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राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार और भारत के रक्षा प्रमुख के दो बयानों ने भारत के लोगों को अचानक अत्यंत असुरक्षित कर दिया है। दो रोज़ पहले हैदराबाद की राष्ट्रीय पुलिस अकेडेमी में अपने काम पर जाने को तैयार पुलिस अधिकारियों के प्रशिक्षण के दीक्षांत समारोह के मौक़े पर राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजित डोभाल ने कहा कि युद्ध का नया मोर्चा अब नागरिक समाज है। अंग्रेज़ी में जिसे 'सिविल सोसाइटी' कहते हैं।
उनके मुताबिक़ अब युद्ध बहुत महँगे हो गये हैं। इसलिए पारम्परिक तौर पर उन्हें लड़ना कठिन होता जा रहा है। फिर देश के ख़िलाफ़ जो शक्तियाँ हैं, या जो शत्रु देश हैं, वे अब देश के नागरिक समाज को भरमा कर, अपने अधीन कर के प्रलोभित या विभाजित कर के, उन्हीं के सहारे या उनकी आड़ में देश के विरुद्ध युद्ध करेंगे। इस तरह देश को भीतर से ही तोड़ा जा सकता है। इसलिए देश की रक्षा में अब सेना के साथ पुलिस को भी अतिरिक्त रूप से चौकन्ना रहना पड़ेगा।
इस बयान में, जो कि बिल्कुल नए पुलिस अधिकारियों को एक निर्देश भी है पुलिस और सेना के बीच भेद मिटा दिया गया है। पहले युद्ध सीमाओं पर लड़ा जाता था। शत्रु दूसरे देश का होता था। अब कहा जा रहा है कि वह देश के भीतर लड़ा जाएगा और देश के दुश्मन या उन दुश्मनों के दलाल, देश के भीतर ही हैं और लड़ना अब उनसे है। देश को तोड़ने या कमजोर करने का काम चूँकि विदेशी शक्तियाँ इनके माध्यम से करेंगी या कर रही हैं, इन पर नज़र रखना, इनकी निशानदेही करना अब पुलिस का काम है।
क़ानून व्यवस्था बनाए रखने के उबाऊ काम की जगह देश रक्षा के इस नए दायित्व से पुलिस में उत्तेजना और स्फूर्ति का संचार होना स्वाभाविक है और वह नए जोश के साथ इन देश के शत्रुओं को खोज करके उन्हें इसके पहले कि वे कुछ कर पाएँ, उन्हें निष्क्रिय करने में जुट जाएगी।
अजित डोभाल ने साथ ही एक दूसरी बात कही जिससे हम सबको और भी सावधान हो जाना चाहिए। उन्होंने पुलिस अधिकारियों को समझाया कि जनतंत्र में चुनाव ज्यादा क़ानून का मामला है। लेकिन कानून बन जाना काफी नहीं है। उसे प्रभावी तरीके से लागू करना ज़रूरी है। यह पुलिस के अलावा कौन करेगा? इस निर्देश या सुझाव के अर्थ पर हम आगे बात करेंगे।
पहले यह समझ लें वह नागरिक समाज कौन है जिससे डोभाल साहब ने पुलिस को सावधान किया है और जिसके ख़िलाफ़ सजग और सन्नद्ध रहने का आह्वान किया है? इस नागरिक समाज में तकरीबन वही लोग आते हैं जिन्हें पहली बार सत्ता में आने के बाद प्रधान मंत्री ने फाइव स्टार एक्टिविस्ट कह न्यायाधीशों को उनसे सावधान रहने को कहा था।
शायद आपको याद हो कि प्रधान मंत्री ने देश के न्यायाधीशों को चेताया था कि फ़ैसला देते समय उन्हें खुद को इनसे प्रभावित नहीं होने देना चाहिए। उस समय ग्रीन पीस पर सरकार की तरफ से हमला किया गया था। सबरंग ट्रस्ट, जिसे तीस्ता सीतलवाड़ चलाती हैं, सरकारी दमन का शिकार हुआ। उसके बाद एक के बाद एक कई संगठनों का, वह चाहे अमनेस्टी इंडिया हो या दूसरे संगठन, कानूनी शिकंजे में फँसा कर काम करना असंभव कर दिया गया।
हाल में हर्ष मंदर की संस्था, सेंटर फॉर इक्विटी स्टडीज पर प्रवर्तन निदेशालय का छापा या उनसे जुड़े बाल गृहों पर छापे और लगातार उनकी जांच करके न सिर्फ उन्हें बल्कि इस क्षेत्र में काम करनेवाली दूसरी संस्थाओं को भी डराया गया।
नागरिक समाज से राज्य और समाज के बीच सांवादिक की भूमिका निभाता है। संसदीय जनतंत्र में सत्ता के लिए आपस में प्रतियोगिता करने वाले राजनीतिक दल होते हैं। उनसे उनके मतदाताओं, यानी जनता के हितों में काम करने, उनेक लिए कानून और योजनाएँ बनाने की उम्मीद की जाती है।
लेकिन हमें पता है कि उन्हें अपनी जनता के प्रति जवाबदेह बनाने के लिए अलग से प्रयास करने पड़ते हैं।
यहाँ तक कि जो योजनाएँ जनता के लिए बनी हैं, वे कायदे से लागू हो पाएँ, इसे सुनिश्चित करने के लिए भी सरकार के बाहर से कोशिश करनी होती है। यह काम राजनीतिक दलों से अलग से लोग या संस्थाएँ करती हैं, उन्हीं से मिलकर नागरिक समाज या सिविल सोसाइटी का निर्माण होता है।
अगर यह नागरिक समाज न होता तो सूचना के अधिकार या रोज़गार गारंटी या शिक्षा के बुनियादी अधिकार जैसे क़ानूनों का बनना कठिन होता। विकास के तर्क के मुक़ाबले आदिवासियों के पारंपरिक अधिकार या पर्यावरण के संरक्षण के प्रश्न भी इस नागरिक समाज ने ही उठाए।
इनके बारे में बात करना भी इसी समाज ने शुरू किया और सरकारों पर दबाव भी बनाकर रखा। यही नहीं, जनता को भी उनके अधिकारों के प्रति जागरूक रखने का काम भी यह समाज करता है।
यही समाज नागरिक अधिकारों के लिए भी न सिर्फ आवाज़ उठाता है बल्कि राज्य की संस्थाओं द्वारा उन्हें संकुचित किए जाने या उन पर आक्रमण का विरोध करता है। पुलिस की ज्यादती हो या सरकारी विभागों की बेरुखी, नागरिक समाज के दख़ल के कारण सामान्य लोगों को उनके अधिकार मिल पाते हैं । वे अपने अधिकारों को पहचानना और उनके लिए लड़ना भी सीखते हैं।
प्रायः बहुमत का फ़ायदा उठाकर सरकारें ऐसे क़ानून बना डालती हैं जो जनता के ही ख़िलाफ़ होते हैं। यह भी हो सकता है कि वे संविधान सम्मत न हो। वैसी हालत में नागरिक समाज ही सरकार को पाबंद करता है। कई बार वह आंदोलन का रास्ता लेता है और कई बार अदालत का सहारा लेता है।
नागरिक समाज इस तरह सरकारों के लिए सहायक भी होता है और सरदर्द भी। क्योंकि वह उनके हर कदम की जाँच-परख करता रहता है। सबसे अधिक निगरानी की ज़रूरत लोगों के मानवाधिकार की रक्षा के मामलों में होती है। पुलिस की ज़्यादती से हम सब परिचित हैं। अगर नागरिक समाज न हो तो पुलिस हिरासत में यातना और मौत कभी सवाल ही न बनें।
नागरिक समाज मुखर समाज भी है। वह उन सवालों पर बात करता है जिन्हें सरकार दबाकर रखना चाहती है। जैसे हाल में त्रिपुरा में मुसलमानों के ख़िलाफ़ हिंसा के मसले को ही देख लीजिए जिसे अभी तक सरकार मानना नहीं चाहती। इस नागरिक समाज के कारण ही अदालत का हस्तक्षेप सम्भव हो पाया है।
अगर यह नागरिक समाज न होता तो पिछले दो साल में कोरोना महामारी में मज़दूरों और बाक़ी बेसहारा छोड़ दिए गए लोगों का जीवित रहना मुश्किल होता। इसने राहत का इंतज़ाम किया, अदालत का सहारा लिया, सरकार पर दबाव डाला।
यह नागरिक समाज दलितों, आदिवासियों और अल्पसंख्यकों के अधिकारों के बने रहने के लिए बहुत आवश्यक है। विशेषकर एक ऐसी सरकार के समय जो एक राजनीतिक दल के नेतृत्व में चल रही है जो बहुसंख्यकवादी है।
अजित डोभाल का यह निर्देश इस संदर्भ में सुना जाना चाहिए। पिछले सात वर्षों में नागरिक समाज पर जो आक्रमण हुए हैं, उन्हें भी याद रखना ज़रूरी है। इस सरकार के आने के बाद ही विश्वविद्यालयों पर हमले शुरू हो गए थे। वह जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय हो या हैदराबाद केंद्रीय विश्वविद्यालय। छात्र और अध्यापक इस मुखर नागरिक समाज के महत्त्वपूर्ण अंग हैं।
आंतरिक शत्रु की खोज ऐसी सरकारों का सबसे कारगर तरीक़ा होता है सत्ता में बने रहने के लिए। वे जनता के एक हिस्से को भ्रम दिलाती हैं कि वे ही देश के रक्षक हैं और उनका फ़र्ज़ इन भीतरी दुश्मनों को पहचान करके उन्हें नष्ट करने का है।
यही काम डोभाल ने किया है। वे पुलिस को कह रहे हैं कि उसका काम नए युद्ध के दुश्मनों से लड़ने का है जो देश के अंदर के लोग ही हैं।
क़ानून लागू करवाना पुलिस का काम नहीं। क़ानून का विरोध जनता का अधिकार है अगर वह संविधान के अनुकूल नहीं है। जनता उन्हें वापस करवाने, रद्द करवाने या उनमें तब्दीली की माँग कर सकती है। इस सरकार के आने के बाद इसके द्वारा बनाए जा रहे या प्रस्तावित क़ानूनों के ख़िलाफ़ जनता के अलग-अलग हिस्से सक्रिय हुए हैं। भूमि अधिग्रहण हो या खेती से जुड़े क़ानून, प्रभावित जन समुदाय ने आंदोलन किया है। वैसे ही नागरिकता के नए क़ानून के ख़िलाफ़ भी लोग सड़क पर उतरे हैं।
डोभाल इन सबको देश के शत्रु बतला रहे हैं। या यह कि इन आंदोलनों के लिए देश के शत्रुओं ने साज़िश की है। जैसा पुलिस ने पर्यावरण के लिए काम करने वाली युवती दिशा रवि के बारे में कहानी गढ़ी थी।
जब सरकार आंतरिक शत्रुओं की तलाश करने लगें तो मान लेना चाहिए कि सावधान होने से आगे की अवस्था आ गई है। यह खुद को, जनतंत्र को बचाने के लिए ख़तरे की सबसे बड़ी घंटी है।
इसी के साथ सेना के प्रमुख बिपिन रावत का बयाँ सुना जाना चाहिए। उन्होंने कहा कि कश्मीर में स्थानीय लोग अब आतंकवादियों को खुद ही ‘लिंच’ करने को तैयार हैं। या वे उन्हें लिंच करवाने को तैयार हैं। रावत साहब को लिंचिंग उनके हिसाब से जो अपराधी हैं, उनसे निबटने का जायज़ तरीक़ा मालूम होता है।
अगर आप डोभाल और रावत के निर्देशों या बयानों को साथ रखकर पढ़ें तो देश की सूरत क्या दिखलाई पड़ती है?
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