दिल्ली के विधानसभा चुनाव में आम आदमी पार्टी (आप) की भारी जीत हुई है। माना जा रहा है कि इस जीत का मुख्य कारण पिछली सरकार का अच्छा कामकाज रहा है जिसकी वजह से बीजेपी की सांप्रदायिकता की राजनीति - यानी हिंदुओं और मुसलमानों को बाँटने की रणनीति की हार हुई।
दिल्ली: मुसलमानों का ‘आप’ को एकमुश्त वोट देना क्या सांप्रदायिक राजनीति है?
- विचार
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- 12 Feb, 2020

बीजेपी को अगर हिंदुत्व के नाम पर वोट मांगने के कारण सांप्रदायिक पार्टी कहा जाता है तो जो दल मुसलमानों के एकमुश्त वोट माँगते, चाहते या पाते हैं, उन दलों को भी सांप्रदायिक पार्टी क्यों नहीं माना जाना चाहिए? इस सवाल का जवाब हमें भारत के भीतर और बाहर रहने वाले धार्मिक, भाषाई और नस्लीय अल्पसंख्यकों के तक़रीबन एक जैसे व्यवहार को समझने से ही मिलेगा।
चुनाव परिणामों और उसके पहले के ट्रेंड से यह भी स्पष्ट है कि मुसलमानों ने 'आप' को एकमुश्त वोट दिया है। दिल्ली में मुसलमानों का जो वोट पहले कांग्रेस को जाता था, वह इस बार 'आप' को गया है। वजह यह नहीं है कि दिल्ली के मुसलमान कांग्रेस से नाराज़ हैं। वजह यह है कि वे जानते थे कि दिल्ली में कांग्रेस के मुक़ाबले 'आप' के जीतने की कहीं ज़्यादा संभावना है और ऐसी हालत में कांग्रेस को वोट देने से 'आप' को मिलने वाले वोट कम होते और अंततः बीजेपी को ही लाभ पहुँचता। वे बीजेपी को किसी भी सूरत में विजयी देखना नहीं चाहते थे।
यहाँ एक सवाल पूछा जा सकता है। हम जानते हैं कि बीजेपी हिंदुत्व के नाम पर वोट माँगती है और बड़ी संख्या में हिंदू उसे केवल इसीलिए वोट देते हैं कि वह हिंदुओं के हितों की बात करती है और इसीलिए उसे सांप्रदायिक पार्टी कहा जाता है। ऐसे में जब मुसलमान अपने हितों की रक्षा करने वाली किसी पार्टी को एकमुश्त वोट देते हैं तो उस पार्टी को सांप्रदायिक क्यों नहीं माना जाए?
नीरेंद्र नागर सत्यहिंदी.कॉम के पूर्व संपादक हैं। इससे पहले वे नवभारतटाइम्स.कॉम में संपादक और आज तक टीवी चैनल में सीनियर प्रड्यूसर रह चुके हैं। 35 साल से पत्रकारिता के पेशे से जुड़े नीरेंद्र लेखन को इसका ज़रूरी हिस्सा मानते हैं। वे देश