होली, बनारस, शिव, मस्ती, भंग, तरंग और ठण्डाई ये असम्पृक्त हैं। इन्हें अलगाया नहीं जा सकता। ये उतना ही सच है जितना ‘ब्रह्म सत्य जगत मिथ्या।’ बनारस की होली के आगे सब मिथ्या लगता है। आज भी लगता है कि असली होली उन शहरों में हुआ करती थी जिन्हें हम पीछे छोड़ आए हैं। ऐसी रंग और उमंग की होली जहॉं सब इकट्ठा होते, खुशियों के रंग बंटते, जहॉं बाबा भी देवर लगते और होली का हुरियाया साहित्य। जिसमें समाज राजनीति और रिश्ते पर तीखी चोट होती। दुनिया जहान को अपने ठेंगे पर रखते।
बंधनों, कुंठाओं, भीतर जमी भावनाओं को खोलने का ‘सेफ्टी वॉल्व’ है होली!
- विचार
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- 14 Mar, 2025

फाल्गुन शुक्ल पक्ष की एकादशी, रंगभरी एकादशी होती है। होली क्यों सब त्योंहारों से अलग है। पढ़िए 2022 में लिखी हेमंत शर्मा की टिप्पणी।
मुझे यही संस्कार बनारस से मिले हैं। शहर बदला, समय बदला मगर संस्कार कहां बदलते हैं? मैं नोएडा में भी एक बनारस इकट्ठा करने की कोशिशों में लगा रहता हूँ। और साल में एक बार बनारस पूरे मिज़ाज के साथ यहॉं जमा होता है। इस बार (2022 में) की रंगभरी एकादशी पर ऐसा ही हुआ। दोस्त, यार इकट्ठा हुए। उत्सव, मेलजोल, आनंद के लिए। खिलाना पिलाना तो होता ही है। मगर सबसे अहम था कुछ देर के लिए ही सही मित्रों का साथ-साथ होना और साथ-साथ जीना। ऋग्वेद भी कहता है “संगच्छध्वं संवदध्वं सं वो मनासि जानताम।” अर्थात हम सब एक साथ चलें। आपस में संवाद करें। एक दूसरे के मनों को जानते चलें।