राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण-5 (2019-21) के आंकड़ों के अनुसार, भारत में 95% से अधिक विवाहित महिलाएं,जो यौन हिंसा से गुजर चुकी हैं, उन्होंने अपने पति/पूर्व पति को अपराधी के रूप में पहचाना है। लगभग 18% विवाहित महिलाओं ने कहा कि वे अपने पति को शारीरिक संबंध बनाने के लिए 'न' नहीं कह सकतीं, भले ही ऐसा करने की उनकी इच्छा न हो। लगभग 20% पतियों ने यह बात स्वीकार की है कि उनकी पत्नियों द्वारा शारीरिक संबंध बनाने से मना करने पर वो उन पर गुस्सा दिखाते और फटकारते हैं। जबकि लगभग 13%पतियों ने कहा कि वो ऐसी स्थितियों में वित्तीय सहायता करने से इनकार कर देंगे। पुरुषों द्वारा किए जाने वाले इस व्यवहार की वजह यह है कि 92% विवाहित पुरुषों की तुलना में केवल 27% विवाहित महिलाओं के पास ही रोजगार है। शायद इसलिए ही इस तरह की धमकियां महिलाओं को यौन हिंसा सहने के लिए मजबूर करती हैं।
भारत सरकार के स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय द्वारा किए जाने वाले इस सर्वेक्षण (NFHS-5) के चौंकाने वाले आँकड़े कहते हैं कि- जो महिलायें विवाहित हैं और जिन्होंने यौन हिंसा का अनुभव किया है उनमें से 84% महिलाओं ने कहा कि उनके पतियों ने "शारीरिक रूप से उन्हे उसके साथ यौन संबंध बनाने के लिए मजबूर किया, जबकि वह ऐसा नहीं चाहती थी"। आश्चर्य की बात तो यह है कि 5 साल बाद भी इस मामले में NFHS-4(2015-16) की तुलना में कोई खास सुधार देखने को नहीं मिलता।
3 मार्च 2002 को गुजरात के छप्परबाड़ में 20-30 लोगों के एक हथियारबंद झुंड ने बिलकिस बानो, उसकी माँ और उसके परिवार की तीन अन्य महिलाओं के साथ सामूहिक बलात्कार किया। कायरों का यह समूह यहीं नहीं रुका उसने बिलकिस की महज साढ़े तीन साल की बच्ची को जमीन में पटककर मार डाला। जब बिलकिस बानो का बलात्कार हुआ उस समय 21 साल की बिलकिस 5 महीने की गर्भवती थी। अदालत ने कायरों के इस नृशंस समूह के 11 लोगों को हत्या और बलात्कार का दोषी ठहराते हुए उम्र कैद की सजा दी। लेकिन भारत के स्वतंत्रता दिवस 15 अगस्त, 2022 के दिन इन अपराधियों को सरकार ने ‘नियमों के दायरे’ में रहकर छोड़ दिया।
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अपराध केवल इस आधार पर किया गया था कि पीड़ित एक विशेष धर्म के हैं... यहां तक कि नाबालिग बच्चों और एक गर्भवती महिला को भी नहीं बख्शा गया। यह घृणा-अपराध, मानवता के खिलाफ अपराध का सबसे खराब रूप है'।
-आनंद एल यावलकर, विशेष न्यायधीश (सीबीआई), ग्रेटर बॉम्बे
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मानवता के खिलाफ अपराध करने वाले इन अपराधियों के साथ तो कानून, प्रशासन और सरकार खड़ी दिखी लेकिन बिलकिस अकेले ही रही।
जब NFHS के आंकड़ों में 83% पतियों को यौन हिंसा का दोषी मानने वाली महिलाओं के साथ न्याय नहीं हो पा रहा है तब बिलकिस को न्याय कैसे मिलेगा? मैं तो यौन हिंसा का सामना करने वाली और न्याय न पाने वाली पत्नियों को ‘घरेलू-बिलकिस’ कहूँगी। इन 83% पतियों में पुलिस, न्यायाधीश, वकील, मंत्री, विधायक सभी शामिल हो सकते हैं। ऐसे में न्याय कौन देगा?शायद कोई नहीं! यही कारण है कि NFHS के आंकड़ों में यौन हिंसा सहने वाली महिलाओं में से 90% से अधिक ने किसी से मदद नहीं मांगी। ऐसा करने वालों में से किसी ने भी कानूनी सहारा लेने के लिए किसी वकील से संपर्क नहीं किया। अगर मदद की ज्यादा जरूरत पड़ी 70% से अधिक ने बेहद संकुचित संस्थाओं, अपने परिवार या पति के परिवार से मदद ली।
इन महिलाओं ने बाहर किसी से मदद क्यों नहीं ली? आँकड़ें कहते हैं कि मदद लेने के लिए पर्याप्त लैंगिक समानता है ही नहीं! हाईकोर्टों में महिला न्यायाधीशों का प्रतिशत मात्र 11.5% है, जबकि सुप्रीम कोर्ट में 33 में से मात्र चार महिला न्यायाधीश कार्यरत हैं।देश में महिला वकीलों की स्थिति भी बेहतर नहीं है। पंजीकृत 17 लाख अधिवक्ताओं में से केवल 15% महिलाएं हैं।
अंतर-संसदीय संघ(Inter Parliamentary Union),जिसमें भारत एक सदस्य है, द्वारा संकलित आंकड़ों के अनुसार, महिलाएं लोकसभा के कुल सदस्यों का 14.44% प्रतिनिधित्व करती हैं। लोकसभा में महिला सांसदों की हिस्सेदारी जून 2019 तक 14.39% के शिखर पर होने के बावजूद, संसद में महिलाओं के प्रतिनिधित्व में भारत अभी भी 140 देशों से भी बदतर है। यदि 2019 के लोकसभा चुनावों को छोड़ दें तो आजादी के पिछले 75 सालों में लोकसभा में महिलाओं का प्रतिनिधित्व 10 फीसदी तक नहीं पहुँचा है।
भारत के चुनाव आयोग (ईसीआई) के नवीनतम के आंकड़ों के अनुसार- अक्टूबर 2021 तक, महिलाएं संसद(लोकसभा और राज्य सभा) के कुल सदस्यों का 10.5% प्रतिनिधित्व करती हैं।भारत में सभी राज्य विधानसभाओं में विधानसभाओं की महिला सदस्यों (विधायकों) के लिए परिदृश्य और भी खराब है। राष्ट्रीय स्तर पर विधानसभाओं में महिला प्रतिनिधित्व का औसत 9%है जोकि दयनीय है।2008-2018 के बीच राज्य विधानसभाओं में महिला विधायकों की औसत हिस्सेदारीकेवल नौ राज्यों की विधानसभाओं में औसतन 10% से अधिक थीजबकि अन्य सभी राज्यों में इससे भी कम।
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जब सुप्रीम कोर्ट के 88% न्यायाधीश पुरुष हैं (और अब तक कोई भी महिला मुख्य न्यायाधीश नहीं), हाईकोर्टों में 89% न्यायाधीश पुरुष हैं, 85% वकील पुरुष हैं, 90% संसद सदस्य पुरुष हैं, राज्य विधानसभाओं के 90% विधायक पुरुष हैं, 90% पुलिसकर्मी पुरुष हैं, ऐसे में देश की लाखों करोड़ों बिलकिस बानो के साथ न्याय कौन करेगा?
यह सिर्फ इत्तेफाक नहीं है कि बिलकिस बानो के अपराधी सरकार द्वारा बिना किसी भय के छोड़ दिए जाते हैं; बलात्कार और हत्या के आरोप में जेल में बंद एक ठग, बाबा राम रहीम, समय समय पर पैरोल पर छोड़ दिया जाता है; उत्तर प्रदेश के उच्च न्यायालय में न्यायाधीश बलात्कार के आरोपियों को सिर्फ इसलिए बेल पर छोड़ रहे हैं क्योंकि आरोपी बलात्कार पीड़िता के साथ शादी के लिए तैयार है और बलात्कारी द्वारा किए गए वहशीपन की वजह से पीड़िता गर्भवती हो गई है।
क्यों भाजपा की गुजरात, हरियाणा और केंद्र सरकार को इस बात का भय नहीं लगता कि देश की सभी महिलाओं को एक महिला के साथ हुआ यह बर्ताव खराब लग सकता है और हो सकता है कि सभी महिलायें मिलकर इस सरकार को न राज्यों में वोट दें न ही 2024 के आम चुनावों में? क्यों उच्च न्यायालय के माननीय न्यायधीश न्याय के मूल प्रश्न से भटककर सामाजिक रूढ़ियों के आधार पर जमानत दे रहे हैं? क्या एक बलात्कार पीड़ित महिला की मजबूरी उसके साथ मनमाना न्याय करने का लाइसेंस है?
वकीलों, न्यायविदों और न्यायाधीशों के लिए बलात्कार कानून की एक ‘धारा’ हो सकती है जिसका स्थान भारतीय दंड संहिता (IPC) में है और जिसके अपराधी की सजा का प्रावधान भी एक ‘धारा’ ही है जिसका स्थान दंड प्रक्रिया संहिता (CrPC) में स्थित है, लेकिन बलात्कार पीड़ित के लिए यह ‘धारा’ नहीं न्याय का प्रश्न है। न्याय जिसमें पीड़िता की आत्मा को चोटिल करने वाले के लिए पैरोल जैसी अवधारणा स्वयं में एक अपराध बन जाए।
एक ‘धारा’ के बलबूते सड़कों में खुले आम घूमता बलात्कारी देश की 50% आबादी की आत्मा को चोटिल कर सकता है लेकिन चूंकि उसका प्रतिरोध सड़कों और EVMमशीनों तक नहीं पहुंचता, उसका प्रतिनिधित्व संस्थाओं तक नहीं पहुंचता इसलिए उसे अनसुना करना आसान हो चुका है।
वास्तव में बलात्कार एक अपराध है जिसकी जिम्मेदारी सरकार, पुलिस व प्रशासन को उठानी चाहिए। प्रत्येक बलात्कार पीड़िता को उचित व शीघ्र न्याय के साथ सम्मानजनक जीवन जीने का अधिकार है और यह दायित्व सरकार का है जिसे न्यायपालिकाओं द्वारा सुनिश्चित किया जाना चाहिए। क्या यह बात सरकार और न्यायपालिका समझ पाएगी कि बलात्कार के बाद उत्पन्न स्थितियों में जीवन को कैसे समेटा जाए? क्या यह लोग इस बात को समझ पाएंगे कि बलात्कार पीड़ित को मिलने वाला न्याय ही उसका असली मलहम है? क्या यह समझना कठिन है कि जब किसी बलात्कार के आरोपी को जमानत पर रिहा किया जाता है तब पीड़िता उसी समय खुद से खुद के अंदर कैद होने लगती है?
प्रधानमंत्री से लेकर सत्तारूढ दल के सभी सांसद बिलकिस मामले को लेकर चुप हैं, सत्तारूढ दल की गिनी चुनी महिला सांसद जो अन्य मामलों में बोलते बोलते हांफने लगती थीं वह इस मामले को लेकर रुई लगाकर बैठ गई हैं, पीड़ा और घुटन से भरे इस बलात्कार नाम के अपराध का राजनीतिकरण कर दिया गया है। हर रोज किसी नई बिलकिस बानो को अखबार के पन्नों में देखा जा सकता है लेकिन सरकार ‘राजनैतिक सुविधा’ देखकर ही ‘ऐक्शन’ लेती है।
यह एक असफल राजनैतिक व्यवस्था है, एक असफल कानून व्यवस्था है और यदि सही शब्दों में कहें तो यह एक पूर्ण रूप से असफल समाज है जिसमें बिलकिस बानो सिर्फ इसलिए प्रताड़ना झेल रही है क्योंकि वह एक अलग धर्म की है और जिसको न्याय मिलना ‘सत्ता-समीकरणों’ से मेल नहीं खा पा रहा है। बिलकिस के साथ जो हुआ वह राष्ट्रीय शर्म का विषय है। इसे आजाद भारत में कभी घटित नहीं होना चाहिए था।
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