जो हार को जीत में बदल दे उसे बाज़ीगर कहते हैं!! यह फ़िल्मी डायलॉग बीजेपी के नेता और कार्यकर्ता बड़े स्वाभिमान के साथ अपनी पार्टी के कुछ केंद्रीय नेताओं के लिए कहा करते थे लेकिन देश के एक महत्वपूर्ण राज्य में यह डायलॉग एकदम उल्टा पड़ गया। यहां बीजेपी नेता हारी बाज़ी जीते नहीं बल्कि जीती बाज़ी हार गए और वह भी कुछ ही दिनों के अंतराल में दो बार! क्या यह सब 'सत्ता के मद', 'हमको कौन रोक सकता है' के घमंड और 'जाएगा तो जाएगा कहां'! जैसी सोच की वजह से हुआ?
कुछ महीनों पहले तक अजेय दिखने वाली बीजेपी की यह दुर्दशा महाराष्ट्र में कैसे हुई, इसके विश्लेषण आने वाले समय में होते रहेंगे लेकिन एक बात साफ़ है कि इस हार के लिए बीजेपी नेताओं को किसी और की तरफ़ उंगली उठाने या उस पर आरोप लगाने की ज़रूरत नहीं है। पूरे राजनीतिक घटनाक्रम को देखते हुए कहा जा सकता है कि बीजेपी की इस स्थिति के लिए कोई और नहीं वह स्वयं जिम्मेदार है और इस पर पार्टी के नेताओं को भी विचार करना चाहिए। लेकिन शायद वे अभी भी इस पर विचार करेंगे ऐसा लगता नहीं है। जिस तरह से प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस बयान दे रहे हैं, इन बयानों को सुनकर तो ऐसा बिलकुल नहीं लगता।
सवालों का जवाब दे पाएगी बीजेपी?
विधानसभा चुनाव के बाद जब महाराष्ट्र में सरकार बनाने का खेल शुरू हुआ था तो पहले दिन से ही फडणवीस ने शिवसेना पर आरोपों की झड़ी लगानी शुरू कर दी थी। फडणवीस ही नहीं उनके मंत्रिमंडल के सहयोगी भी शिवसेना को इस बात के लिए घेरते रहे कि वह बीजेपी के साथ मिलकर सरकार क्यों नहीं बना रही है। बीजेपी नेताओं ने इसके कारण पर विचार कर उसका समाधान निकालने के बजाय शिवसेना पर सिर्फ़ और सिर्फ़ यही आरोप लगाया कि 'उसका हिंदुत्व कहां गया', 'उसकी विचारधारा कहां गयी'! लेकिन आज की राजनीति में यही सवाल बीजेपी के नेताओं से पूछा जाए कि 'उनका हिंदुत्व कहां गया या उनकी विचारधारा कहां गयी' तो शायद ही उनकी पार्टी का नेता इन सवालों के सही या सलीके से जवाब दे पाएंगे।महाराष्ट्र में बीजेपी का विस्तार, जिसे वह अपनी विचारधारा का फैलाव बताती है, क्या उसकी नीतियों या विचारधारा के दम पर हुआ है? या दूसरी पार्टी के नेता आयात कर या उनको तोड़कर अपनी पार्टी में शामिल करने से, यह बात अब किसी से छुपी नहीं है।
जिस उद्धव ठाकरे को बीजेपी नेता विचारधारा की सीख दे रहे थे, उन्हें मुख्यमंत्री बनने से रोकने के लिए उन्होंने अपने ख़िलाफ़ चुनाव लड़ने वाले नेता से रातों-रात हाथ मिलाया उसे वे क्या कहेंगे? 2014 के विधानसभा चुनाव में दिए गए भाषण हों या इस बार की चुनावी सभाओं में दिए बयान, बीजेपी के नेताओं ने अजीत पवार और उनकी पार्टी को 'नेशनल करप्ट पार्टी' कहकर संबोधित किया।
कहां गया पारदर्शी सरकार का दावा?
देवेंद्र फडणवीस अजीत पवार के बारे में कहते थे, ‘हमारी सरकार आयी तो अजीत दादा जेल में चक्की पीसिंग-चक्की पीसिंग।’ लेकिन उन्हीं अजीत पवार के दम पर रातों-रात उन्होंने मुख्यमंत्री पद की शपथ ली और कार्यभार संभालते ही पहला आदेश जो दिया वह था - अजीत पवार के ख़िलाफ़ सिंचाई घोटाले की जांच बंद कर उन्हें दोषमुक्त करना। ऐसे में कहां गया उनका पारदर्शी सरकार चलाने का दावा और कहां गयी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की वह सीख जो बीजेपी का हर नेता दोहराता रहता है कि ना खाऊंगा ना खाने दूंगा।
दिल्ली केंद्रित पार्टी बनी बीजेपी
बीजेपी और उसके नेता हमेशा कांग्रेस पर यही आरोप लगाते रहे हैं कि यह पार्टी 'एक परिवार' की पार्टी है और उसके सारे आदेश दिल्ली से आते हैं! लेकिन यह कहते-कहते बीजेपी कब दिल्ली केंद्रित पार्टी बन गयी यह शायद इसके नेताओं को भी पता नहीं चला या ये वे इसे बताना नहीं चाहते। लेकिन महाराष्ट्र के घटनाक्रम को देखें तो कुछ बातें स्पष्ट नज़र आती हैं, जो शायद आज की परिस्थितियों में बीजेपी के नेताओं को गले नहीं उतरें लेकिन आगे जाकर वह इस पर विचार ज़रूर करेंगे!
नेताओं के पास जानकारी की कमी!
आज कांग्रेस और बीजेपी की अवस्था में एक मूल अंतर है। कांग्रेस की केंद्रीय सत्ता भले एक परिवार के हाथों में है लेकिन उसने महत्वपूर्ण पदों पर लोगों को नियुक्तियां करते समय एक बात का ख्याल ज़रूर रखा है और वह है विषयों की अच्छी जानकारी का। बीजेपी में इस बात की कमी अक्सर दिखाई देने लगती है। बात आर्थिक मुद्दे की हो, विदेश नीति या राजनीति की इस पार्टी के नेता पिछले कई सालों से सिर्फ़ और सिर्फ़ एक ही बात दोहराते हैं कि कांग्रेस ने 70 साल में क्या किया? नेहरु नहीं होते तो भारत क्या से क्या बन गया होता!
बीजेपी का नेतृत्व पार्टी नेताओं के पास विषयों की अच्छी जानकारी होने की बात को लेकर कितना गंभीर है, यह वह जाने लेकिन इसके अभाव का एक झटका उसे महाराष्ट्र में लगा है और इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता। शिवसेना के साथ मिलकर सरकार बनाने के लिए उसके पास पूर्ण संख्या बल था लेकिन राजनीतिक अनुभव की कमी ने उसका खेल बिगाड़ दिया और यह कहना कोई अतिश्योक्ति नहीं होगा। दूसरी ओर, राजनीतिक तजुर्बे के खेल से एनसीपी और कांग्रेस विपक्ष में बैठने के बजाय सरकार में सहभागी बन गयीं।
क्या बीजेपी की मुश्किलें बढ़ेंगी?
आज शिवसेना, एनसीपी और कांग्रेस की सरकार को लेकर कितने भी सवाल खड़े किये जाएं जैसे कि - यह चलेगी या नहीं? यह तीन पहिये वाला ऑटो रिक्शा है? यह विपरीत विचारों का गठबंधन है लेकिन एक बात तो माननी पड़ेगी कि इन दलों ने महाराष्ट्र में वर्षों से स्थापित राजनीतिक समीकरणों को बदल डाला है। इस नए समीकरण का आने वाले दिनों में कितना असर पड़ेगा यह सबके सामने आएगा लेकिन ग्राम पंचायत से लेकर मुंबई महानगरपालिका तक में यह नया समीकरण बीजेपी को परेशान करेगा, इससे इनकार नहीं किया जा सकता।
शरद पवार ने दिखाया दम
सरकार बनाने के संघर्ष में बीजेपी के नेताओं का राजनीतिक अनुभव एनसीपी प्रमुख शरद पवार के समक्ष बौना दिखाई दिया, इससे इनकार नहीं किया जा सकता। पिछले लोकसभा चुनाव और उसके बाद हुए विधानसभा चुनाव में जिस तरह से बीजेपी के नेताओं ने - 'शरद पवार ने 70 सालों में क्या किया?, पवार के दिन ख़त्म हो गए, कांग्रेस-एनसीपी को मिलाकर 20 सीटें आएंगी' की बातें कहीं, उनसे शरद पवार का कद और बड़ा हुआ है और इस बात को सबने देखा है। पवार ने मुंबई में बैठे-बैठे बीजेपी के नेताओं की दिल्ली से चली जा रही राजनीतिक चालों को काटा और उनके हर दांव को फ़ेल किया, चाहे वह अजीत पवार की बग़ावत ही क्यों ना रही हो।
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