भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के नेता सुब्रमण्यम स्वामी ने एक कार्यक्रम के दौरान कहा था कि आरक्षण ख़त्म करने की बात बेवक़ूफ़ी है, लेकिन हमारी सरकार उसे ऐसा ज़रूर बना देगी कि आरक्षण रहने या न रहने का कोई मतलब नहीं रह जाएगा। इसके लिए केंद्र ने कई क़दम उठाने की कोशिश की, जिसमें विश्वविद्यालयों में रोस्टर में बदलाव, संघ लोक सेवा आयोग के माध्यम से सैकड़ों चयनित अभ्यर्थियों को क्रीमी लेयर के मुक़दमों में फँसाकर हतोत्साहित करने और लैटरल एंट्री आदि शामिल हैं। सरकार आरक्षण को मज़ाक़ बनाने की पूरी कवायद कर रही है।
उच्चतम न्यायालय ने मंडल कमीशन की रिपोर्ट लागू करने के पक्ष में फ़ैसला ज़रूर दिया था, लेकिन उसमें क्रीमी लेयर का अड़ंगा लगा दिया था। क्रीमी लेयर को ख़त्म कर हर ओबीसी को आरक्षण देने की माँग ओबीसी तबक़े की ओर से समय-समय पर उठती रही है, जिससे ओबीसी में शामिल जातियों में सभी को इसका लाभ मिल सके। लेकिन क्रीमी लेयर ख़त्म करने के बजाय केंद्र सरकार उसमें वेतन से होने वाली आमदनी को भी शामिल करने की तैयारी कर ली है। क्रीमी लेयर को नए सिरे से परिभाषित करने पर काम चल रहा है। अगर यह लागू होता है तो वंचित तबक़े की बड़ी आबादी ओबीसी आरक्षण से बाहर हो जाएगी और सवर्णों के 10 प्रतिशत आर्थिक आरक्षण की तरह ओबीसी आरक्षण भी सिर्फ़ आर्थिक आधार पर आरक्षण रह जाएगा। अगर वेतन को आमदनी की गणना में माना जाएगा तो क्लर्क ग्रेड के लोगों के बच्चे भी ओबीसी आरक्षण से बाहर हो सकते हैं।
1992 में जब कांग्रेस सरकार ने क्रीमी लेयर तय किया था तो उसमें निजी क्षेत्र और सरकारी नौकरियाँ कर रहे लोगों के वेतन, कृषि से होने वाली आमदनी आदि को क्रीमी लेयर के निर्धारण में आमदनी का आधार नहीं बनाया गया था। यहाँ तक कि अगर पति पत्नी में से कोई एक 40 साल की उम्र के पहले क्लास वन अधिकारी न रहा हो तो उसके परिजनों को भी क्रीमी लेयर से बाहर माना जाता रहा है। इससे ओबीसी की बड़ी आबादी क्रीमी लेयर के दायरे में नहीं आती है।
आरक्षण के ख़िलाफ़ यह माहौल बनाया गया है कि पैसे वाले लोग आरक्षण का पूरा लाभ ले लेते हैं और वास्तव में जो वंचित हैं, उसे आरक्षण का लाभ नहीं मिलता। जबकि हक़ीक़त यह है कि तमाम केंद्रीय संस्थानों और राज्य सरकार की नौकरियों में अब तक 27 प्रतिशत कोटे को नहीं भरा जा सका है।
जबकि नियम यह है कि ओबीसी या एससी-एसटी तबक़े का कोई अभ्यर्थी ज़्यादा नंबर पाता है और सामान्य सीटों के लिए पात्र है तो उसे सामान्य सीटों पर नौकरी दी जानी चाहिए। यानी 27 प्रतिशत आरक्षण से और उसके ऊपर ज़्यादा अंक पाने वाले विद्यार्थियों को जनरल में नौकरियाँ मिलनी चाहिए।
वहीं तमाम तरह की तिकड़में करके ओबीसी अभ्यर्थियों को नॉट सुटेबल यानी अपात्र बता दिया जाता है। यह कल्पना करना कठिन है कि देश की क़रीब 55 प्रतिशत ओबीसी आबादी में किसी एक या दो पद के लिए सुटेबल कैंडिडेट ही न मिल सके। लेकिन यह अजूबा लगातार हो रहा है। वहीं एससी-एसटी और ओबीसी का कट ऑफ़ सामान्य से ज़्यादा जा रहा है। यह सब अजूबा मोदी सरकार के कार्यकाल में हो रहा है।
एक तरफ़ आरक्षण विरोधी यह तर्क देते हैं कि आरक्षण की वजह से अयोग्य और अपात्र लोगों का चयन हो रहा है। वहीं दूसरी तरफ़ ओबीसी आरक्षण से उस तबक़े को बाहर करने का समर्थन करते, जिनकी आर्थिक हैसियत अपने बच्चों को बेहतरीन शिक्षा देने की है। यह दोहरी बात एक ही मुँह से की जाती है, जो आरक्षण विरोधी होता है।
अगर किसी आरक्षण विरोधी को गुणवत्ता को लेकर चिंता होती तो वह निश्चित रूप से क्रीमी लेयर के लोगों को भी ओबीसी प्रतिस्पर्धा में शामिल होने की वकालत करता, जिससे ओबीसी का क्रीम यानी बेहतर पढ़ा लिखा मस्तिष्क सरकारी नौकरियों व शिक्षण संस्थानों में आ सके।
आरक्षण विरोधियों की सारी कवायद आरक्षण को आर्थिक आधार पर परिभाषित करने की रही है। स्वतंत्रता के बाद और आरक्षण लागू होने के समय ही इस पर संसद से लेकर सड़क तक हज़ारों पन्नों की बहस हो चुकी है कि आरक्षण ग़रीबी उन्मूलन कार्यक्रम नहीं है।
यह प्रतिनिधित्व का मसला है कि जातियों में विभाजित समाज में हर जाति को शासन प्रशासन में हिस्सेदारी मिल सके। उसकी आर्थिक हैसियत चाहे जो भी हो। ग़रीबी उन्मूलन के लिए सरकारें मनरेगा, वृद्धावस्था पेंशन, विधवा पेंशन सहित सैकड़ों की संख्या में ग़रीब कल्याण योजनाएँ चला रही हैं, जिससे उनकी स्थिति का सुधार हो सके। ग़रीबी को आरक्षण का आधार नहीं बनाया जा सकता है। किसी व्यक्ति को इस आधार पर आईएएस बना देना कि वह स्टेशन पर भीख माँगता है, इसलिए वह ग़रीब होने के नाते देश की सबसे प्रतिष्ठित नौकरी पाने का सबसे ज़्यादा पात्र है, समझदारी और तर्क से परे बात है।
अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया या यूरोप के किसी देश में जहाँ भी पढ़ाई या नौकरियों में आरक्षण लागू किया गया है, कहीं भी आर्थिक आधार पर आरक्षण का प्रावधान नहीं है। अमेरिका में काले लोगों, एशियाई लोगों को पिछड़ा मानकर शिक्षण संस्थानों में आरक्षण दिया जाता है, जिससे वंचित लोगों को जगह मिल सके।
इसी तरह इंग्लैंड की ग़ुलामी के समय भारतीयों या नेटिव या काले लोगों को आईसीएस बनने के लिए उम्र में छूट गई, जिससे ये लोग भी सत्ता में भागीदार बन सकें। आईसीएस बनने की उम्र बार-बार बढ़ाई गई, जिससे भारत के काले लोग प्रशासन में जगह पा सकें। साथ ही लंदन के विश्वविद्यालयों में भारतीयों के लिए जगह बनाई गई, यह प्रावधान नहीं किया गया कि जो ग़रीब भारतीय होंगे उन्हें ही इंग्लैंड के विश्वविद्यालयों में जगह मिलेगी, जिससे वे संपन्न हो जाएँ। कहीं भी ऐसा दृष्टांत नहीं मिलता कि सरकार ने सड़क से भिखारियों को उठाया हो और इस आधार पर नौकरी दे दी हो कि वह सबसे ग़रीब है और आईएएस या आईपीएस बनकर वह अमीर हो जाएगा। भारत पूरी दुनिया में एकमात्र देश है, जहाँ मोदी सरकार ने आर्थिक आधार पर आरक्षण लागू करके ग़रीबी मिटाने की कवायद की है।
क्रीमी लेयर लागू होने का नुक़सान ओबीसी में जो संपन्न तबक़ा है और सरकार की बेइमानियों के ख़िलाफ़ थोड़ा प्रतिरोध कर सकता है, वह तबक़ा शिथिल हो जाता है। उसकी वजह यह है कि उस तबक़े को आरक्षण का लाभ नहीं मिल रहा होता है। वह सवर्णों या ग़ैर आरक्षित तबक़े की हाँ में हाँ मिलाता है, वही उसके परिवार के हित में होता है। वहीं देश में कुल नौकरियों का महज 1 प्रतिशत सरकारी नौकरियाँ हैं। उसमें भी 27 प्रतिशत ओबीसी शायद किसी भी सरकारी विभाग में नहीं पहुँच पाए हैं। ऐसे में ओबीसी के ग़रीब तबक़े को लगने लगता है कि आरक्षण का सारा लाभ ओबीसी के अमीर लोग उठा ले रहे हैं। यह तबक़ा भी आरक्षण विरोधियों के साथ खड़ा हो जाता है। इस बात की माँग ही नहीं होती कि अगर किसी संस्थान में 27 प्रतिशत ओबीसी नहीं हैं तो शेष सीटों पर किसने कब्जा जमा रखा है? यह माँग नहीं की जाती कि जातीय जनगणना कराकर उस तबक़े का हिसाब दिया जाए, जिन्होंने वास्तव में मलाईदार पदों पर कब्जा कर लिया है।
संविधान में संशोधन कर आर्थिक आधार पर कमज़ेर तबक़े को 10 प्रतिशत आरक्षण देने के बाद मोदी सरकार लगातार यह कवायद कर रही है कि पूरी आरक्षण व्यवस्था को आर्थिक आधार पर करके किसी तरह से भी वंचित तबक़े को मिलने वाला प्रतिनिधित्व ख़त्म किया जा सके। वेतन को क्रीमी लेकर का आधार बनाने की कवायद इसी दिशा में बढ़ रहे क़दम की एक कड़ी है।
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