राष्ट्रविरोधी और राजद्रोह शब्द आजकल गाजर-मूली की तरह इस्तेमाल हो रहे हैं और राजनीतिक कारणों से कोई भी किसी को ऐसे आरोपों में फँसा सकता है।
यह बात हम नहीं कह रहे। यह बात गत सप्ताह सुप्रीम कोर्ट के एक जज ने कही है और उनकी बात को सच साबित करते हुए, एक तरह से सुप्रीम कोर्ट को मुँह चिढ़ाते हुए, मुंबई पुलिस ने सोमवार को एक जुलूस में भाग ले रहे 51 लोगों पर राजद्रोह का आरोप लगा दिया। उनका अपराध यह था कि उन्होंने राजद्रोह का आरोप झेल रहे शरजील इमाम के पक्ष में नारे लगाए थे।
शरजील इमाम पर देश के कई राज्यों में राजद्रोह का मामला दर्ज किया गया है और यह तो वक़्त ही बताएगा कि यह आरोप उनपर साबित होता है या नहीं। लेकिन जिन लोगों ने उनके पक्ष में नारे लगाए थे, उनके ख़िलाफ़ तो राजद्रोह का मामला बनता ही नहीं है।
सुप्रीम कोर्ट कई बार कह चुका है कि नारे लगाने से राजद्रोह नहीं होता। राजद्रोह तभी होता है जब कोई क़ानून द्वारा चुनी हुई सरकार को गिराने के लिए हिंसा का सहारा ले या हिंसा का सहारा लेने के लिए प्रेरित करे। संक्षेप में - जहाँ हिंसा नहीं, वहाँ राजद्रोह नहीं। छोटी-सी बात है। लेकिन न पुलिस समझने को तैयार है, न ही शासक दल। या फिर जैसा कि लगता है, वे समझ रहे हैं लेकिन नहीं समझने का नाटक कर रहे हैं।
नाटक से याद आया। मुंबई से पहले कर्नाटक में बच्चों द्वारा खेले गए एक नाटक के आधार पर एक बच्चे की माँ और स्कूल की प्रधान अध्यापिका को भी राजद्रोह के आरोप में गिरफ़्तार कर लिया गया है। नाटक नागरिकता संशोधन क़ानून और राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर पर था और पुलिस की टीम अब तक चार बार बच्चों से पूछताछ कर चुकी है।
21 जनवरी को खेले गए इस नाटक में कुछ राजनीतिक संवाद थे जैसे एक पात्र ने कहा कि ‘एनआरसी के तहत अगर कोई उससे काग़ज़ात माँगने आया तो वह उसे चप्पल से पीटेगी।’ दूसरे बच्चों ने कहा कि ‘वे अपनी नागरिकता साबित करने के लिए कोई काग़ज़ात नहीं दिखाएँगे।’
अब इन संवादों में ऐसा क्या है जो रोज़ अख़बारों में नहीं आ रहा? कई नेता और मशहूर हस्तियाँ यही बात कह चुके हैं। किसी के ख़िलाफ़ कोई राजद्रोह का मामला नहीं बना। लेकिन कर्नाटक में चूँकि बीजेपी की सरकार है इसलिए जब एक एक्टिविस्ट ने शिकायत कर दी कि इस नाटक में ऐसे संवाद हैं जिनसे प्रधानमंत्री मोदी का अपमान होता है तो पुलिस ने उसकी शिकायत पर एफ़आईआर दर्ज कर दी और एक बच्चे की माँ और प्रधान अध्यापिका पर राजद्रोह का आरोप जड़ दिया।
हम नहीं जानते कि वह कौन-सा संवाद है जिसके आधार पर कहा जा रहा है कि उससे मोदी जी का अपमान हो रहा है। लेकिन यदि नाटक में कोई ऐसा संवाद था तो भी राजद्रोह का मुक़दमा नहीं बन सकता। सरकार का विरोध करना राजद्रोह नहीं है, प्रधानमंत्री का अपमान करना भी राजद्रोह नहीं है। ख़ुद सुप्रीम कोर्ट इन बातों को पानी की तरह साफ़ कर चुका है।
राजद्रोह का क़ानून अंग्रेज़ों के ज़माने में बना था ताकि भारतीयों की आवाज़ को दबाया जा सके और इसीलिए उसमें लिखा गया था कि 'सरकार के प्रति नफ़रत पैदा करने वाली’ किसी भी बात या हरकत के लिए राजद्रोह का मामला दायर किया जा सकता है।
आज़ादी के बाद भी इस क़ानून को हटाया नहीं गया। उधर ब्रिटिश सरकार ने 2009 में अपने देश से इस क़ानून को हटा दिया है लेकिन भारत में वह आज भी चल रहा है और सुप्रीम कोर्ट द्वारा स्पष्ट किए जाने के बाद भी काले अंग्रेज़ ‘सरकार के ख़िलाफ़ नफ़रत पैदा करने' वाले अंश के आधार पर उसका बराबर दुरुपयोग कर रहे हैं।
आइए, जानते हैं, सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले पर क्या कहा है। दो मामले हैं। एक है केदारनाथ सिंह बनाम बिहार राज्य (1962) और दूसरा है 1995 में देशविरोधी और अलगाववादी नारों के मामले में सुप्रीम कोर्ट का फ़ैसला।
- 1. केदारनाथ सिंह निर्णय में सुप्रीम कोर्ट ने साफ़ किया है कि 124 (क) के तहत किसी के ख़िलाफ़ राजद्रोह का मामला तभी बनता है जबकि किसी ने सरकार के ख़िलाफ़ हिंसा की हो या हिंसा के लिए उकसाया हो (फ़ैसला पढ़ें)।
- 2. 1995 का फ़ैसला था उन दो लोगों के बारे में जिनपर आरोप था कि उन्होंने 1984 में इंदिरा गाँधी की हत्या के बाद खालिस्तान ज़िंदाबाद और हिंदुस्तान मुर्दाबाद के नारे लगाए थे। कोर्ट ने अपने फ़ैसले में कहा था कि केवल नारे लगाने से राजद्रोह का मामला नहीं बनता क्योंकि उससे सरकार को कोई ख़तरा पैदा नहीं होता (फ़ैसला पढ़ें)।
पुलिस ऐसा क्यों कर रही है?
ऐसा नहीं हो सकता कि देश के बड़े-बड़े पुलिस प्रमुखों ने ये फ़ैसले न पढ़े हों। वे जानते हैं कि सुप्रीम कोर्ट के निर्णयों को देखते हुए ऐसे किसी भी मामले में राजद्रोह का आरोप कभी साबित नहीं हो पाएगा जिनमें हिंसा का तत्व नहीं है। लेकिन उनका मक़सद किसी को सज़ा दिलाना नहीं है। उनका मक़सद अपने राजनीतिक आकाओं के आदेशानुसार विरोधियों को परेशान करना है। वे यही कर रहे हैं।
अफ़सोस केवल इस बात का है कि सुप्रीम कोर्ट इन सबको देखते हुए भी कोई कारगर क़दम नहीं उठा रहा है। वह ऐसा आदेश नहीं दे रहा कि यदि किसी पुलिसकर्मी ने ऐसे किसी भी मामले में राजद्रोह का मामला दायर किया जिसमें हिंसा करने या हिंसा भड़काने का तत्व न हो तो उस पुलिसकर्मी को तत्काल निलंबित कर दिया जाए। अगर ऐसा आदेश आए तो कोई भी पुलिसकर्मी या पुलिस अधिकारी अपने सरकारी आकाओं का हुक्म मानने के चक्कर में अपनी नौकरी को दाँव पर नहीं लगाएगा।
लेकिन सुप्रीम कोर्ट ऐसा कुछ नहीं कर रहा है। वह खाट पर लेटे दादाजी की तरह कभी-कभार कुछ टिप्पणी भर कर देता है जैसे कि पिछले सप्ताह की। उधर पुलिस भी उद्दंड बच्चों की तरह उसकी बातों को अनसुना करते हुए जिसके ख़िलाफ़ चाहे राजद्रोह का मामला दर्ज कर देती है।
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