पार्टी का मूलमंत्र आज भी इसके नेता अक्सर मंचों पर दोहराते रहते हैं लेकिन वे ख़ुद इससे बहुत दूर निकल गए दिखाई देते हैं? अगर नहीं तो जिन शर्तों और रुआब के साथ बाल ठाकरे ने राजनीति की थी, ये नेता उनकी परंपरा को निभाते ज़रूर दिखते थे। बाल ठाकरे कहते थे - मुख्यमंत्री मैं डिसाइड करूंगा। रिमोट कंट्रोल मेरे हाथ में रहेगा, अगर करप्शन का एक भी मामला सामने आया तो मैं चीफ़ मिनिस्टर को भी भगा दूंगा। अगर मंत्रालय में फ़ाइलें पड़ी रहीं तो मैं उनको आग लगा दूंगा।
शिवसेना प्रमुख ने रिमोट कंट्रोल के दम पर महाराष्ट्र जैसे बड़े प्रदेश की सत्ता चलाई और इस बात को वह सार्वजनिक मंचों पर बहुत गर्व के साथ बोलते भी थे। उनके निधन के बाद उनके पुत्र उद्धव ठाकरे ने पार्टी संभाली और उन्होंने भी अब तक कोई चुनाव नहीं लड़ा है और शायद लड़ेंगे भी नहीं लेकिन उन्होंने अपने पुत्र को चुनावी मैदान में उतारा है।
आदित्य को सीएम बनाने की रणनीति!
उद्धव के बेटे आदित्य ठाकरे वरली विधानसभा क्षेत्र से चुनाव लड़ने वाले हैं और वह चुनाव लड़ने वाले ठाकरे परिवार के पहले सदस्य होंगे। अब सवाल यह उठता है कि ठाकरे परिवार के किसी सदस्य को चुनाव लड़ने की ज़रूरत क्यों पड़ी? क्या बदली हुई परिस्थितियों में रिमोट से या मातोश्री में बैठकर पार्टी चला पाना मुश्किल हो रहा है? क्या उद्धव ठाकरे पिता की विरासत को नहीं संभाल पा रहे हैं? या उद्धव ठाकरे आदित्य को भावी मुख्यमंत्री बनाने की किसी रणनीति पर काम कर रहे हैं।
बीजेपी का कड़ा रुख
वैसे, बीजेपी के साथ शिवसेना का जिस तरह का गठबंधन हुआ है उससे इस बात की संभावनाएं बहुत क्षीण हैं कि आदित्य इस बार मुख्यमंत्री बन सकेंगे। रही बात उप मुख्यमंत्री पद की तो बीजेपी के प्रदेश अध्यक्ष चंद्रकांत पाटिल ने बयान दे दिया है कि उप मुख्यमंत्री का पद नहीं दिया जाना है। या फिर चुनावी रणनीतिकार प्रशांत किशोर की सलाह पर उद्धव ठाकरे आदित्य को चुनाव लड़वा रहे हैं और सत्ता में आने के बाद उनको मंत्री बनाकर विधायी कार्यों का अनुभव दिलाना चाहते हैं?
जिसने बाल ठाकरे की राजनीति और शिवसेना का वह दौर देखा है, उससे यदि पूछा जाये तो जवाब यही मिलता है कि बाला साहेब की तो बात ही कुछ और थी। मुंबई में बाला साहेब जो हैसियत रखते थे वैसी हैसियत किसी दूसरे की कभी नहीं रही। उन्होंने जो राजनीति की वह स्वयं की शर्तों पर की, जिससे बीजेपी जैसे बड़े राष्ट्रीय दल को शिवसेना प्रमुख के इशारों पर चलना पड़ा। यदि इंदिरा गाँधी को एक अपवाद के रूप में माना जाये तो बाल ठाकरे ने हर नेता को अपने आवास मातोश्री पर ही बुलाया है।
जिन लोगों ने केंद्र की अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार का समय देखा होगा उन्हें यह अच्छी तरह से याद होगा कि कैसे बाल ठाकरे को मनाने प्रमोद महाजन और तत्कालीन उप प्रधानमंत्री लाल कृष्ण आडवाणी मातोश्री पर पहुंच जाया करते थे।
बाल ठाकरे की राजनीतिक सोच पर ‘मी मराठी’ की सोच भारी पड़ती थी। कांग्रेस के धुर विरोधी होने के बावजूद राष्ट्रपति पद के लिए उन्होंने श्रीमती प्रतिभा पाटिल का समर्थन करते हुए महाराष्ट्रियन उम्मीदवार को तरजीह दी थी।
बीजेपी को कहते थे कमलाबाई
शरद पवार अपनी आत्मकथा, 'ऑन माई टर्म्स' में लिखते हैं, ‘बाला साहेब का उसूल था कि अगर आप एक बार उनके दोस्त बन गए तो वह उसे ताउम्र निभाते थे। सितंबर, 2006 में जब मेरी बेटी सुप्रिया ने राज्यसभा चुनाव लड़ने की घोषणा की तो बाला साहेब ने मुझे फ़ोन किया और बोले, 'शरद बाबू मैं सुन रहा हूँ, हमारी सुप्रिया चुनाव लड़ने जा रही है और तुमने मुझे इसके बारे में बताया ही नहीं। मुझे यह ख़बर दूसरों से क्यों मिल रही है?’ मैंने कहा, 'शिव सेना-बीजेपी गठबंधन ने पहले ही सुप्रिया के ख़िलाफ़ अपने उम्मीदवार के नाम की घोषणा कर दी है। मैंने सोचा मैं आपको क्यों परेशान करूँ।’ इस पर ठाकरे बोले, ‘मैंने उसे तब से देखा है जब वह मेरे घुटनों के बराबर हुआ करती थी। मेरा कोई भी उम्मीदवार सुप्रिया के ख़िलाफ़ चुनाव नहीं लड़ेगा। तुम्हारी बेटी मेरी बेटी है।’ शरद पवार ने उनसे पूछा, 'आप बीजेपी का क्या करेंगे, जिनके साथ आपका गठबंधन है?' उन्होंने बिना पल गंवाए जवाब दिया, 'कमलाबाई की चिंता मत करो। वह वही करेगी जो मैं कहूंगा।’ कमलाबाई उनका बीजेपी के लिए कोड-वर्ड था। ऐसा करना किसी सामान्य राजनीतिज्ञ के बस की बात नहीं है।बाल ठाकरे अपनी बेबाकी और स्पष्ट राय के लिए हमेशा जाने जाते रहे। शिवसेना की चिंता बाला साहेब को अपने अंतिम समय में भी रही होगी। यह चिंता शिवाजी पार्क में बाला साहेब के अंतिम वीडियो भाषण में झलकती है। इसमें उन्होंने महाराष्ट्र के लोगों से विनम्र अपील करते हुए कहा था कि जैसा प्यार शिवसैनिकों ने उन्हें दिया है वैसा ही वे उद्धव और आदित्य को भी दें।
बाल ठाकरे की पकड़ मुंबई में बढ़ने का जो मुख्य कारण था वह राजनीति से ज़्यादा समाज नीति का उनका मंत्र। उन्होंने शिवसेना के गठन के बाद मुंबई में आरएसएस की तरह ही हर मोहल्ले में शाखाएं खोलनी शुरू कर दीं थी। फिर शुरू हुई गली की राजनीति, गली के आंदोलन, गली-मोहल्ले की पंचायत, भाषणों में बम्बईया बोली।
पानी-बिजली की लड़ाई, किरायेदार-मकान मालिक के झंझट, बाबुओं का करप्शन, घर-परिवार की लड़ाईयां सब कुछ निपटाए जाने लगे। मतलब अपने एरिया में हर काम, पंचायत, जज-मुजरिम का खेल, डॉक्टरी, यह सब शिवसैनिक करने लगे। जमकर हिन्दू फेस्टिवल्स मनाए जाने लगे। छोटे बिजनेसमैन, लोकल भाई, नया-नया नेता और सब शिवसेना में आ गए और यह बड़ी पार्टी बन गई।
बाल ठाकरे ने एक बार कहा था कि शिव सैनिक होने का मतलब कोई पोस्ट लेना नहीं है, यह एक स्टेट ऑफ़ माइंड है। ठाकरे जब तक रहे बीजेपी को अपने इशारों पर चलाते रहे लेकिन 2014 में जब मोदी लहर आयी तो उसने शिवसेना को ही झटका दे दिया।
शिवसेना-बीजेपी का गठबंधन टूटा
2014 के विधानसभा चुनाव में 25 साल पुराना गठबंधन टूटा और बड़े भाई शिवसेना के मुक़ाबले क़रीब दो गुना सीट जीतकर छोटा भाई (बीजेपी) सत्ता में बैठ गया। तब बीजेपी को 122 और शिवसेना को 63 सीटें मिली थीं। शिवसेना को यह हार पचा पाना मुश्किल हो रहा था और ना चाहते हुए भी उसे बीजेपी का समर्थन करना पड़ा। उस समय ऐसी ख़बरें आ रही थीं कि पार्टी का एक धड़ा विपक्ष में बैठने के लिए तैयार नहीं है। बाल ठाकरे के दौर में शायद ही ऐसी स्थिति कभी पैदा हुई होगी!
उद्धव ठाकरे का रहा विरोधी रुख
विधायकों के कथित दबाव या और क्या कारण रहे होंगे कि उद्धव ठाकरे पांच साल तक सरकार में रहकर भी विरोधियों जैसा रुख अपनाते रहे। लेकिन लोकसभा चुनाव फिर उसी दबाव में आकर क्यों लड़ा, यह एक बड़ा सवाल है। अब फिर विधानसभा चुनाव में टिकट बंटवारे से पहले उद्धव ठाकरे ने जिस तरह से पार्टी नेताओं की बैठक बुलाकर उनसे बग़ावत नहीं करने का वादा लिया, वह अपने आप में बहुत कुछ संकेत देता है।
क्या टूट सकती है शिवसेना?
उद्धव ठाकरे ने शिव सैनिकों से इस बात को तो कहा कि एक दिन वह अपने पिता को दिया हुआ वचन पूरा करेंगे और किसी शिव सैनिक को मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बैठाएंगे? लेकिन साथ ही इस बात का संकेत भी दे दिया कि वह पहले पार्टी को बचाने का काम करेंगे! तो क्या विधानसभा में आदित्य ठाकरे को प्रवेश दिलाकर, शिवसेना प्रमुख अब अंदर बैठ कर पार्टी पर नियंत्रण करने वाले हैं? शिवसेना में जिस टूटन के संकेत उद्धव ठाकरे दे रहे हैं उसके कुछ अलग कारण नहीं हैं।
महाराष्ट्र में एनसीपी और कांग्रेस के नेताओं ने जो कुछ किया है शायद वैसा ही कुछ शिवसेना के सांसद और विधायकों द्वारा करने का अंदेशा उद्धव ठाकरे को हो? अगर ऐसा है तो यह शिवसेना के लिए बड़े खतरे की घंटी थी और उसके लिए पिछले पांच साल में कोई वैकल्पिक रणनीति क्यों नहीं अपनायी गयी?
शिवसेना एक कैडर आधारित पार्टी है और उसके विधायक और सांसद भी अगर अन्य दलों के नेताओं की तरह आयाराम-गयाराम का खेल खेलने वाले हैं तो यह वाकई गंभीर बात है।
वैसे पिछले कुछ सालों में अन्य दलों की तरह शिवसेना में भी अब चुनाव प्रचार के दौरान धनबल, बाहुबल का असर देखने को खूब मिलता है। पार्टी के नेता 80-20 का फ़ॉर्मूला भूलते जा रहे हैं। शिवसेना की शाखाओं की पहुंच भी अब पहले के मुक़ाबले काफ़ी कमजोर हो चली है।
इसके अलावा एक बड़ा बदलाव यह भी हुआ है कि शिवसेना में अब हर सांसद और विधायक अपने-अपने परिवार को संगठन और सरकार में जगह दिलाने में लगा नजर आता है। इसलिए संगठन में टूट का भय कोई असामान्य बात नहीं है। राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी इस बात का ताज़ा उदाहरण है। शरद पवार ने महाराष्ट्र के जिन 12 परिवारों को अपनी पार्टी के माध्यम से मजबूत किया, वे सभी उनका साथ छोड़ गए हैं।
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