बहुत मुश्किल से देश के लगभग 300 लोगों ने लगभग 3 सालों तक एक साझे दस्तावेज के लिए सैकड़ों घंटों बहस की, तब जाकर भारत के संविधान ने आकार लिया। तब जाकर यह सुनिश्चित हुआ कि भारत तमाम अलग-अलग विचारधाराओं, भाषाओं, बोलियों और धर्मों के बावजूद अखंड और एकीकृत रहेगा। एक विशाल क्षेत्रफल में फैले भारत को एकीकृत रखने के लिए फौज नहीं संवाद की आवश्यकता थी। शुरुआती सरकारों और नेताओं ने इस संवाद को बनाए रखा।
सरकारिया कमीशन(1983) और पुंछी कमीशन(2007) ने केंद्र राज्य संबंधों को लेकर तमाम अनुशंषाएँ दीं जिनसे केंद्र और राज्य के बीच संबंध बेहतर हो सके। लेकिन हाल के दिनों में केंद्र द्वारा राज्यों से संवाद की जगह तनाव की पद्धति अपनाई जा रही है। पहले बंगाल की चुनी हुई सरकार के खिलाफ तत्कालीन राज्यपाल जगदीप धनखड़हस्तक्षेप करते दिखते थे और अब केरल के राज्यपाल अपने प्रदेश की चुनी हुई सरकार के कार्यों में हस्तक्षेप करते दिख रहे हैं। बंगाल के पूर्व राज्यपाल को तो भारत का नया उप राष्ट्रपति चुन लिया गया है लेकिन लगता है महामहिम राज्यपाल आरिफ मोहम्मद खान अभी भी अपने पद की गरिमा को संरक्षित नहीं कर पा रहे हैं। अभी दो दिनों पहले राज्यपाल ने केरल के मुख्यमंत्री पिनराई विजयन को पत्र लिखकर कहा कि, मैं राज्य के वित्त मंत्री के.एन. बालगोपाल के प्रति अपनी प्रसादपर्यंतता बंद करता हूँ; इन्हे इनके पद से तत्काल मुक्त किया जाए। इसके पहले महामहिम राज्यपाल प्रदेश के 9 विश्वविद्यालयों के उप-कुलपतियों को उनके पद से हटाने के लिए आदेश दे चुके हैं, जिस पर केरल उच्च न्यायालय ने रोक लगाते हुए बिना प्रक्रिया का पालन किए हटाने से मना कर दिया।
लोकसभा के पूर्व महासचिव पीडीटी आचारी का मत है कि कोई राज्यपाल मुख्यमंत्री की सलाह पर ही ऐसा फैसला ले सकता है। सिर्फ मंत्रिपरिषद के प्रमुख, मुख्यमंत्री, की सलाह पर ही राज्यपाल किसी मंत्री को उसके पद से मुक्त कर सकता है अन्यथा नहीं। चूंकि राज्यपाल सरकारी विश्वविद्यालयों का कुलपति होता है इस हैसियत से उन्होंने 9 उप-कुलपतियों की नियुक्तियों को लेकर केरल सरकार पर प्रश्न उठाना शुरू किया। विवाद इस मोड़ पर आ गया कि केंद्र राज्य संबंध दांव पर लग गए हैं। जिस तरह वो राज्य के मंत्रियों के इस्तीफे मांग रहे हैं यह उनके पद की गरिमा के खिलाफ है। एक चुनी हुई सरकार के खिलाफ वो तब तक कुछ नहीं कर सकते जब तक वह, यह साबित न कर दें कि राज्य में चल रही सरकार संवैधानिक तौर-तरीकों से नहीं चल रही है और इसलिए राज्य में राष्ट्रपति शासन लागू किया जाए। उन्हें सरकारिया कमीशन की उस अनुशंसा को ध्यान से पढ़ना चाहिए, जो कि अब संवैधानिक नियम बन चुका है, कि “राज्यपाल तब तक मंत्रिपरिषद को बर्खास्त करने में सक्षम नहीं होना चाहिए जब तक कि उसे राज्य विधानसभा में बहुमत प्राप्त है।”
लगभग यही विचार सुनील कुमार बोस और अन्य बनाम मुख्य सचिव, पश्चिम बंगाल सरकार (1950)के मामले में कलकत्ता उच्च न्यायालय ने भी रखे थे कि मंत्रिपरिषद सर्वोच्च है और राज्यपाल को मंत्रिपरिषद की सलाह के बिना कार्य करने की अनुमति नहीं है। साथ ही उच्च न्यायालय ने यह भी कहा था कि आज के राज्यपाल की स्थिति 1935 के अधिनियम के अंतर्गत आने वाले राज्यपाल की स्थिति से पूरी तरह भिन्न है।
लेकिन 19 सितंबर,2022 में ही आरिफ़ मोहम्मद खान ने प्रेस कॉन्फ्रेंस करके यह इरादा साफ कर दिया था कि वह विश्वविद्यालय के मामलों में "सरकार के हस्तक्षेप" को प्रतिबंधित करने का दृष्टिकोण रखते हैं। साथ ही उन्होंने यह भी कहा कि पिनराई विजयन के नेतृत्व वाली वाम लोकतांत्रिक मोर्चा (LDF) सरकार "हिंसा की विचारधारा" का अनुसरण करने वाली सरकार है। इसके जवाब में विजयन ने भी उन्हे “आरएसएस के इशारे पर कार्य करने वाला” कह डाला। कौन सा राज्यपाल अपने प्रदेश की चुनी हुई सरकार के साथ इस तरह का संवाद करता है? राज्य में संवैधानिक तंत्र की रिपोर्ट तैयार करने वाली संस्था ही यदि सरकार के साथ संवाद मे राजनैतिक खींचतान का स्वरूप पैदा कर देगी तो संविधान की देखरेख किसके हवाले होगी? क्या इन कदमों से राज्यपाल नाम की संस्था का सम्मान बरकरार रहेगा?
संवैधानिक-थकान से तकलीफ सिर्फ महामहिम को ही नहीं बल्कि भारत के कुछ अन्य नेताओं को भी हैं जिन्हे जनता ने वोट देकर संवैधानिक पद तक पहुँचाया है। अरविन्द केजरीवाल भारत के उन चंद नेताओं में शामिल होंगे जिन पर जनता ने ‘जल्दी’ और ‘ज्यादा’ विश्वास जताया है लेकिन केजरीवाल जिस दस्तावेज के रास्ते मुख्यमंत्री बने वो उसी दस्तावेज को नुकसान पहुँचा रहे हैं। देश की आकांक्षाओं का यह दस्तावेज ‘भारत का संविधान’ है। यह संविधान जो अपनी आत्मा और स्वरूप दोनों में सेक्युलर है उसे खराब करने की कोशिश अरविन्द केजरीवाल कर रहे हैं।
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केजरीवाल ने यह भी नहीं सोचा कि इस विविधतापूर्ण देश में ऐसे प्रस्ताव के क्या मायने होंगे? तर्क और शिक्षा पर धर्म हावी हो गया। उन्होंने भारत की विविधता को नकार दिया और इस तरह उन्होंने भगत सिंह, अंबेडकर, गाँधी और नेहरू सहित पूरे राष्ट्रीय आंदोलन को ही नकार दिया। चाहे महामहिम राज्यपाल हों या अरविन्द केजरीवाल देश के संविधान की मूल भावना को मानने से उनका अप्रत्यक्ष इंकार संविधान के प्रति उनकी अनास्था और अविश्वास को दर्शाता है।
अंबेडकर की फोटो लगाने और देश को बांटने वाली राजनीति में डॉक्टरेट करने से बेहतर होता कि संवैधानिक पदों पर बैठे लोग अंबेडकर को पढ़ते। देश की एकता, अखंडता और संविधान की आवश्यकता के बीच संबंधों को समझाते हुए अंबेडकर ने कहा था कि “संविधान को समाज सुधार के एक उपकरण के रूप में इस्तेमाल किया जाना चाहिए। यह विभिन्न वर्गों के बीच की खाई को बराबर करने में मदद करेगा। संविधान सामाजिक एकजुटता और राष्ट्रीय एकता के लिए एक आवश्यक दस्तावेज है।”
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