या इसलिए कि बीजेपी केजरीवाल को आतंकवादी बता रही थी, उसके मंत्री गद्दारों के नाम पर विरोधियों को गोली मारने का नारा लगवा रहे थे और ‘आप’ और पाकिस्तान का रिश्ता जोड़ रहे थे? क्या यह अनिश्चित मतदाता बीजेपी की इस गंदी राजनीति से उखड़ गया था? अगर इस सवाल का जवाब ‘हाँ’ है, तभी हम कह सकते हैं कि बीजेपी को इस रणनीति से नुक़सान हुआ है।
देखें, लाइव ट्रैकर इस सवाल का क्या जवाब देता है। ट्रैकर के अनुसार मतदान से कुछ दिन पहले भले ही ‘आप’ को वोट देने की इच्छा रखने वाले मतदाता घटकर 44% ही रह गए हों लेकिन केजरीवाल को सीएम बनाने की चाहत रखने वालों की संख्या 58% थी (देखें चित्र 3)। यह वही संख्या थी जो दूसरे ओपिनियन पोलों में भी आ रही थी। यानी ‘आप’ की लोकप्रियता भले 44% रही हो, केजरीवाल की निजी लोकप्रियता मतदान के निकट के दिनों में भी 58% थी।
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केजरीवाल को बनाना चाहते थे सीएम
इसका क्या मतलब हुआ? इसका मतलब यह हुआ कि ये 12% अनिश्चित लोग जो तय नहीं कर पा रहे थे कि ‘आप’ को वोट दें या बीजेपी को क्योंकि उनकी निगाह में दोनों पार्टियाँ एक जैसी अच्छी या बुरी थीं, वे मुख्यमंत्री के तौर पर केजरीवाल को ही पसंद करते थे और चाहते थे कि वही दुबारा मुख्यमंत्री बनें। केजरीवाल को सीएम बनाने की इस ख़्वाहिश के कारण ही इन अनिश्चित लोगों ने बेमन से ही सही, अंत तक आते-आते ‘आप’ को वोट दे दिया और इस वजह से उसका वोट प्रतिशत 44 से बढ़कर 54 हो गया।
यानी हम कह सकते हैं कि जो अनिश्चित मतदाता था, वह ‘आप’ का समर्थक न होने के बावजूद केजरीवाल का समर्थक था। बीजेपी ने केजरीवाल को बुरा-भला कहकर ऐसे वोटरों को अपने पक्ष में मोड़ने की कोशिश की लेकिन परिणामों से लगता है कि उसकी गाली-गलौज की राजनीति का अनिश्चित मतदाताओं पर कोई असर नहीं हुआ।
दूसरे शब्दों में कहें तो बीजेपी को इससे फ़ायदा नहीं हुआ। लेकिन ‘फ़ायदा नहीं हुआ’ का वही मतलब नहीं होता जो ‘नुक़सान हुआ’ का होता है। यदि बीजेपी की गाली-गलौज की राजनीति के कारण पार्टी का अपना वोटर - वह वोटर जो पहले बीजेपी को वोट देना चाहता था - बदल जाता, तब कहा जाता कि इससे बीजेपी को नुक़सान हुआ है लेकिन वैसा हुआ हो, ऐसा तो लगता नहीं है।
बल्कि जैसा कि हमने ऊपर देखा - बीजेपी की इसी हमलावर राजनीति के चलते उसका वोट प्रतिशत 23% से बढ़कर मतदान के दिन 38% हो गया। तो फिर यह कैसे कहा जाए सकता है कि नफ़रती भाषणों से बीजेपी को नुक़सान हुआ है?
सच्चाई यह है कि 1993 के बाद यह पहली बार है कि बीजेपी को दिल्ली के विधानसभा चुनावों में 40% के आसपास वोट मिले हों (देखें चित्र 4)। लोकसभा चुनावों में तो वह कई बार 50% के पार भी गई है लेकिन विधानसभा चुनावों में उसका जन-समर्थन 2008 में अधिकतम 36% तक गया था। इस बार का आँकड़ा उससे 3% ज़्यादा है।
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निष्कर्ष यह है कि बीजेपी यह चुनाव अपने नफ़रती भाषणों से नहीं हारी। वह इसलिए हारी है कि केजरीवाल दिल्ली के लोगों के बीच यह संदेश पहुँचाने में कामयाब रहे कि उनकी नीयत ठीक है, उन्होंने आम जनता के हित में अच्छा काम किया है और वे आगे भी ऐसा ही काम करना चाहते हैं, कर सकते हैं।
बीजेपी के पास यह साबित करने का कोई उपाय नहीं था कि केजरीवाल भ्रष्ट हैं या उन्होंने कोई काम नहीं किया है। लोग जानते हैं कि चुनावों में जो वादे किए जाते हैं, वे कभी 100% पूरे नहीं होते। यदि 25% भी काम हुआ हो और उनको लगे कि बंदे की नीयत साफ़ है तो वे उसको एक दूसरा मौक़ा देने को तैयार हो जाते हैं। हमने यह बात लोकसभा चुनाव में देखी है जब करोड़ों लोगों के जीवन में ‘अच्छे दिन’ नहीं आने के बावजूद भारतीय वोटरों ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को एक और मौक़ा दिया। जो बात तब मोदी के पक्ष में गई, वही बात दिल्ली विधानसभा चुनाव में केजरीवाल के पक्ष में गई है। नफ़रती भाषण होते या नहीं होते, केजरीवाल को जीतना ही था।
यही वजह है कि अमित शाह पक्के तौर पर नहीं मान रहे हैं कि नफ़रती भाषणों से पार्टी को नुक़सान हुआ है क्योंकि शाह जानते हैं कि इन्हीं भाषणों ने पार्टी को दिल्ली के विधानसभा चुनावों में 1993 के बाद सबसे ज़्यादा वोट दिलाए हैं। इसलिए आप यह मत सोचिए कि अमित शाह के इस बयान के बाद बीजेपी नेताओं के नफ़रती बोल बंद हो जाएँगे। बल्कि बहुत संभव है कि उनके बोल पहले से भी ज़्यादा ज़हरीले हो जाएँ।
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