ग़रीबी उन्मूलन पर काम करने वाले अर्थशास्त्री अभिजीत बनर्जी, एस्थर डफ्लो और अर्थशास्त्री माइकल क्रेमर को अर्थशास्त्र के नोबेल पुरस्कार के लिए चुना गया है। नोबेल पुरस्कार समिति (https://www।theguardian।com/business/live/2019/oct/14/nobel-prize-in-economic-sciences-2019-sveriges...) ने कहा कि तीनों अर्थशास्त्रियों को 'अंतरराष्ट्रीय स्तर पर ग़रीबी कम करने के उनके प्रयोगात्मक नजरिए' के लिए चुना गया है।
ग़रीबी कम करने के नजरिये पर नोबेल पुरस्कार दिए जाने से एक बात यह भी साफ़ हुई है कि दुनिया में बढ़ती असमानता को एक समस्या के रूप में देखा जा रहा है और विश्व इस कवायद में है कि आम लोगों के जीवन स्तर में किस तरह से सुधार किया जाए।
पंचायतों में आरक्षण के महत्व को साफ़ करते हुए एस्थर डफ्लो ने अपने शोधपत्र में कहा है कि महिलाओं, वंचित तबक़ों की प्राथमिकताएं अलग-अलग होती हैं। पश्चिम बंगाल का उदाहरण देते हुए उन्होंने साफ़ किया कि जो पंचायत सीटें महिलाओं के लिए आरक्षित थीं, वहां पानी व सड़क की सुविधा विकसित करने में ज़्यादा धन खर्च किया गया। राजस्थान में महिला आरक्षित पंचायतों में सड़क की जगह पानी की सुविधा पर ज़्यादा धन खर्च किया गया।
सर्वे के माध्यम से एस्थर डफ्लो ने पाया कि समूह की पहचान के मुताबिक़ फ़ैसले और प्राथमिकताएं बदल जाती हैं। अध्ययन में पाया गया कि आरक्षण से वंचित तबक़े की राजनीतिक फ़ैसलों के निर्माण में भागीदारी बढ़ी है। साथ ही कम शिक्षित राजनेताओं के आने से निर्णय लेने की गुणवत्ता पर कोई असर नहीं (https://economics।mit।edu/files/794) पड़ा है।
जब केंद्र सरकार ने सवर्णों को ग़रीबी के आधार पर सरकारी नौकरियों में आरक्षण दिया तो अभिजीत बनर्जी इसके विरोध में ख़ूब बोले। उन्होंने कहा कि सरकारी नौकरियों को कम आकर्षक बनाए जाने की ज़रूरत है, जिससे उसकी तरफ़ लोग आकर्षित न (https://www।business-standard।com/article/economy-policy/make-govt-jobs-less-cushy-mit-economist-abh...) हों।
सवर्ण आरक्षण पर जताई थी नाराजगी
बनर्जी का मानना है कि राजनीतिक व्यवस्था कोटे की पॉलिटिक्स खेलती है। सवर्णों को ग़रीबी के आधार पर 10 प्रतिशत आरक्षण दिए जाने को लेकर बनर्जी ने नाराजगी जताते हुए कहा था कि सवर्णों की बड़ी आबादी की सालाना आमदनी आठ लाख रुपये से ज़्यादा है और नौकरियों में पहले ही उनकी हिस्सेदारी 10 प्रतिशत से कहीं ज़्यादा है, ऐसे में यह एक राजनीतिक फ़ैसले के सिवा कुछ नहीं है।
बनर्जी का मानना है कि आम लोगों को सरकार से यह पूछने की ज़रूरत है कि वह नौकरियां बढ़ाने के लिए क्या कर रही है? लोगों की सरकार से उम्मीदें और उपलब्ध नौकरियों की संख्या में गहरी खाई को लेकर बनर्जी का मत साफ़ रहा है कि ऐसी स्थिति में लोगों को किस तरह के सवाल उठाने चाहिए।
बनर्जी घटते रोज़गार और बुनियादी ढांचा दुरुस्त न होने को लेकर चिंतित रहे हैं। उन्होंने नोटबंदी सहित भारत सरकार की उन तमाम नीतियों की आलोचना की, जिनकी वजह से नौकरियों में कमी आई।
किसानों की कर्जमाफ़ी फौरी राहत की तरह
अभिजीत किसानों की कर्जमाफ़ी को फौरी राहत मानते हैं, लेकिन उनका साफ़ कहना है कि अगर किसी किसान ने कर्ज न लेकर अपनी बचत से खेती की है तो उसे कर्जमाफ़ी का लाभ नहीं मिलना चाहिए, जबकि वह व्यक्ति भी उतना ही परेशान रहा है, जितना कि कोई अन्य किसान। इस हिसाब से वह कृषकों की समस्या के दीर्घकालीन समाधान के पक्षधर रहे हैं।
भारत के शहरों में बड़े पैमाने पर विस्थापित मजदूरों के आने से स्थिति ख़राब है। अभिजीत पूर्वी इलाक़े में उद्योग कम होने से विस्थापन को लेकर चिंता व्यक्त करते हैं। उनका मानना है कि देश के पश्चिमी इलाक़े में उद्योग-धंधों की बहुतायत वाले शहर प्रवासियों को समाहित करने के लिए बने ही नहीं हैं। ऐसे में प्रवासी कामगारों के पास रहने की जगह ही नहीं होती और वे कुछ समय बाद लौट जाते हैं। ऐसी हालत में तकनीकी कौशल हासिल कर पाना भी संभव नहीं हो पाता।
नोबेल पुरस्कार पाने वाले अर्थशास्त्रियों ने खासकर रेंडमाइज्ड कंट्रोल ट्रायल्स (आरसीटी) को लोकप्रिय बनाया जो अध्ययनों के परीक्षण के लिए नीतिगत हस्तक्षेप के बड़े सवालों को छोटे और आसान प्रश्नों में तोड़ता है।
नोबेल समिति ने कहा कि इन अर्थशास्त्रियों के प्रयोगधर्मी दृष्टिकोण ने पिछले कई दशकों में विकास अर्थशास्त्र को बदला है। समिति ने ख़ासतौर पर जिक्र किया कि स्कूलों में उनके उपचारात्मक शिक्षण के प्रभावी कार्यक्रमों से 50 लाख से अधिक भारतीय बच्चों को लाभ मिला है। बनर्जी, डफ्लो और क्रेमर ने विकास अर्थशास्त्र के तहत एक अभियान शुरू किया है जिससे इस सवाल का स्पष्ट जवाब मिल सकता है कि कोई ख़ास नीतिगत हस्तक्षेप प्रभावी है या नहीं।
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