होली, बनारस, शिव, मस्ती, भंग, तरंग और ठण्डाई ये असम्पृक्त हैं। इन्हें अलगाया नहीं जा सकता। ये उतना ही सच है जितना ‘ब्रह्म सत्य जगत मिथ्या।’ बनारस की होली के आगे सब मिथ्या लगता है। आज भी लगता है कि असली होली उन शहरों में हुआ करती थी जिन्हें हम पीछे छोड़ आए हैं। ऐसी रंग और उमंग की होली जहॉं सब इकट्ठा होते, खुशियों के रंग बंटते, जहॉं बाबा भी देवर लगते और होली का हुरियाया साहित्य। जिसमें समाज राजनीति और रिश्ते पर तीखी चोट होती। दुनिया जहान को अपने ठेंगे पर रखते।