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देश को क़ानून पढ़ाने वाले विश्वविद्यालय ही उड़ा रहे आरक्षण के क़ानून की धज्जियाँ

भारत में क़ानून पढ़ाने वाले ही आरक्षण के क़ानून का पालन नहीं कर रहे हैं। राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग आयोग की सुनवाई में यह बात सामने आई है कि नेशनल लॉ यूनिवर्सिटीज (एनएलयू)/स्कूलों में आरक्षण के संवैधानिक प्रावधानों व सरकारी आदेशों (जीओ) की धज्जियाँ उड़ाई जा रही हैं और एलएलबी व एलएलएम के प्रवेश में सामाजिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़े वर्ग (ओबीसी) को आरक्षण नहीं दिया जा रहा है।

सबसे दिलचस्प यह है कि देश के युवाओं को क़ानून पढ़ाने वाले कुलपतियों के बयान भी अजीब-अजीब आए। आयोग के सामने कुलपतियों ने कहा कि वह विश्वविद्यालय गवर्निंग काउंसिल के नियमों, अधिनियमों और क़ानूनों के मुताबिक़ विश्वविद्यालय चला रहे हैं और उन पर कोई अन्य क़ानून लागू नहीं होता है। यानी विश्वविद्यालय चलाने के लिए उनकी गवर्निंग काउंसिल ने जो नियम बना दिया, उसी के मुताबिक़ विश्वविद्यालय चलाएँगे और भारत के संविधान में दिए गए प्रावधानों या केंद्र व राज्य सरकारों के आदेशों का उनके ऊपर कोई असर नहीं पड़ेगा!

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विश्वविद्यालयों के कुलपतियों का एक और मजेदार तर्क आया। आंध्र प्रदेश के उच्च न्यायालय ने एक आदेश दिया था कि जब तक सरकार बैकवर्ड कास्ट के लिए कोई विशेष प्रावधान नहीं करती है जब तक विश्वविद्यालयों को ऐसा करने का निर्देश नहीं दिया जा सकता। उसके बाद पिछड़े वर्ग के लोग रोते गाते तेलंगाना सरकार के पास पहुँचे और राज्य सरकार ने 2014 में सभी उच्च शिक्षण संस्थानों में 29 प्रतिशत आरक्षण लागू करने के लिए सरकारी आदेश निकाला। इसी तरह से हर राज्य ने उच्च शिक्षण संस्थानों में आरक्षण लागू करने के लिए सरकारी आदेश जारी कर दिया है। तेलंगाना ने विशेष रूप से सरकारी आदेश में उल्लेख किया कि नालसर यूनिवर्सिटी ऑफ़ लॉ सहित सभी उच्च शिक्षण संस्थानों में आरक्षण दिया जाना है।

ऐसा नहीं कि नालसर यूनिवर्सिटी ने राज्य सरकार के सरकारी आदेश के बाद आरक्षण देना शुरू कर दिया। नालसर के कुलपति ने कहा कि उनको यूजीसी, केंद्र या राज्य सरकार से कोई अनुदान नहीं मिलता है और उनका विश्वविद्यालय स्ववित्तपोषित है इसलिए वह आरक्षण नहीं देंगे। एनसीबीसी के समक्ष आवेदन देने वाले विद्यार्थियों ने साक्ष्य दिए कि नालसर को यूजीसी से हर साल अनुदान मिलता है। एनसीबीसी ने सुनवाई के दौरान यूजीसी के प्रतिनिधि से भी यह पुष्टि की कि नालसर को सरकारी अनुदान मिल रहा है। यानी आरक्षण नहीं देना है, उसके लिए कुछ भी तर्क विश्वविद्यालय के कुलपति गढ़ सकते हैं।

देश के सभी राज्यों ने सरकारी आदेश जारी कर दिया है कि उच्च शिक्षण संस्थानों में ओबीसी आरक्षण होगा लेकिन क़ानून पढ़ाने वाले विश्वविद्यालय इसे मानने को तैयार नहीं हैं।

एनसीबीसी की सुनवाई में पंजाब के उच्च शिक्षा विभाग के डिप्टी डायरेक्टर, नालसर यूनिवर्सिटी हैदराबाद के रजिस्ट्रार, नेशनल लॉ यूनिवर्सिटी, जोधपुर की वाइस चांसलर, डीएसएनएलयू विशाखापत्तनम आंध्र प्रदेश के वाइस चांसलर, आंध्र प्रदेश के बीसी वेलफेयर के निदेशक, एनएलआईयू भोपाल के डीन, राजस्थान के हायर ऐंड टेक्निकल एजुकेशन की सचिव, यूजीसी नई दिल्ली के ज्वाइंट सेक्रेटरी, यूजीसी नई दिल्ली के एडिशनल सेक्रेटरी, धर्मशाला नेशलन लॉ यूनिवर्सिटी जबलपुर के रजिस्ट्रार, तेलंगाना के बीसी वेलफेयर डिपार्टमेंट के डिप्टी डायरेक्टर, नेशनल लॉ यूनिवर्सिटी शिमला के रजिस्ट्रार, आरजीएनयूएल के रजिस्ट्रार उपस्थित थे।

यूजीसी ने ओबीसी को आरक्षण देने को लेकर समय-समय पर जारी सरकारी आदेशों को दिखाया जो प्रवेश को लेकर जारी किए गए थे। इस दौरान कुछ कुलपतियों ने कहा कि अगर एनसीबीसी कोई सिफ़ारिश करता है तो वह ओबीसी आरक्षण लागू करने के मसले पर जल्द से जल्द गवर्निंग काउंसिल/एग्जुक्यूटिव काउंसिल में चर्चा करेंगे।

एनसीबीसी ने सिफ़ारिश की है कि नेशनल लॉ यूनिवर्सिटीज प्रवेश प्रक्रिया में चल रही गंभीर अनियमितताओं को जल्द से जल्द ठीक करें और संवैधानिक क़ानूनों, केंद्र व राज्य सरकारों के आदेशों और यूजीसी के निर्देशों के मुताबिक़ ओबीसी आरक्षण प्रदान करें।

आयोग के सामने उपस्थित विभिन्न राज्यों के ज़िम्मेदार अधिकारियों की सूची देखें तो यह नहीं कहा जा सकता है कि किसी भी पार्टी द्वारा शासित राज्य आरक्षण क़ानूनों की धज्जियाँ उड़ाने में पीछे हैं। इसमें तेलंगाना, मध्य प्रदेश, राजस्थान, पंजाब जैसे राज्यों में अलग-अलग दलों का शासन है और इसके पहले भी अलग-अलग दलों की यहाँ पर सरकारें थीं। लेकिन हर सरकार की नाक के नीचे क़ानून और सरकार के आदेशों की धज्जियाँ उड़ाई जाती रही हैं। केंद्रीय उच्च शिक्षण संस्थानों में ओबीसी रिजर्वेशन देने के लिए मनमोहन सिंह सरकार के कार्यकाल में जो आदेश अर्जुन सिंह के मानव संसाधन विकास मंत्री रहते जारी हुआ था, उसकी एक-एक लाइनें स्पष्ट हैं। और सबसे बड़ी बात संवैधानिक मंशा स्पष्ट है कि देश का जो भी नागरिक वंचित है, कमज़ोर है, उसे समाज की मुख्य धारा में लाना है। वहीं सरकार के विभिन्न संस्थान अपने मुताबिक़ व्याख्याएँ कर संविधान व क़ानूनों की धज्जियाँ उड़ा रहे हैं।

नेशनल लॉ यूनिवर्सिटीज क़ानून की शिक्षा देने वाले देश के प्रमुख संस्थानों में हैं जो वकीलों को शिक्षा देती हैं। क़ानून के ये विश्वविद्यालय ख़ुद ही क़ानून की धज्जियाँ उड़ा रहे हैं।

ऐसे में क़ानून की शिक्षा पाकर बाद में वकील और न्यायाधीश बनने वालों में न्याय को लेकर कितनी संवेदनशीलता होगी, यह सोचना भी डराता है। वहीं देश की वंचित जनता यह उम्मीद करती है कि अगर उसे कार्यपालिका यानी प्रशासन या विधायिका यानी संसद और विधानसभाओं में भी न्याय नहीं मिलता है तो न्यायालयों में बैठे माननीय उन्हें न्याय दिला देंगे।

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देश में अनुसूचित जाति एवं जनजाति के लिए सरकारी नौकरियों व शिक्षण संस्थानों में स्वतंत्रता के समय से ही आरक्षण का प्रावधान है। वहीं 1991 में मंडल कमीशन की सिफ़ारिशें लागू होने के बाद से अन्य पिछड़े वर्ग के लिए भी केंद्र सरकार के स्तर पर 27 प्रतिशत और अलग-अलग राज्यों में अलग-अलग प्रतिशत में आरक्षण का प्रावधान किया गया है। वहीं ज़मीनी हक़ीक़त यह सामने आती है कि देश के किसी भी संस्थान में जितना कोटा निर्धारित किया गया है, उतनी भी संख्या आरक्षित वर्ग की नहीं है। इसकी बड़ी वजह आरक्षण नियमों की अवहेलना है। एनसीबीसी को नरेंद्र मोदी सरकार ने संवैधानिक बना दिया है। कुलपतियों ने आश्वासन भी दिया है कि वह अपनी गवर्निंग काउंसिल में आरक्षण दिए जाने को लेकर चर्चा करेंगे लेकिन इन चर्चाओं का क्या परिणाम आने वाला है, यह अभी देखना होगा। संभवतः देश के ताक़तवर लोगों ने यह तय कर लिया है कि वंचित तबक़े को वंचित ही रखना है और वे अपनी सुविधा के मुताबिक़ क़ानूनों की व्याख्या कर लेते हैं। ऐसे में वंचित तबक़े के लिए आरक्षण की व्यवस्था मज़ाक़ बनकर रह गई है।
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प्रीति सिंह
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