महाराष्ट्र में जब चुनाव प्रचार चल रहा था तब नेता किसानों का 'मसीहा' बनने का दावा कर रहे थे। किसान तब भी आत्महत्या कर रहे थे और जब नेता चुनाव जीतने के बाद क़रीब एक महीने तक सत्ता के लिए तिकड़म चला रहे थे तब भी किसान आत्महत्या ही कर रहे थे। दरअसल, नवंबर में नेता जब सत्ता हथियाने के लिए संघर्ष कर रहे थे तब आत्महत्या के मामले काफ़ी ज़्यादा थे। 300 ऐसे मामले आए। एक महीने के अंदर आत्महत्या के इतने मामले चार साल में सबसे ज़्यादा थे। इससे पहले 2015 में इससे भी ज़्यादा मामले कई बार आए थे।
इस बीच बेमौसम बारिश की वजह से किसानों की हालत ज़्यादा ख़राब हो गई थी। जब किसानों की ऐसी हालत का यह मामला उठा और नेताओं पर सवाल उठाए जाने लगे थे उसी दौरान कई नेताओं ने राज्यपाल से मुलाक़ात की थी। ऐसे में जब भी उनसे पूछा गया कि क्या वे सरकार बनाने का दावा पेश करने के लिए राज्यपाल से मिलने गए थे तो उनकी ओर से अक्सर जवाब आता था कि वे किसानों की ख़राब हालत पर चर्चा करने गए थे। हालाँकि, इस बीच लंबे समय तक सरकार नहीं बनने से किसानों की समस्याओं का समाधान तो नहीं ही हो रहा था, प्रशासनिक स्तर पर भी दिक्कतें आने लगी थीं।
महाराष्ट्र में किसानों की आत्महत्या पर ‘टाइम्स ऑफ़ इंडिया’ ने एक रिपोर्ट छापी है। इसमें कहा गया है कि अक्टूबर महीने में बेमौसम हुई भारी बरसात की वजह से आत्महत्या के मामले काफ़ी ज़्यादा बढ़े और यह संख्या 300 हो गई।। रिपोर्ट में कहा गया है कि पिछले साल अक्टूबर से नवंबर के बीच आत्महत्या के मामलों में 61 फ़ीसदी की तेज़ी आई। तब बारिश से 70 फ़ीसदी फ़सलें नष्ट हो गईं। एक अनुमान में कहा गया है कि बारिश से राज्य के एक करोड़ किसान प्रभावित हुए। इनमें से क़रीब 44 लाख किसान मराठवाड़ा क्षेत्र के हैं। राज्य के सूखा प्रभावित मराठवाड़ा क्षेत्र में नवंबर में सबसे ज़्यादा 120 आत्महत्या की घटनाएँ हुईं। विदर्भ में ऐसे 112 मामले दर्ज किए गए। विदर्भ क्षेत्र में किसानों की हालत ज़्यादा ख़राब है और इस क्षेत्र में ही किसानों की आत्महत्या की सबसे ज्यादा घटनाएँ सामने आती रही हैं।
‘टाइम्स ऑफ़ इंडिया’ की रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि इस साल पिछले साल के मुक़ाबले आत्महत्या के ज़्यादा मामले सामने आए हैं। 2019 में जहाँ 2532 मामले सामने आए हैं वहीं 2018 में यह आँकड़ा 2518 था।
हालाँकि, किसानों को सरकारें जब तब मुआवजा देती रही हैं। रिपोर्ट में अधिकारियों के हवाले से कहा गया है कि अब तक 6552 करोड़ रुपये बाँटे जा चुके हैं। जब शिवसेना-एनसीपी-कांग्रेस की महा विकास अघाड़ी सरकार बनी तो उसने दिसंबर में किसानों की समस्याओं के समाधान को प्राथमिकता में रखा और किसानों की क़र्ज़माफ़ी की घोषणा की। इससे पहले 2017 में भी महाराष्ट्र की बीजेपी सरकार ने 44 लाख किसानों का 18 हज़ार करोड़ रुपये की क़र्ज़माफ़ी की थी।
लेकिन किसानों की क़र्ज़माफ़ी पर सवाल उठते रहे हैं। कहा जाता रहा है कि क़र्ज़माफ़ी घाव पर उस मरहम की तरह है जिससे तात्कालिक राहत तो मिल सकती है, लेकिन उससे इलाज संभव नहीं है। सवाल उठता है कि क्या क़र्ज़माफ़ी से खेती की आधारभूत सुविधाएँ और परिस्थितियाँ बेहतर हो जाती हैं? क्या यह क़दम किसानों में आत्महत्याएँ की प्रवृत्ति को रोक पाता है? यदि ऐसा होता तो 2008 में कांग्रेस के नेतृत्व वाली यूपीए सरकार ने सत्तर हज़ार करोड़ रुपए की क़र्ज़माफ़ी की थी, उससे विदर्भ में किसानों की आत्महत्याओं का सिलसिला रुक गया होता। लेकिन ऐसा नहीं हुआ। इससे सवाल तो यह भी उठता है कि क्या किसानों की समस्याओं का वास्तविक समाधान करने से सरकारें बचती हैं?
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