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एनडीटीवी क्या सचमुच बिक जाएगा

एनडीटीवी को अडानी समूह ने ख़रीद लिया है। अडानी समूह ने एनडीटीवी में एक बड़ी हिस्सेदारी खरीद ली है और अब छब्बीस परसेंट तक शेयर और खऱीदने के लिए एक ओपन ऑफर का एलान भी कर दिया है। अडानी समूह प्रणय रॉय, राधिका रॉय और एनडीटीवी प्रबंधन की इच्छा के खिलाफ कंपनी पर कब्जे की कोशिश कर रहा है जिसे होस्टाइल टेकओवर कहा जाता है।

इनमें से कोई भी बात सही हो सकती है। पहले दो में बताने के तरीके का फर्क है या फिर इस बात का कि तकनीकी तौर पर आधे से ज्यादा हिस्सेदारी पर कब्जे के बिना कंपनी खरीद ली कहना ठीक नहीं है, शायद। लेकिन अगर बाद वाली बात मान ली जाए जैसा एनडीटीवी की सीईओ सुपर्णा सिंह ने अपने साथ काम करनेवाले सभी लोगों को मेल लिखकर कहा है, तो तस्वीर में एक बड़ा फर्क आ जाता है।

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फर्क सिर्फ इतना है कि अडानी समूह एनडीटीवी पर कब्जा करने या उसके शेयरों का पचास परसेंट से ऊपर का हिस्सा खऱीदने का काम कंपनी के मौजूदा प्रोमोटरों के साथ बात करके राजी खुशी कर रहा है या उनके साथ जबर्दस्ती की जा रही है? एनडीटीवी की सीईओ ने जो संदेश लिखा है उसे सच माना जाए तो यहां मामला जोर जबर्दस्ती का ही है। ध्यान रहे कि अडानी समूह की तरफ से एलान आने के एक ही दिन पहले एनडीटीवी ने स्टॉक एक्सचेंजों को लिखकर बताया था कि एक अखबार के पत्रकार ने उनसे पूछा है कि क्या प्रणय रॉय और राधिका रॉय अपनी होल्डिंग कंपनी आरआरपीआर के जरिए रखी गई हिस्सेदारी  बेच रहे हैं। 

कंपनी ने उस पत्रकार को और एक्सचेंजों को यह लिखकर दिया कि यह अफवाह बेबुनियाद है और राधिका और प्रणय रॉय ने हिस्सेदारी बेचने या कंपनी का मालिकाना हक बदलने के बारे में न तो किसी से बात की है न ही कर रहे हैं। इन दोनों के पास अलग अलग और आरआरपीएल होल्डिंग के जरिए कंपनी की कुल पेडअप कैपिटल का 61.45% हिस्सा है।
कंपनियों के बिकने या बड़ी हिस्सेदारी बिकने के मामलों में इस तरह की सफाई दिया जाना भी कोई नई बात नहीं है। नियम है कि सबसे पहले खबर स्टॉक एक्सचेंज को दी जाए इसलिए बातचीत हो भी रही हो तब भी उसपर कोई साफ जवाब नहीं दिया जाता। लेकिन ज्यादातर मामलों में कंपनियां कहती हैं कि वो बाज़ार की अटकलों पर कोई टिप्पणी नहीं करेंगी। इस तरह का स्पष्ट भाषा में लिखा हुआ खंडन मुश्किल से आता है।

लेकिन खंडन के बावजूद एक ही दिन बाद अडानी समूह की तरफ से बाकायदा एलान कर दिया गया कि उनकी कंपनी एएमएनएल अप्रत्यक्ष तरीके से एनडीटीवी में 29.18% हिस्सा खऱीद रही है और साथ ही छब्बीस परसेंट तक शेयर औऱ खरीदने के लिए ओपन ऑफर या खुला प्रस्ताव भी दे रही है। कंपनी की प्रेस विज्ञप्ति में लिखा है कि एएमजी मीडिया नेटवर्क्स लिमिटे़ड की सब्सिडियरी वीसीपीएल के पास आरआरपीआर होल्डिंग्स प्राइवेट लिमिटेड के वाउचर्स हैं और उन्हें भुनाने पर उसे इस कंपनी में 99.99% हिस्सेदारी मिल सकती है। 

कंपनी ने अपने इस अधिकार का इस्तेमाल कर वाउचर्स को 99.5% शेयरों में बदलने का फैसला कर लिया है। इसके साथ ही आरआरपीआर होल्डिंग्स पर अब  वीसीपीएल का पूरा नियंत्रण होगा। 0.49% शेयर क्यों छोड़े गए हैं यह समझना मुश्किल है।
आरआरपीआर होल्डिंग्स प्राइवेट लिमिटेड वो कंपनी है जिसके पास एनडीटीवी के 29.18% शेयर हैं। यानी इसके साथ ही एनडीटीवी की यह हिस्सेदारी अब अडानी समूह की हो गई। आरआरपीआर नाम को खोला जाए तो बनता है राधिका रॉय प्रणय रॉय यानी कंपनी के संस्थापक प्रोमोटर दंपत्ति। इसके अलावा भी दोनों के पास लगभग सोलह सोलह परसेंट हिस्सेदारी है। लेकिन एनडीटीवी के मैनेजमेंट का कहना है कि ‘एनडीटीवी, राधिका और प्रणय के लिए आज का घटनाक्रम पूरी तरह अप्रत्याशित है। … यह अधिग्रहण उनकी सहमति या जानकारी के बगैर हुआ। इसका आधार 2009-10 में किया गया एक लोन एग्रीमेंट है।’ कंपनी का यह भी कहना है कि वो आगे की प्रक्रिया पर जानकारी जुटा रही है और उसमें कानूनी या रेगुलेटरी विकल्प भी शामिल हो सकते हैं।

यहां किस्से में एक पेंच और है। अडानी समूह ने वीसीपीएल नाम की जिस कंपनी के जरिए एनडीटीवी की हिस्सेदारी लेने का फैसला किया है, उस कंपनी ने 2009-10 में एनडीटीवी को या उसके प्रोमोटरों को एक कर्ज दिया था जिसकी जमानत के तौर पर आरआरपीआर की हिस्सेदारी उसके पास रेहन रखी हुई थी। या कर्ज को इक्विटी में बदलने का अधिकार उसे मिला हुआ था। 

एनडीटीवी या उसके प्रोमोटरों ने अडानी ग्रुप से कोई कर्ज नहीं लिया था। जिस वक्त यह कर्ज का सौदा हुआ तब वीसीपीएल अंबानी घराने या रिलायंस इंडस्ट्रीज़ से जुड़ी कंपनी थी। यानी कर्जा अंबानी ने दिया और वसूली के वक्त अडानी सामने आ गए। शायद यही वजह है कि एनडीटीवी मंगलवार को जो हुआ उसे अप्रत्याशित बता रहा है।


खबरों के पीछे की खबर रखनेवाली वेबसाइट न्यूजलॉंड्री ने 14 जनवरी 2015 को एक खबर लिखी थी जिसमें विस्तार से बताया गया था कि कैसे मुकेश अंबानी की कंपनियां सिर्फ राघव बहल के नेटवर्क 18 को ही नहीं बल्कि एनडीटीवी को भी अपना ऋणी बना रही थीं। इसी खबर में विश्वप्रधान कॉमर्शियल प्राइवेट लिमिटेड के दफ्तर का पता भी बताया गया था। हालांकि बाद में वो बदल गया। लेकिन यह वही पता जहां अब मुंबई में नेटवर्क 18 के चैनल चलते हैं। इसी पते पर एक और कंपनी चल रही थी जिसका नाम है शिनानो रिटेल प्राइवेट लिमिटेड। 

इस कंपनी की सौ परसेंट हिस्सेदारी रिलायंस इडस्ट्रियल इन्वेस्टमेंट एंड होल्डिंग्स लिमिटेड के पास थी जो खुद रिलायंस इंडस्ट्रीज़ का हिस्सा है। रिलायंस समूह की ही एक कंपनी रिलायंस वेंचर्स लिमिटेड ने 2009-10 में शिनानो रिटेल को 403.85 करोड़ रुपए का कर्ज दिया। यह अनसिक्योर्ड लोन था। उसी साल सिनानो ने एकदम उतनी ही रकम का कर्ज विश्वप्रधान यानी वीसीपीएल को दिया। उधर उसी साल आरआरपीआर होल्डिंग्स प्राइवेट लिमिटेड की बैलैस शीट में दिखता है उन्हें ठीक उतनी ही रकम का कर्ज मिला है। यह नहीं लिखा है कि यह कर्ज कहां से मिला है। 
लेकिन दिसंबर 2014 में इनकम टैक्स विभाग ने किसी और मामले में दिल्ली हाईकोर्ट में लिखित बयान दिया किया कि उन्हें आरआरपीआर होल्डिंग्स के पास बेनामी स्रोत से आई इस रकम का पूर ब्योरा मिल गया है। उस ट्रेल में यह साफ होता है कि रकम रिलायंस से निकली और शिनानो व विश्वप्रधान से गुजरते हुए आरआरपीआर तक पहुंची।

कुछ ऐसी ही कहानी नेटवर्क 18 को मिले कर्ज की भी थी जिसके बदले में संस्थापक प्रोमोटर राघव बहल की सारी हिस्सेदारी एक सुबह अचानक रिलायंस इंडस्ट्रीज़ की हो गई थी। तब भी ऐसे ही कर्ज को इक्विटी में बदला गया था।

और अब वही कहानी एनडीटीवी में दोहराई जा रही है। विश्वप्रधान की मिल्कियत बदलने की खबर किस किसके पास थी पता नहीं। और एनडीटीवी का कहना है कि कर्ज को इक्विटी में बदलने या वॉरंट को एक्सरसाइज करने का फैसला एनडीटीवी के संस्थापकों की जानकारी, मर्जी या उनसे किसी भी बातचीत के बिना किया गया है।

26% हिस्सेदारी के लिए विश्वप्रधान, एएमपीएल और अडानी एंटरप्राइजेज़ लिमिटेड की तरफ से जो ओपन ऑफर आया है वो भी औपचारिकता ज्यादा लगता है क्योंकि बाज़ार में एनडीटीवी का शेयर मंगलवार को 369.75 रुपए पर बंद हुआ और ओपन ऑफर का भाव है 294 रुपए। यानी हो सकता है कि कंपनी को इस ओपन ऑफर में बहुत से शेयर न मिलें। यह भी हो सकता है कि अडानी समूह आरआरपीआर होल्डिंग्स में 99.5% हिस्सेदारी हासिल करने के बाद इसी मैनेजमेंट से समझौता करके यह कोशिश करे कि कंपनी को यही लोग चलाते रहें। यानी वो सिर्फ इन्वेस्टर की तरह कंपनी में दाखिल होना चाहते हों।

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लेकिन अगर राघव बहल और रिलायंस का सौदा कोई सबक देता है तो वो यही है कि इस तरह की खुशफहमी ज्यादा वक्त तक कायम रहना लगभग असंभव है। हालांकि अभी तो यह देखना होगा कि एनडीटीवी क्या इस मामले को अदालत या रेगुलेटर के दरबार में ले जाएगा? और अगर ऐसा हो भी जाता है तो क्या कानून से उन्हें कोई मदद मिल पाएगी?(बीबीसी हिन्दी से साभार)

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आलोक जोशी
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