महाराष्ट्र में काफ़ी मशक्कत के बाद उद्धव ठाकरे के नेतृत्व में शिवसेना, एनसीपी और कांग्रेस गठबंधन की सरकार तो बन गई है, लेकिन क्या यह नयी सरकार अब आर्थिक मोर्चे पर चुनौतियों से निपट पाएगी? राज्य की आर्थिक हालत ठीक नहीं है, रोज़गार मुहैया कराने की भी चुनौती है और ऐसे में न्यूनतम साझा कार्यक्रम में की गई किसानों की क़र्ज़माफ़ी की घोषणा के लिए भी बड़ी राशी की ज़रूरत होगी।
प्रदेश पर पाँच लाख करोड़ का क़र्ज़ है जो पिछले पाँच सालों में तेज़ी से बढ़ा है। वर्तमान केंद्र सरकार के जो नेता या अर्थशास्त्र विशेषज्ञ हैं वे मुंबई स्थित मुंबई स्टॉक एक्सचेंज के क़ारोबार को ही अर्थ-व्यवस्था का संकेतक मानते हैं और इस नयी सरकार आने से उसमें कोई गिरावट देखने को नहीं मिली है लिहाज़ा यह नहीं कहा जा सकता कि देश के कुछ चुनिंदा औद्योगिक घरानों की सेहत पर प्रदेश की सत्ता परिवर्तन का कुछ असर पड़ने जा रहा है। वस्तु और सेवा कर में निरंतर दर्ज हो रही गिरावट का राष्ट्रव्यापी असर है और महाराष्ट्र को भी इसका सामना करना पड़ रहा है। तीनों ही दलों ने मिलकर एक न्यूनतम साझा कार्यक्रम या यूँ कह लें कि एक सामूहिक घोषणा पत्र तैयार किया है उसमें किसानों की पूर्ण क़र्ज़ माफ़ी इसमें सबसे प्रमुख है। यानी सरकार सबसे पहले जो काम करने जा रही है वह 55 हज़ार करोड़ का क़र्ज़ माफ़ करना है।
यह रक़म महाराष्ट्र की एक साल की योजना ख़र्च के बराबर है इसलिए यह सवाल आता है कि इतनी बड़ी राशि सरकार कहाँ से लाएगी या उसके लिए क्या-क्या इंतज़ाम करने वाली है। पैसे के इस इंतज़ाम को लेकर सबसे पहला हथौड़ा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के सपनों की परियोजना 'बुलेट ट्रेन' पर पड़ने वाला है। इस परियोजना में प्रदेश सरकार की जो हिस्सेदारी है उसे ख़त्म कर वही पैसा किसानों की क़र्ज़ माफ़ी पर ख़र्च करने पर आम सहमति-सी भी बनी हुई है। वैसे भी गुजरात-महाराष्ट्र के सीमावर्ती किसान अपनी ज़मीन के अधिग्रहण को लेकर आंदोलित हैं और सरकार अब बदल गयी है तो ये किसान अपनी माँगें मनवाने के लिए ज़रूर दबाव बनाएँगे।
10 रुपये में थाली, स्नातक डिग्री तक निशुल्क शिक्षा, शिक्षा पर बजट का 2 % हिस्सा खर्च करना, सभी महानगरपालिका क्षेत्रों में 500 वर्ग फुट तक के घरों पर प्रॉपर्टी टैक्स माफ़ी जैसी कई योजनाएँ लागू करने की बात इन तीनों दलों ने अपने-अपने घोषणा पत्रों में कही थी।
उन्हें न्यूनतम साझा कार्यक्रम के तहत स्वीकार भी किया गया है। अब इन परियोजनाओं के लिए पैसा जुटाना सरकार के लिए एक चुनौती जैसा होगा। एक और महत्वपूर्ण वादा रहा है बेरोज़गारों को 5000 रुपये महीना बेरोज़गारी भत्ता का। सरकार को इस योजना को लागू करने में कितने रुपये की आवश्यकता होगी इसका आकलन भी करना होगा। किस आयु वर्ग के शिक्षित युवा को सरकार बेरोज़गार मानेगी यह तब पता चलेगा जब वह इस योजना का कोई प्रारूप तैयार करेगी।
लेकिन एक बात तो स्पष्ट है कि इस प्रकार की योजना का सरकार की तिजोरी पर प्रतिकूल असर होता है और ढाँचागत परियोजनाओं पर उसका असर पड़ता है। मुंबई में मेट्रो का काम तेज़ी से चल रहा है वह भी सरकार की एक ज़िम्मेदारी बन गयी है। देवेंद्र फडणवीस सरकार द्वारा काग़ज़ों में घोषित ढाँचागत परियोजनाओं को तो सरकार एक बार रोक सकती है लेकिन जो प्रोजेक्ट्स चल रहे हैं उसके लिए तो पैसा जुटाना ही पड़ेगा। औद्योगिक मंदी की वजह से वैसे ही निवेश ठप-सा पड़ा है। जीएसटी के कारण छोटे क़ारोबार बंद होते जा रहे हैं। ऐसे में सरकार को आर्थिक आधार मज़बूत करना एक अग्नि परीक्षा जैसा ही साबित होगा।
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