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फ़ाइल फ़ोटो

महाराष्ट्र: फ़ेल क्यों हुई कर्ज माफी, आत्महत्या कर रहे किसान

महाराष्ट्र की राजनीति में दो शब्द हमेशा ही चर्चा में रहते हैं एक "सूखा अकाल " जिसे आमतौर पर सूखा या अकाल बोला जाता है, दूसरा "गीला अकाल" जिसका मतलब है बाढ़ या अतिवृष्टि। हर तीसरे साल प्रदेश में सूखा या अकाल पड़ता है लेकिन इस साल अतिवृष्टि का प्रकोप है। इस साल प्रदेश में मानसून की शुरुआत "निसर्ग" नामक चक्रवात से हुई है और अब जब मानसून सामान्य तौर पर ख़त्म होने का वक्त होता है, एक के बाद एक चक्रवाती बारिश का दौर शुरू है। 

कोरोना के कारण प्रदेश का औद्योगिक चक्र थमा तो पूरा आर्थिक ढांचा ही लड़खड़ा गया ऐसे में कृषि को लेकर जो कुछ उम्मीद जगी थी वह भी अतिवृष्टि से धराशाही हो गयी। लहलहाती फसलों को बर्बाद होते देख पिछले सप्ताह पांच किसानों ने आत्महत्या कर ली।

चक्रवात से भारी नुक़सान

करीब एक साल में तीसरी बार फसलें अतिवृष्टि का शिकार हुई हैं। नवंबर, 2019 में जब प्रदेश में राष्ट्रपति शासन था, मराठवाड़ा क्षेत्र में अतिवृष्टि की वजह से 44,33,549 किसान प्रभावित हुए और आठ जिलों में 41,49,175 हेक्टेयर जमीन पर फसल बर्बाद हुई थी। उसके बाद 4 जून 2020 को आये निसर्ग चक्रवात की वजह से ठाणे, रायगढ़, पालघर तथा समुद्री किनारे क्षेत्र के कई जिलों में फसलों व बागवानी को व्यापक नुकसान हुआ था। 

खेतों में पहुंचे नेता

इस चक्रवात में हजारों घर क्षतिग्रस्त हो गए थे। और तीसरा संकट अब आया है। प्रदेश के मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे, एनसीपी प्रमुख शरद पवार, प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष तथा राजस्व मंत्री बाला साहब थोरात, मंत्री अशोक चव्हाण से लेकर मंत्रिमंडल के सभी मंत्री और विधायक तक गांव के दौरों पर निकल पड़े हैं। ये नेता खेतों में पहुंच रहे हैं और किसानों को दिलासा दे रहे हैं कि आत्महत्या जैसे कदम नहीं उठायें। 

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किसानों की आत्महत्या

पिछले सप्ताह ही एनसीआरबी ने जो आंकड़े जारी किये हैं उनके अनुसार साल 2019 में देश में 10,281 किसानों ने आत्महत्या की जिसमें से 3,927 किसान महाराष्ट्र के हैं। महाराष्ट्र के ये आंकड़े चौंकाने वाले हैं। महाराष्ट्र में वर्ष 2015 से 2018 के दौरान करीब 12,000 किसानों ने आत्महत्या की थी। यह आंकड़े इसलिए भी बताने जरूरी हैं क्योंकि महाराष्ट्र एक ऐसा प्रदेश है, जहां 28 जून, 2017 को बीजेपी के नेतृत्व वाली सरकार के मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस ने छत्रपति शिवाजी महाराज शेतकरी (किसान) सम्मान योजना की घोषणा की थी। 

फडणवीस सरकार की कर्ज माफ़ी फ़ेल

फडणवीस ने इस कर्ज माफी को ऐतिहासिक बताते हुए कुल 34,022 करोड़ रुपये के कृषि लोन को माफ़ करने का वादा किया था। लेकिन इसमें से सिर्फ 19,833.54 करोड़ रुपये के कर्ज को ही माफ किया गया, जो कि कुल आवंटन की तुलना में करीब 58 फीसदी है। यह आंकड़ा राष्ट्रीय आंकड़े से भी कम है। इस योजना से कुल 48.02 लाख किसानों को लाभ मिला। 

फडणवीस सरकार की योजना में कहा गया था कि जिन किसानों के ऊपर 1.5 लाख रुपये से ज्यादा का कर्ज है, उन्हें बाकी राशि का भुगतान करने के बाद इसका लाभ मिल पाएगा और शायद यह एक बड़ा कारण था कि कर्ज से परेशान किसान ऊपर का पैसा भरने में विफल रहे और लाभ से भी वंचित हो गए। इसके बाद दिसंबर, 2019 में जब कांग्रेस, एनसीपी और शिवसेना की गठबंधन वाली नई सरकार बनी तो उन्होंने महात्मा ज्योतिबा राव फुले शेतकरी (किसान) कर्ज मुक्ति योजना की घोषणा की। 

इसके तहत एक अप्रैल 2015 से 31 मार्च 2019 के बीच लंबित दो लाख रुपये तक के फसल ऋण माफ करने की योजना बनी। राज्य सरकार ने इस कार्य के लिए कुल 20,081 करोड़ रुपये का आवंटन किया, लेकिन इसमें से 17,080.59 करोड़ रुपये के ही कृषि लोन को ही माफ किया गया। 

आंकड़ों के हिसाब से देखा जाए तो ठाकरे सरकार ने फडणवीस सरकार के मुकाबले ज्यादा किसानों को लाभ पंहुचाया है! लेकिन किसानों की आत्महत्या की घटनाएं अभी भी थम नहीं रही हैं।

पवार बोले- कर्ज ले सरकार

मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे ने पिछले सप्ताह प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से फोन पर बात कर इस संकट में सहायता करने की अपील की थी और अब पूर्व केंद्रीय मंत्री शरद पवार ने इसे ऐतिहासिक बताते हुए राज्य सरकार को किसानों की मदद के लिए कर्ज लेने की सलाह दी है। कोरोना के कारण प्रदेश आर्थिक संकट में है और ऊपर से केंद्र से मिलने वाले जीएसटी का भुगतान भी लंबित पड़ा हुआ है। सवाल यह उठता है कि आखिर क्या वजह है जो हर बार किसानों को मदद करने की बातें उठने लगती हैं? क्या सरकारें जितना बोलती हैं और जितनी योजनाओं की घोषणाएं करतीं हैं उनका लाभ सिर्फ कागजों में ही दिखाई देता है या वे किसानों तक पहुंच ही नहीं पाती? 

पूरी कर्ज माफी क्यों नहीं?

कर्ज माफी की बात करें तो सितंबर में लोकसभा में कृषि एवं किसान कल्याण मंत्रालय ने नाबार्ड द्वारा इकट्ठा की गई सूचना के आधार पर जो आंकड़े पेश किये हैं उनके मुताबिक़ साल 2014 से लेकर अब तक 10 राज्यों एवं एक केंद्र शासित प्रदेश ने कुल 2,70,225.87 करोड़ रुपये (2.70 लाख करोड़ रुपये) के कृषि कर्ज को माफ करने वादा किया था। लेकिन इसमें से 1,59,174.01 करोड़ रुपये (1.59 लाख करोड़ रुपये) के ही लोन को माफ किया गया है, जो कुल आवंटन की तुलना में करीब 63 फीसदी ही है। यानी कि राज्य सरकारों द्वारा वादा किए जाने के बावजूद करीब 41 फीसदी या यूं कहें कि 1,11,051.86 करोड़ रुपये के ऋण को माफ नहीं किया गया है। 

Farmers problems in maharashtra  - Satya Hindi

किसानों की माली हालत ख़राब

एक अन्य आंकड़ा- देश में प्रति कृषि परिवार की मासिक आय का है। कल्याण के सांसद डॉ. श्रीकांत एकनाथ शिंदे के प्रश्न के लिखित उत्तर में कृषि मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर ने लोकसभा में कहा कि  प्रति कृषक परिवार की राष्ट्रीय मासिक औसत आय 6426 रुपये है जिसमें पंजाब और हरियाणा के कृषक शीर्ष पर हैं। पंजाब में प्रति कृषि परिवार की मासिक औसत आय 18,059 रुपये है जबकि हरियाणा में प्रति कृषि परिवार की मासिक औसत आय 14,434 रुपये, जम्मू कश्मीर में 12,683 रुपये और केरल में 11,888 रुपये है। 

किसानों की समस्याओं पर देखिए चर्चा- 
लेकिन जब बात महाराष्ट्र, उत्तर प्रदेश की हो तो यह आंकड़ा करीब 3000 रुपये तथा बिहार, झारखंड, ओडिशा, सिक्किम, तमिलनाडु, पश्चिम बंगाल और विभिन्न केंद्र शासित प्रदेशों में 2,000 रुपये प्रति माह से भी कम है। गौरतलब है कि इस आय में वेतन/मजदूरी, खेती से कुल कमाई, पशु पालन से कुल कमाई और गैर कृषि व्यवसाय से कमाई शामिल है। 
नरेंद्र मोदी ने साल 2014 के चुनावों में किसानों की आय दो गुना कर देने का वादा किया था। सरकार ने अधिकतम समर्थन मूल्य और कृषि उपज को मुक्त बाजार देने की जो बातें कहीं हैं और सुधार के नाम पर जो विधेयक लाई है, उनके ख़िलाफ़ देश भर में किसान आंदोलन जारी है।

बीमा दावों के भुगतान में गड़बड़

केंद्र सरकार की एक अन्य महत्वाकांक्षी योजना का नाम प्रधानमंत्री कृषि बीमा योजना है। ‘द वायर’ के मुताबिक़, आरटीआई के आधार पर इस योजना को लेकर खबर प्रकाशित की गयी थी जिसके अनुसार बीमा योजना के तहत दावा भुगतान में काफी असमानता देखी जा रही है और कुल दावों का करीब 50 फीसदी हिस्सा सिर्फ 30-45 जिलों में भुगतान किया जा रहा है। रबी फसल 2019-20 के कुल फसल बीमा दावों का सिर्फ 20 फीसदी राशि का भुगतान किया गया है। 

बीमा कंपनियों के भुगतान को लेकर साल 2019 में महाराष्ट्र में बीजेपी के साथ सत्ता में रहते हुए भी शिव सेना ने आंदोलन छेड़ा था और बीमा कंपनियों के कार्यालय में घुसकर तोड़फोड़ की थी। शिवसेना जब कांग्रेस, राष्ट्रवादी कांग्रेस के साथ मिलकर सत्ता में आयी तो प्रदेश के कई जिलों में कई बीमा कंपनियों ने अपनी सेवाएं बंद कर दी। 

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सिंचाई योजनाओं का बुरा हाल

इन योजनाओं के अलावा एक महत्वपूर्ण मुद्दा है सिंचाई के ढांचे का। महाराष्ट्र के मराठवाड़ा और विदर्भ क्षेत्र जो स्थायी रूप से सूखे की चपेट में रहते हैं, के लिए दर्जनों सिंचाई योजनाओं की शुरुआत की गयी लेकिन इनमें से अधिकांश योजनाएं आज भी लंबित पड़ी हैं। 

कांग्रेस-एनसीपी की सरकार में सिंचाई घोटाला खूब गूंजा था और अब देवेंद्र फडणवीस की सरकार के कार्यकाल में 10,000 करोड़ की जलयुक्त शिवार योजना में हुए भ्रष्टाचार का मामला गर्म है।

कृषि विकास दर में गिरावट 

महालेखा परीक्षक ने अपनी रिपोर्ट में जलयुक्त शिवार योजना में अनेक गड़बड़ियों के आक्षेप लगाए हैं। यानी सरकारें कृषि के नाम पर जो भी योजना घोषित करती हैं, वह जमीन पर साकार नहीं हो पाती हैं। और शायद यही कारण है कि कृषि विकास दर में लगातार गिरावट का दौर देखा जा रहा है। वित्त वर्ष 2019-20 में कृषि विकास दर घटकर मात्र 2.8 फीसदी पर आ गई है। 

एक आर्थिक सर्वे की रिपोर्ट के मुताबिक़ वित्त वर्ष 2014-15 के दौरान अर्थव्यवस्था में कृषि और इससे जुड़े क्षेत्रों की हिस्सेदारी 18.2 फीसदी थी लेकिन वित्त वर्ष 2019-20 में कृषि की हिस्सेदारी घटकर 16.5 फीसदी पर आ गई है।

सरकारों को सुध नहीं 

आर्थिक सर्वे में कहा गया है कि भारत जैसे विकासशील देश का आर्थिक परिवर्तन महत्वपूर्ण रूप से इसके कृषि और संबद्ध क्षेत्र के प्रदर्शन पर निर्भर करता है। इसमें यह भी कहा गया है कि कृषि क्षेत्र ग्रामीण आजीविका, रोजगार और राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है और करीब 70 फीसदी ग्रामीण परिवार अपनी आजीविका के लिए मुख्य रूप से कृषि पर निर्भर हैं। इसमें से 82 फीसदी छोटे और मझोले किसान हैं। 

लेकिन यह सब रिपोर्ट्स में लिखा होने के बावजूद भी सरकारें इस  दिशा में गंभीरता से पहल क्यों नहीं करतीं? और शायद यही कारण है कि हमारे देश में खेती और किसान दोनों राम भरोसे हो गए हैं। उनकी जमीनें ही नहीं ज़ेबें भी सूख गयीं हैं और वे किसी झटके को सह कर खड़े होने की स्थिति में नज़र नहीं आ रहे। 

शहरों की तरफ पलायन से लेकर बेरोज़गारी तक की अनेक समस्याओं का विकराल रूप भी खेती के भयावह क्षय से उत्पन्न हो रहा है लिहाजा इस मामले में सरकारों को बोलने से ज्यादा जमीनी बदलाव करके दिखाने की ज़रूरत है।

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संजय राय
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