अब यह साफ़ है कि प्रधानमंत्री मोदी के काम से लोग संतुष्ट हैं और ऐसे लोगों की संख्या अधिक है। अगर ऐसा नहीं होता तो इतनी सारी परेशान विपक्षी पार्टियाँ एक मंच पर क्यों आतीं।
मोदी जी की लोकप्रियता और सत्ता में उनकी वापसी की संभावना से विपक्ष ख़ौफ़जदा है और इसलिए एक मंच पर इकट्ठा हो रहे हैं। वर्तमान राजनीतिज्ञों में प्रधानमंत्री सबसे ज़्यादा लोकप्रिय, निर्णायक और ऊर्जावान नेता हैं। उनकी ईमानदारी, नैतिकता पर जोर, निर्णायक नेतृत्व क्षमता और विकासोन्मुख राजनीति का नतीजा है कि लोग उन्हें काफ़ी पसंद करते हैं। उन्होंने जाति आधारित पार्टियों और वंशवादी राजनीतिक दलों को 2014 में धराशायी कर दिया था। आज विपक्ष प्रधानमंत्री मोदी के सत्ता में बने रहने को एकमात्र मुद्दा बना रहा है। भारतीय जनता पार्टी विपक्ष के इस अजेंडे का स्वागत करती है।
एकता का अंकगणित सिर्फ़ छलावा
तृणमूल कांग्रेस की नेता ममता बनर्जी की कोलकाता रैली काफ़ी अहम है। ऊपर से देखने पर साफ़ लगता है कि यह मोदी विरोधी रैली थी। लेकिन इससे ज़्यादा महत्वपूर्ण है कि इस रैली से राहुल गाँधी नदारद थे। विपक्ष में प्रधानमंत्री पद के 4 दावेदार हैं जो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को चुनौती देने की सोच रहे हैं।
कोलकाता की रैली में दिए गए भाषणों में से एक भी ऐसा नहीं था जिसके बारे में कहा जाए कि किसी भी नेता ने भविष्य के बारे में कोई रूप-रेखा खींची हो। सब सिर्फ़ नकारात्मक बातें कर रहे थे।
उत्तर प्रदेश की बहनजी को अपनी तगड़ी सौदेबाज़ी पर पूरा भरोसा है। उनका मानना है कि भारत में सिर्फ़ जाति ही चलती है। उन्हें यह भी पता है कि इस बार का लोकसभा चुनाव उनके लिए आख़िरी मौक़ा है।
नकारात्मकता, कोलकाता की रैली का मुख्य बिंदु था। 1970 में अमेरिका के संदर्भ में वहाँ के पूर्व उप राष्ट्रपति स्पाइरो एग्नयू ने कहा था, ‘हमारे हिस्से में ज़्यादा बक-बक करने वाले नकारात्मकता के नवाब हैं। इन सभी ने इतिहास के Hopeless (बेचारे), Hysterical (उन्मादी), Hypochondriac (मनोरोगी) लोगों का 4एच क्लब बना रखा है।’ ये शब्द कोलकाता की रैली के लिए एकदम सटीक बैठते हैं।
जातिगत समीकरण पर है जोर
उत्तर प्रदेश और कुछ हद तक कर्नाटक को छोड़ दें तो राजनीतिक अकंगणित 2014 की तुलना में बहुत ज़्यादा महत्व नहीं रखता। इन दोनों राज्यों में पूरा जोर जातिगत समीकरण पर है। ऐसे जातिगत गठबंधनों में एक पार्टी का अपने वोटों को दूसरी पार्टी को दिलवाना आसान नहीं होता। स्थानीय समीकरण बिलकुल अलग तरीक़े से चलते हैं। ज़्यादातर मामलों में इस तरीक़े के गठजोड़ हवा-हवाई ही साबित होते हैं।
सीधी लड़ाई में बीजेपी और एनडीए को 5 प्रतिशत वोटों के लिए तैयारी करनी होगी। बहुत सारे राज्यों में त्रिकोणीय संघर्ष देखने को मिलेगा। अगर मोदी को दुबारा प्रधानमंत्री बनने से रोकना ही मुद्दा है तो यह बीजेपी के लिए फ़ायदेमंद साबित होगा। बहुत संभव है कि लोकसभा चुनाव अमेरिका के राष्ट्रपति चुनाव की ही तरह हों।
आकांक्षावादी भारत में अगर नकारात्मकता चुनाव प्रचार का मुद्दा हो तब यह कारगर साबित नहीं होता। अगर अंकगणित एकमात्र उम्मीद हो तो मोदी का लोगों से जुड़ाव ज़्यादा भारी पड़ेगा। लोग राजनेताओं की उम्मीद से ज़्यादा समझदार हैं, अराजकता कभी भी उनका विकल्प नहीं हो सकती।
चुनावों के बाद नेतृत्व की लड़ाई, साझा कार्यक्रमों की अनुपस्थिति, नीति हीनता और उनकी प्रशासनिक अक्षमता का इतिहास ही विपक्ष की उपलब्धि है और यही वह लोगों के सामने पेश कर रहा है। प्रयोगवादी और असफल विचार मतदाताओं को डराते हैं, ऐसे विचारों की ओर कोई आकर्षित नहीं होता। लोगों को 5 साल की सरकार चाहिए न कि 6 महीने की।
उपसंहार
एक छात्र के तौर सबसे पहले मैंने 1971 के आम चुनाव में हिस्सा लिया था। मैं तब विपक्ष में था और विपक्ष ने तब वर्तमान महागठबंधन की ही तरह एक बड़ा गठबंधन बनाया था। हमारे पास बहुत मज़बूत नेता थे और मीडिया में हमें काफ़ी तवज्जो मिलती थी। तब कांग्रेस दो हिस्सों में बँट गई थी।
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