अंडरवर्ल्ड और एनकाउंटर स्पेशलिस्ट, मुंबई में ये शब्द आम हैं। महानगर पर कभी अंडरवर्ल्ड का वर्चस्व हुआ करता था और उस वर्चस्व को तोड़ने के लिए एनकाउंटर स्पेशलिस्ट बनाये गए थे। इसे संयोग ही कहा जा सकता है कि जिस दौर में एनकाउंटर स्पेशलिस्ट की टीम (सीआईयू यानी क्राइम इंटेलिजेंस यूनिट) बनाने का निर्णय किया गया था, उस समय प्रदेश में शिवसेना का ही मुख्यमंत्री था और आज भी।
उस समय भारतीय जनता पार्टी महाराष्ट्र में शिवसेना के छोटे भाई की भूमिका में थी और उप मुख्यमंत्री तथा गृह मंत्री का कार्यभार संभाल रहे गोपीनाथ मुंडे ने सीआईयू का गठन किया था।
सरकार के निर्णय को उस दौर में बहुत सराहा गया था क्योंकि उसने अंडरवर्ल्ड से लड़ने के लिए पुलिस को उसके अनुकूल तैयार करने की शुरुआत की थी।
लेकिन उसी सीआईयू के एक अधिकारी के कारण आज सरकार की किरकिरी हो रही है, उसकी कार्य प्रणाली पर सवालिया निशान लगाए जा रहे हैं। वह भी ऐसे समय जब मुख्यमंत्री की कुर्सी पर शिवसेना के संस्थापक प्रमुख बालासाहब ठाकरे के पुत्र शिवसेना प्रमुख उद्धव ठाकरे बैठे हैं।
आम पुलिस से अलग
दरअसल एनकाउंटर स्पेशलिस्ट बनाने के लिए जिस टीम का गठन किया गया था उसे अलग से प्राथमिकता दी गयी थी। इस टीम को मिले विशेषाधिकार और मंत्रियों से इनके सीधे संपर्क की वजह से इसमें कार्य करने वाले पुलिसकर्मियों का दर्जा विभाग के अन्य पुलिसकर्मियों के मुक़ाबले अलग तरह से देखा जाने लगा। अंडरवर्ल्ड पर नकेल लगाने के लिए इन्हें जो विशेषाधिकार दिए गए, उसकी वजह से व्यवस्था में बहुत ऊँचे या यूं कह लें रसूखदार लोगों तक उनकी पहुँच हो गयी।
अंडरवर्ल्ड की बोलती बंद करने के लिए 1999 से 2004 तक, पाँच वर्षों में 'एनकाउंटर' में छह सौ से ज़्यादा लोगों को मारा गया।
अंडरवर्ल्ड का राज
ऐसा नहीं था कि इसके पहले मुंबई में एनकाउंटर नहीं हुए थे। मुंबई में एनकाउंटर्स और एनकाउंटर स्पेशलिस्ट के जाल की कहानी को समझने के लिए हमें इसके नेपथ्य में जाना होगा। अपराध की दुनिया की उन गलियों में जहाँ एक समानांतर व्यवस्था या यूं कह लें कि अंडरवर्ल्ड का राज फैलने लगा था। एक ऐसी दुनिया जहाँ सोने की तस्करी और कारोबार का संगम था। जहाँ अपराधी, व्यापारियों तथा राजनेताओं का गठजोड़ बनता जा रहा था।
मन्या सुर्वे का एनकाउंटर
बात अगर एनकाउंटर्स की करें तो 1982 में कुख्यात अपराधी मन्या सुर्वे के एनकाउंटर को इस मामले में मील का पत्थर माना जा सकता है। मन्या सुर्वे का असली नाम मनोहर अर्जुन सुर्वे था। सुर्वे ने सन 1969 में दांडेकर नामक एक व्यक्ति का मर्डर किया था उसे उम्र क़ैद की सजा हुई थी।
14 नवंबर 1979 को मन्या सुर्वे पुलिस को चकमा देकर अस्पताल से भाग निकला था, लेकिन तब तक वह बहुत ख़तरनाक अपराधी बन चुका था। मुंबई आने के बाद उसने अपने गैंग को फिर से खड़ा किया, कई बड़े गैंगस्टर और उस दौर के कुख्यात लुटेरे भी उसकी गैंग में शामिल हो गए थे। सुर्वे की दहशत बढ़ी, मुंबई में क़ानून व्यवस्था पर सवाल उठे और पुलिस की कार्यशैली पर उंगलियाँ उठने लगीं।
1970 और 80 के दशक में मुंबई में मान्या सुर्वे की धौंस चलती थी। लोगों में उसका डर था, वह दाऊद इब्राहिम और उसके बड़े भाई शब्बीर इब्राहिम का जानी दुश्मन था। दाऊद और अफ़ग़ानी माफिया के साथ उसका छत्तीस का आँकड़ा था।
11 जनवरी, 1982 को वडाला में आंबेडकर कॉलेज के पास एक ब्यूटी पार्लर में अपनी गर्लफ्रेंड को लेने मन्या पहुँचा तो मुंबई पुलिस के इशाक बागवान की टीम ने एनकाउंटर में मन्या सुर्वे को ढेर कर दिया था। पुलिस सूत्रों के मुताबिक़, मन्या सुर्वे की गर्लफ्रेंड विद्या जोशी से ही पुलिस को उस तक पहुँचने का रास्ता मिला था। मन्या की मौत कुछ लोगों के लिए राहत और ख़ुशी देने वाली ख़बर थी। यह भी कहा जाता है कि मन्या सुर्वे उस दौरान दाऊद से कई गुना ज़्यादा ताक़तवर था।
दाऊद इब्राहिम गैंग में फूट
मन्या के एनकाउंटर के बाद मुंबई में दाऊद इब्राहिम की ताकत बढ़ने लगी। करीम लाला, हाजी मस्तान, दाऊद इब्राहिम, छोटा राजन, अरुण गवली, अश्विन नाईक जैसे माफियाओं की आपसी रंजिश में आए दिन गैंगवार और महानगर की गलियाँ खून से रंगीन होती थीं। उसी दौर में मुंबई में श्रृंखलाबद्ध तरीके से बम धमाके होते थे। धमाकों का मास्टर माइंड दाऊद अपने खास गुर्गों के साथ विदेश भाग गया।
कहा जाता है कि दो महीने पहले हुए दंगों में मुसलमानों के मारे जाने का बदला लेने के लिए दुबई में बैठे दाऊद ने 13 मार्च, 1993 को कथित तौर पर 13 बम विस्फोट करवाए और कराची भाग गया। इन विस्फोटों के बाद उसका गिरोह सांप्रदायिक आधार पर बँट गया। ना सिर्फ छोटा राजन अलग हुआ, बल्कि दाऊद गैंग में छोटा शकील के कद बढ़ने से खफ़ा अबू सलेम ने भी अपनी अलग गैंग बना ली और उसके माध्यम से बॉलीवुड पर अपना शिकंजा कसता गया।
निशाने पर फ़ाइनेंसर
सालाना 50,000 करोड़ रुपए के अनुमानित कारोबार वाली डी कंपनी में पैसे की लूट बढ़ने लगी और ज़मीनी लड़ाइयों में इन गिरोहों ने एक-दूसरे के फाइनेंसरों को निशाना बनाना शुरू कर दिया। ये फाइनेंसर व्यापारी, बिल्डर और फ़िल्म निर्माता हुआ करते थे।
अंडरवर्ल्ड ने नागरिकों को निशाना बनाना शुरु कर दिया। कोई बड़ी पार्टी आयोजित करे या मर्सिडीज़ कार खरीदे, बंगला या बड़ा घर खरीदे, उसे माफिया की तरफ से वसूली का फोन आ जाता था। दिनदहाड़े शूटआउट होना आम बात थी और मुंबई पुलिस चुपचाप या बाद में उसी तरह से घटनास्थल पर पहुँचती थी जैसे बॉलीवुड की फिल्मों में अपराधियों के फ़रार होने पर पुलिस पहुँचती है।
प्रदेश में पहली बार सत्ता में आयी बीजेपी-शिवसेना सरकार की विश्वसनीयता घट रही थी। मुंबई अपने एक इशारे पर चलाने तथा सरकार का रिमोट कंट्रोल अपने हाथ में होने की बात करने वाले बाला साहब ठाकरे की प्रतिष्ठा पर सवाल उठने लगे।
ऐसे में तत्कालीन गृह मंत्री गोपीनाथ मुंडे ने गैंगस्टरों का सफाया करने के लिए पुलिस को एक तरह से असीमित अधिकार दे दिए। ये अधिकार सीआईयू के गठन के रूप में दिए गए। यहीं से शुरू होता है अंडरवर्ल्ड माफ़िया और एनकाउंटर का अध्याय।
नई पुलिस ईकाई
पुलिस विभाग ने 1999 में अपने नवगठित सीआइयू के लिए अधिकारियों की भर्तियाँ शुरु कर दीं। इसके लिए व्यावहारिक अनुभव रखने वाले पुलिसवालों को चुना गया, जिनके पास मुख़बिरों का व्यापक तंत्र था और जिनका इतिहास बताता था कि वे गोलियाँ दागने से डरते नहीं।
मुंबई के एनकाउंटर स्पेशलिस्टों में से कम-से-कम 12 नासिक स्थित पुलिस ट्रेनिंग एकेडमी के एक ही बैच के बनाये गए। 1983 के इस बैच में विजय सालस्कर, प्रफुल्ल भोंसले, अरुण बोरुडे, असलम मोमिन, प्रदीप शर्मा और रवींद्रनाथ आंग्रे ने महाराष्ट्र पुलिस में शामिल होने के लिए एक साथ ट्रेनिंग ली थी।
एकेडमी में उन्होंने हत्या, डकैती, अनाधिकार प्रवेश, बलात्कार सहित 16 अपराधों से निबटने से लेकर एफ़आइआर दर्ज करने और चार्जशीट दायर करने तक पुलिस के काम की बुनियादी बातें सीखी। 1983 में पास आउट होने वाले इन अधिकारियों में 200 उम्मीदवारों में अलग नज़र आने वाली कोई अलग बात नहीं थी, लेकिन मुंबई पुलिस की क्राइम यूनिट में पहुँचने और प्रसिद्धि की राह पर चल पड़ने के बाद इनकी दुनिया ही बदल गयी।
सीआइयू के इन अधिकारियों ने गैंगस्टरों को सुनियोजित ढंग से मौत के घाट उतारा।
चुनिंदा पुलिसवालों को असीमित अधिकार दिए गए थे। सरकार के मंत्रियों से ये पुलिस अधिकारी सीधे संपर्क में रहा करते थे और इस वजह से आईपीएस श्रेणी के बड़े अधिकारियों और इनके बीच एक शीत युद्ध जैसा माहौल भी हुआ करता था।
गैंगस्टरों का सफाया
मंत्रियों या नेताओं से सीधे संपर्क होने की वजह से ही शायद सचिन वाजे शिवसेना के सदस्य बन गए तो प्रदीप शर्मा ने नालासोपारा विधानसभा से चुनाव लड़ लिया।
सीआईयू के अधिकारी फोन टेप कर सकते थे। मुखबिरों को गुप्त सरकारी पैसा बाँट सकते थे। मुख़बिरों को 1 से 15 लाख रुपए तक के नकद इनाम दिए जाते थे। गैंगस्टरों का अपहरण किया जाता था, उन्हें हिरासत में रखा जाता था और फिर गोली से उड़ा दिया जाता था। इसकी पटकथा उतनी रटी रटाई होती थी, जैसे किसी बॉलीवुड फिल्म की हो-गैंगस्टर ने पुलिस पर गोली चलाई, पुलिस ने जवाबी गोली चलाई और गैंगस्टर मारा गया। 1999 से 2004 के बीच में सीआइयू ने अंडरवर्ल्ड का लगभग सफाया ही कर दिया था। प्रदीप शर्मा, दया नायक, विजय सालसकर, सचिन वाजे, रविन्द्र आंग्रे जैसे पुलिस अधिकारी घर-घर में चर्चित नाम बन गए थे।
‘अब तक छप्पन’
पुलिस अधिकारियों की इस छवि का लाभ उठाने में बॉलीवुड भी पीछे नहीं रहा। अब तक अपनी फ़िल्मों में पुलिस को फिसड्डी दिखाने वाले बॉलीवुड ने इन पर कई सारी फिल्में बना दी। इनमें सबसे उल्लेखनीय थी शिमित अमीन के निर्देशन में बनी फिल्म ‘अब तक छप्पन’।
संजय गुप्ता की ‘शूटआउट ऐट वडाला’ 1982 के मुंबई पुलिस के पहले एनकाउंटर पर आधारित थी। डी कंपनी बनाने वाले वर्मा की ‘डिपार्टमेंट’ में अभिनेता संजय दत्त और राणा दग्गूबती ने मोटे तौर पर प्रदीप शर्मा और दया नायक की भूमिका निभाई है।
आरोप
1999 से 2004 के बीच जब दाऊद और छोटा राजन गैंग में टकराव चरम पर था।
क्राइम यूनिट के अधिकारियों पर आमतौर पर आरोप लगते रहे कि वे छोटा राजन से मिलने वाली ख़बरों के आधार पर दाऊद के गुंडों का एनकाउंटर करते हैं। बाद में यह भी आरोप लगे कि दाऊद गैंग से जानकारी हासिल कर छोटा राजन के कई गुर्गों को भी निशाना बनाया गया।
उस दौरान बिल्डर्स की आपसी रंजिश के मामलों में क्राइम यूनिट की भूमिका को लेकर भी आरोप लगे। यह कहा गया कि एक बिल्डर से मिलकर दूसरे के ख़िलाफ़ कार्रवाई की गयी।
उद्योगपति मुकेश अंबानी के आवास 'एंटीलिया' के पास 25 फरवरी को विस्फोटकों से भरी गाड़ी की बरामदगी और उसके करीब 10 दिन बाद 5 मार्च को वाहन मालिक मनसुख हिरेन की संदिग्ध परिस्थितियों में मौत के मामले में गिरफ़्तार हुए सचिन वाजे हों या प्रदीप शर्मा, सभी ने जेल की हवा खाई है। क्राइम ब्रांच में पोस्टिंग के बाद से ही वाजे सुर्ख़ियों में आये थे।
सचिन वाजे
वाजे 1990 में सब-इंस्पेक्टर के रूप में राज्य पुलिस में भर्ती हुए थे। सबसे पहले उनकी पोस्टिंग नक्सल प्रभावित गढ़चिरौली में हुई थी और फिर उन्हें ठाणे में तैनाती मिली। ठाणे से मुंबई तबादले के बाद वाजे की तैनाती क्राइम ब्रांच में हुई और इसी दौरान उनकी पहचान एक एनकाउंटर स्पेशलिस्ट की बनी।
वाजे की अंडरवर्ल्ड के 60 से ज्यादा शार्प शूटर्स के एनकाउंटर में उनकी सक्रिय भूमिका बतायी जाती है। 80 से अधिक अपराधियों का एनकाउंटर करने वाले दया नायक भी पिछले कुछ सालों में खासा विवादों में भी घिरे रहे जब आय से अधिक उनकी संपत्ति को लेकर उनके ख़िलाफ़ जाँच शुरू की गई थी।
दया नायक
कर्नाटक के एक छोटे से गांव से मुंबई पुलिस तक की दया नायक की जिंदगी भी 1995 में दया जुहू में सब इंस्पेक्टर के तौर पर नियुक्त किए गए। 1996 में नायक ने पहला एनकाउंटर किया था। अब तक 83 का आँकड़ा छू चुका है।
महाराष्ट्र पुलिस के वरिष्ठ पुलिस निरीक्षक एनकाउंटर स्पेशलिस्ट प्रदीप शर्मा ने 150 से ज्यादा अपराधियों और आतंकियों का एनकाउंटर किया है। प्रदीप शर्मा को 2008 में लखन भैया फर्जी मुठभेड़ मामले में शामिल होने के आरोप में निलंबित कर दिया गया था। इस मामले में 13 अन्य पुलिसकर्मियों की गिरफ्तारी भी हुई थी। लंबे समय तक निलंबित रहने के बाद 2013 में उन्हे फिर से पुलिस सेवा में शामिल किया गया।
प्रदीप शर्मा
प्रदीप शर्मा को अंडरवर्ल्ड में अपने नेटवर्क के लिए भी जाना जाता है। वे 1983 में महाराष्ट्र पुलिस सेवा में शामिल हुए। जिसके बाद उन्हें मुंबई क्राइम ब्रांच टीम का हिस्सा बनाया गया। शर्मा ने एक के बाद एक कई मुठभेड़ में नाम कमाया। शर्मा ने दाऊद के भाई इकबाल कासकर को भी गिरफ़्तार किया और ज़बरन वसूली रैकेट का भंडाफोड़ किया था।
रवींद्र आंग्रे
रवींद्र आंग्रे के नाम पर मुंबई और ठाणे में करीब 52 से ज्यादा एनकाउंटर दर्ज हैं। उन्होंने डोंबिवली में माफिया सुरेश मंचेकर और उसके गैंग को मौत के घाट उतारा था।
आंग्रे को कथित तौर पर एक बिल्डर से वसूली करने के आरोप में गिरफ्तार किया गया। आंग्रे को ठाणे सेंट्रल जेल की अंडा सेल में रखा गया, था जहां दुर्दांत अपराधियों को रखा जाता है। उस समय सेल में रहने वाले बाकी कैदियों ने सैल्यूट ठोंक कर उनका मजाक उड़ाया था।
फर्जी एनकाउंटर और हफ्ता वसूली के आरोप में रवींद्र 14 माह जेल तक जेल में रहे थे परंतु आरोप सिद्ध न होने पर उन्हें छोड़ दिया गया।
सीआइयू ख़त्म
मुंबई पुलिस ने 2004 में सीआइयू को खत्म कर दिया था। उस समय के पुलिस आयुक्त डी. शिवानंदन ने एक किताब भी लिखी है। एनकाउंटर स्पेशलिस्ट पर शिवानंदन ने लिखा, “मुंबई में अपराध या माफिया को शर्मा जैसे व्यक्ति विशेष ने नहीं बल्कि मुंबई पुलिस के सामूहिक प्रयास से नियंत्रित किया गया।"
मुंबई पुलिस का आख]fरी एनकाउंटर 1 नवंबर, 2010 को चेंबूर में डॉन अश्विन नाईक के साथी मंगेश नारकर के एनकाउंटर को कहा जा सकता है। नारकर को हत्या के एक मामले में आजीवन कारावास की सजा हुई थी। उसे 6 अक्टूबर, 2010 को उसके एक साथी के साथ नवी मुंबई की तलोजा जेल से नासिक जेल ले जाया जा रहा था, जब दोनों पुलिस टीम पर मिर्ची पाउडर डाल पुलिस हिरासत से भाग गए थे। नारकर का साथी बाद में पकड़ लिया गया था।
नारकर ने फ़रारी के बाद बिल्डरों को हफ्ते के फोन करने शुरू कर दिए थे। हफ़्ते की ऐसी ही रकम लेने 1 नवंबर, 2010 को जब वह चेंबूर आया तो इंस्पेक्टर अरुण चव्हाण, श्रीपद काले व नंदकुमार गोपाले के साथ हुई मुठभेड़ में वह मारा गया।
ये तीनों अधिकारी उन दिनों क्राइम ब्रांच के प्रॉपर्टी सेल में कार्यरत थे। जिन देवेन भारती के अंडर में यह पूरा ऑपरेशन हुआ था, वह तब क्राइम ब्रांच में अतिरिक्त पुलिस आयुक्त हुआ करते थे। वडाला के सहकार नगर के रहने वाले नारकर पर 18 से ज्यादा मामले अलग-अलग पुलिस स्टेशनों में दर्ज थे।
उसने जेल से ही कई वारदात को अंजाम दिया था। वह शायद पहला आरोपी था, जिस पर जेल में रहते हुए मकोका लगा था। वह जिस अश्विन नाईक गैंग से जुड़ा हुआ था, उस अश्विन के भाई अमर नाईक को 1996 में नागपाडा में विजय सालसकर ने एनकाउंटर में मारा था।
नारकर एनकाउंटर ज्यादा चर्चा में नहीं रहा या यूं कह लें इसमें कोई राजनीतिक रंग नहीं था। वैसे मुंबई के एनकाउंटर विशेषज्ञों में एक अध्याय आईपीएस अफसर हिमांशु रॉय का भी है, जिन्होंने कैंसर की बीमारी के चलते खुदकुशी कर ली थी। उन्होंने अपनी सर्विस रिवॉल्वर से खुद को गोली मार ली थी।
1988 बैच के आईपीएस अधिकारी हिमांशु रॉय का नाम 2013 में स्पॉट फिक्सिंग मामले में विंदु दारा सिंह की गिरफ्तारी, अंडरवर्ल्ड डॉन दाऊद इब्राहिम के भाई इकबाल कासकर के ड्राइवर आरिफ़ के एनकाउंटर, पत्रकार जेडे हत्या प्रकरण, विजय पालांडे-लैला खान डबल मर्डर केस जैसे अहम मामलों से जुड़ा रहा। अंडरवर्ल्ड कवर करने वाले पत्रकार जे डे की हत्या की गुत्थी सुलझाने में भी हिमांशु रॉय ने अहम भूमिका निभाई थी। लेकिन उन पर वे आरोप कभी नहीं लगे जो सीआईयू के अन्य सदस्यों पर लगते रहे हैं।
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