अपराध, क़ानून व्यवस्था और भ्रष्टाचार को लेकर अदालतों की टिप्पणियाँ आती रही हैं लेकिन यह पहला मौक़ा होगा जब देश की एक बड़ी अदालत ने देश की अर्थव्यवस्था को लेकर बड़ी टिप्पणी की है। पिछले क़रीब एक साल से देश की जीडीपी और बेरोज़गारी के आंकड़े और अर्थ व्यवस्था को लेकर वैकल्पिक मीडिया में एक बहस छिड़ी हुई है लेकिन अब मुंबई हाई कोर्ट ने इस विषय पर टिप्पणी की है।
इसके बाद सवाल यह खड़ा हो रहा है कि कोर्ट ने किस ओर इशारा किया है? क्या देश की अर्थ व्यवस्था की स्थिति इतनी ख़राब हो गयी है कि उस पर ध्यान आकर्षित करने के लिए अदालत को टिप्पणी करनी पड़ी? मामला मुंबई में बन रहे मेट्रो -3 प्रकल्प में कार शेड को बनाये जाने का है। सरकार यह चाहती है कि यह कार शेड आरे कॉलोनी क्षेत्र में बसी खाली ज़मीन पर बने। लेकिन पर्यावरण से जुडी संस्थाएं, बहुत से ग़ैर सरकारी संगठनों, फ़िल्मी हस्तियों ने इसका विरोध किया है। इसको लेकर कई संगठन प्रदर्शन भी कर रहे हैं।
सोमवार को इस मामले को लेकर दायर याचिका पर सुनवाई करते हुए अदालत ने कहा कि देश के अच्छे अर्थशास्त्रियों की फ़ौज़ साथ रखकर भी सरकार देश की ‘इकॉनमी’ को नहीं संवार पा रही है तो ‘इकोलॉजी’ को कैसे संभालेगी। पर्यावरण प्रेमियों के संगठन की तरफ़ से दायर याचिका में कहा गया है कि 'मेट्रो हमें नहीं चाहिए, यह हमारा पक्ष नहीं है। जनहित के लिए मेट्रो महत्वपूर्ण है लेकिन मेट्रो की तरह ही वृक्ष भी लोगों की ज़रूरत हैं। और इस बात पर बिना कोई विचार किये मुंबई महानगरपालिका (मनपा) के वृक्ष प्राधिकरण के विशेषज्ञों ने विधानसभा चुनाव की आचार संहिता लागू होने से पूर्व ही 2,646 वृक्षों को हटाने की मंजूरी दे डाली।’
अधिवक्ता ने कहा कि इस दौरे के आधार पर निर्णय लेने पर अलग राय रखने वाले विशेषज्ञों के मत की भी अवहेलना की गयी है। अदालत को यह भी बताया गया कि इस मामले में इस प्रस्ताव के पास होने के अगले दिन ही पर्यावरण विशेषज्ञ डॉ. शशिरेखा कुमार ने इस्तीफ़ा यह कहते हुए दे दिया कि वह भी पर्यावरण प्रेमी हैं और उन्होंने इस प्रस्ताव को मंजूरी नहीं दी थी।
आरे कॉलोनी की इस हरितपट्टी को मुंबई में फुप्फुस (lungs) कहा जाता है। इसलिए इसे बचाने के लिए बड़े पैमाने पर प्रयास चल रहे हैं। इस मुद्दे पर शिवसेना ने भी विरोध जताया था, महानगरपालिका की सत्ता उनके हाथ में है, ऐसे में विरोध करने के बजाय वह प्रस्ताव पर ही रोक लगा सकते थे।
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