क्या महाराष्ट्र में असली ‘ऑपरेशन लोटस’ अब शुरू होने वाला है? देश के ग़ैर भाजपाई राज्यों में विधायकों की खरीद-फरोख्त कर सरकारों को गिराने के खेल के लिए मीडिया और सोशल मीडिया में इस्तेमाल किये जाने वाले इस शब्द की जिस तरह से व्याख्या होती है, उसके हिसाब से तो महाराष्ट्र में ‘ऑपरेशन लोटस’ सफल हो गया और शिवसेना के विभाजन के परिणामस्वरूप प्रदेश की सत्ता की चाबी बीजेपी के हाथों में आ गयी। लेकिन क्या शिवसेना के इतिहास में विधायकों व सांसदों की सबसे बड़ी फूट के बाद भी शिवसेना एक चुनौती बनकर खड़ी है या रह सकती है? इस सवाल का जवाब तो केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह के मुंबई दौरे में उनके वक्तव्यों में खोजा जा सकता है।
महाराष्ट्र में गणपति महोत्सव की धूम है और जनमानस अपने आराध्य देव की पूजा उपासना कर सुख समृद्धि की कामना कर रहा है। लेकिन सत्ता के उपासक अपने ही चक्रव्यूह बनाने में व्यस्त नजर आ रहे हैं। अमित शाह सपरिवार मुंबई में आये तो ‘लाल बाग़ के राजा’ का दर्शन करने थे लेकिन व्यस्त दिखे पार्टी नेताओं के साथ राजनीतिक रणनीति बनाने में। और इसी रणनीति के दौरान उन्होंने चुनौती दे डाली, उद्धव ठाकरे को जमीन दिखाने की। उन्होंने कहा कि 'राजनीति में धोखा’ नहीं चलेगा। इस यात्रा में शाह ने जिस तरह से ‘मुंबई मिशन’ की बात कही उससे स्पष्ट संकेत मिलते हैं कि उन्होंने आने वाले मुंबई महानगरपालिका के चुनावों की कमान अपने हाथों में ले ली है और वे येनकेन प्रकारेण ठाकरे परिवार के इस सत्ता केंद्र पर कब्ज़ा करना चाहते हैं। यह बात बैठक के दौरान अमित शाह के बयानों में भी नजर आयी। उन्होंने स्पष्ट रूप से कहा कि अब समय आ गया है मुंबई पर भाजपा की सत्ता स्थापित करने का।
मुंबई प्रदेश भाजपा पदाधिकारियों के साथ करीब दो घंटे चली इस बैठक में प्रदेश में सत्ता परिवर्तन की ख़ुशी की भी झलक स्पष्ट नज़र आ रही थी और यह भी इशारा साफ़ दिख रहा था कि ‘सत्ता परिवर्तन’ का सूत्रधार कौन था! सत्ता परिवर्तन के बाद अमित शाह की मुंबई की यह पहली यात्रा थी और उनके निशाने पर ‘मुंबई महानगरपालिका’ रही। शायद अमित शाह इस हक़ीक़त को अच्छी तरह समझते हैं कि मुंबई पर कब्ज़ा किये बगैर ना तो वे शिवसेना को साध पाएंगे और ना ही महाराष्ट्र की सत्ता को! महाविकास आघाडी का फॉर्मूला 2024 के लोकसभा चुनाव में उनके लिए कोई नयी परेशानी खड़ा नहीं कर दे इसलिए वे मुंबई महानगरपालिका चुनावों में ही उसकी संभावनाओं को ख़त्म कर देना चाहते हैं। यह टास्क इतना सहज नहीं है, शायद यही कारण है कि अमित शाह पूरी रणनीति की कमान अपने हाथों में रखे हुए नज़र आये।
एक सवाल यह है कि मुंबई महानगरपालिका के 2017 में हुए चुनाव में भाजपा सबसे बड़ी पार्टी बनने से मात्र दो कदम पीछे रह गयी थी तो इस बार उसके लिए यह राह इतनी कठिन तो नहीं होनी चाहिए?
राज्य सरकार के मंत्री संत्री होने के बावजूद आखिर ऐसी क्या परिस्थितियाँ हैं कि पार्टी के सबसे बड़े रणनीतिकार और केंद्रीय गृहमंत्री को कमान अपने हाथों में लेनी पड़ रही है! यानी राह आसान नहीं है। बीएमसी के साल 2017 का चुनाव शिवसेना और भाजपा ने अलग-अलग लड़ा था, हालाँकि उस समय दोनों ही पार्टियाँ प्रदेश की सत्ता में साथ में थीं।
2017 के बीएमसी चुनाव में शिवसेना 84, बीजेपी 82, कांग्रेस को 31 सीटों के साथ नंबर तीन की स्थिति पर संतोष करना पड़ा था। राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी को नौ तो राज ठाकरे की महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना को सिर्फ़ सात सीटें मिली थीं।
उस समय राज्य के मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस ने चुनाव की रणनीति अपने हाथों में ले रखी थी। साल 2012 में बीएमसी में कांग्रेस की 52 सीटें थीं और भाजपा की 3। यह नंबर 82 तक पहुँचने का कारण फडणवीस ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का विकास का एजेंडा बताया था। पिछले चुनाव की तरह इस बार भी बीजेपी अपने ही दम पर चुनाव लड़ने वाली है लेकिन इस बार चुनावी चौसर के मोहरे और लड़ाई के तेवर भी बदले हुए हैं। शह मात के इस खेल में अस्तित्व की लड़ाई सिर्फ ‘ठाकरे’ की ही नहीं है बल्कि चुनौती शाह को भी है। वे मुंबई में आकर ‘ठाकरे को जमीन दिखाने’ की धमकी तो दे गए हैं लेकिन सफल नहीं हो पाए तो सवाल मुंबई ही नहीं दिल्ली की सत्ता के लिए भी खड़े होने लगेंगे!
मुंबई में हार का मतलब उद्धव ठाकरे पर ‘जनमत के साथ धोखा’ के आरोप को धराशायी होना होगा जो भाजपा लगातार लगाती रही है। इस हार से 2024 की राह भी मुश्किल हो जायेगी। उत्तर प्रदेश के बाद संसद में सबसे अधिक सांसद पहुँचाने वाले राज्य में यदि भाजपा का समीकरण बिगड़ता है तो देश का राजनीतिक परिदृश्य भी बदल सकता है क्योंकि ऐसी ही कुछ स्थितियाँ बिहार में भी पैदा हो गयी हैं। ऐसे में अमित शाह द्वारा बीएमसी चुनाव को प्रतिष्ठा का प्रश्न बना लेना एक नए प्रकार के राजनीतिक समीकरण का इशारा कर रहा है।
अमित शाह की इस यात्रा को राजनीतिक विश्लेषक अलग-अलग नज़रिये से देख रहे हैं। राजनीतिक विश्लेषक अभय देशपांडे का मानना है कि भाजपा नेतृत्व को यह पता है कि शिवसेना मुंबई मनपा के चुनाव से फिर से नयी जमीन तैयार कर सकती है। ऐसा करने में शिवसेना सफल नहीं हो इसका भाजपा हर संभव प्रयास करती नजर आ रही है।
विधायकों की खरीद फरोख्त कर सत्ता हथियाने के आरोपों से घिरी भारतीय जनता पार्टी के लिए भी मुंबई महानगरपलिका चुनाव किसी अग्नि परीक्षा से कम नहीं है। और बात जब मुंबई और मराठी माणूस की है तो अस्मिता का मुद्दा और "मराठी बनाम गुजराती वाद” भी चर्चा में आ जाता है।
ऐसे में अमित शाह का यह बयान कि मुंबई पर राज करने का अब भाजपा का वक्त आ गया है, आग में घी का काम करेगा। दरअसल, जबसे शिवसेना ने भाजपा का साथ छोड़ा है बतौर मुख्यमंत्री के रूप में या शिवसेना प्रमुख के तौर पर उद्धव ठाकरे और उनकी पार्टी ने केंद्र की सत्ता में बैठे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और गृहमंत्री अमित शाह पर निशाना साधा है। बात कोरोना काल की हो या जीएसटी के भुगतान की। बार-बार उद्धव ठाकरे ने केंद्र पर सहयोग नहीं करने का आरोप लगाया था।
बार-बार इस बात का ज़िक्र किया कि किस तरह से ये दोनों नेता मुंबई और महाराष्ट्र को पीछे धकेलने का काम कर रहे हैं और व्यवसाय और विकास के केंद्रों को गुजरात की ओर ले जा रहे हैं। मुंबई को महाराष्ट्र से अलग कर गुजरात में शामिल करने का वादा और संयुक्त महाराष्ट्र आंदोलन की एक अलग ही पृष्ठभूमि है। इसी संयुक्त महाराष्ट्र आंदोलन में बालासाहब ठाकरे के पिता प्रबोधनकार ठाकरे भी सक्रिय रहा करते थे और कहा जाता है कि शिवसेना के जन्म की नाल भी वहीं से जुड़ी है। ऐसे में अपने गढ़ को बचाने के लिए शिवसेना इस वाद की यादें ताजा करने में पीछे नहीं रहने वाली है। वह मराठी वोटों को एकजुट करने की कवायद करने वाली है जबकि भाजपा, राज ठाकरे की नव निर्माण सेना और वर्तमान मुख्यमंत्री एकनाथ शिंदे की कथित शिवसेना की मदद से इन मतों में विभाजन का प्रयास करेगी। ऐसे में अमित शाह का यह बयान कि वे एकनाथ शिंदे की पार्टी को ही असली शिवसेना मानते हैं काफी महत्व रखता है।
असली शिवसेना किसकी, इसको लेकर चुनाव आयोग में वाद चल रहा है लेकिन केंद्रीय गृहमंत्री द्वारा एकनाथ शिंदे की शिवसेना को असली कहना, यह दर्शाता है कि चुनावों में शिवसेना के समक्ष ‘चुनाव चिन्ह’ का भी संकट खड़ा हो सकता है। मराठी वोटों के बाद मुंबई में उत्तर भारतीय और मुस्लिम मतदाताओं की बड़ी भूमिका है। उत्तर भारतीय मतदाता जो 2014 से पहले तक कांग्रेस का ख़ास हुआ करता था अब भाजपा के साथ खड़ा नजर आता है। इसके अलावा महत्वपूर्ण भूमिका मुस्लिम मतदाताओं की भी है जिनको अपने पक्ष में करने के लिए कांग्रेस, समाजवादी पार्टी और ओवैसी की एमआईएम में रस्साकसी रहती है। वर्षा गायकवाड़ को छोड़ दिया जाए तो मुंबई में पिछली बार जितने भी कांग्रेस के विधायक चुनाव जीतने में सफल रहे सभी मुस्लिम ही हैं। यानी फौरी तौर पर मुंबई की लड़ाई स्वबल पर किसी के लिए भी आसान नहीं है।
2017 में भाजपा को 82 का आंकड़ा छूने में जो सफलता मिली उसमें नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता में उभार बड़ा कारण रहने से इंकार नहीं किया जा सकता। लेकिन अब क्या मोदी जादू चलेगा? या भाजपा और एकनाथ शिंदे सरकार स्वयं को असली हिंदुत्व के ध्वजवाहक बताकर हिन्दू मतों का ध्रुवीकरण करने की रणनीति अपनाएंगे? हिंदुत्व ऐसा कार्ड है जिसके दम पर भाजपा मराठी वोटों में भी विभाजन कर सकती है। यह तो समय ही बताएगा कि आगे क्या होना है लेकिन एक बात तो साफ़ नजर आ रही है कि लड़ाई आसान नहीं है। इसमें जब अमित शाह उतरे हैं तो दांवपेंच नए पुराने सभी देखने को मिलेंगे।
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