अलीगढ़ मुसलिम विश्वविद्यालय के 14 छात्रों पर देशद्रोह का मुक़दमा दर्ज किया गया है। उन पर यह आरोप है कि उन्होंने 'पाकिस्तान जिन्दाबाद' के नारे लगाए हैं, हालाँकि आरोप लगानेवालों ने अब तक इसका कोई सबूत नहीं पेश नहीं किया है, न ही अब तक इस घटना का कोई असली या नक़ली वीडियो सामने आया है। जिन छात्रों पर यह आरोप लगाया गया है, उन्होंने इस तरह के नारे लगाने से पूरी तरह इनकार किया है। फिर भी पुलिस ने इन छात्रों के ख़िलाफ़ देशद्रोह का मामला दर्ज किया है!
सवाल यह है कि बिना किसी सबूत के पुलिस ऐसे कैसे देशद्रोह का मुक़दमा दर्ज कर सकती है? क्या उत्तर प्रदेश पुलिस को देशद्रोह के मुद्दे पर दिये गये सुप्रीम कोर्ट के बहुचर्चित फ़ैसले की कोई जानकारी नहीं है? जानकारी न हो, ऐसा सम्भव नहीं क्योंकि जेएनयू मामले में देश भर में इस बात की व्यापक चर्चा हुई थी कि सुप्रीम कोर्ट ने देशद्रोह को कैसे परिभाषित किया है। सुप्रीम कोर्ट की उस परिभाषा के अनुसार यदि इन छात्रों ने वास्तव में पाकिस्तान समर्थक नारे लगाये भी होते, तब भी इनके ख़िलाफ़ देशद्रोह का मामला नहीं बन सकता था।
सवाल यह है कि उत्तर प्रदेश पुलिस क्या जानबूझकर सुप्रीम कोर्ट की व्याख्या की अवहेलना कर रही है? साथ ही सवाल यह भी है कि भारत में अंग्रेज़ी राज स्थापित करने और उसके ख़िलाफ़ किसी तरह के विद्रोह की कोशिश को सख़्ती से कुचलने के लिए 1870 में लागू किया गया क़ानून आज कितना ज़रूरी है?
शुरुआत कैसे हुई?
भारत में देशद्रोह से जुड़े दंड के प्रावधान पर विचार सबसे पहले ब्रिटिश संसद में 1937 में हुआ, जब वहाँ अपने उपनिवेश के लिए दंड विधान बनाने की बात शुरू हुई। ब्रिटिश सांसद थॉमस मैकॉले ने भारतीय दंड विधान मसौदे के क्लाज़ 113 में राजद्रोह की परिभाषा तय की और इससे जुड़े दंड को शामिल किया। ब्रिटिश सरकार का मक़सद भारत में विदेशी शासन के ख़िलाफ़ किसी तरह के विद्रोह को सख़्ती से कुचलना था। लेकिन 1860 में ब्रिटिश संसद में पेश भारतीय दंड संहिता में इसका उल्लेख नहीं था। बाद में 1870 में एक संशोधन पेश कर इसे जोड़ा गया। इसके बाद वर्नाक्यूलर प्रेस एक्ट 1878, न्यूज़पेपर्स एक्ट (इनसाइटमेंट ऑफ़ ऑफ़ेन्स) एक्ट और इंडियन प्रेस एक्ट, 1910 बना कर इसे और कड़ा कर दिया गया। लेकिन वर्नाक्यूलर प्रेस एक्ट 1881 और इंडियन प्रेस एक्ट 1921 में रद्द कर दिए गए। मतलब यह कि इसका मूल मक़सद ब्रिटिश शासन के ख़िलाफ़ विद्रोह को नहीं पनपने देना था और विद्रोह करने वालों को कड़ी से कड़ी सज़ा दिलवाना था ताकि दूसरे वैसा कुछ करने से डरें।महात्मा गाँधी ने कहा था: मुझे खुशी है कि मुझ पर भारतीय दंड संहिता की उस धारा 124 ए के तहत मुक़दमा चलाया गया है, जो नागरिकों की आज़ादी को कुचलने के लिए ही बनाया गया था। स्नेह क़ानून के द्वारा न पैदा किया जा सकता है न ही नियंत्रित किया जा सकता है। यदि किसी आदमी को किसी से स्नेह नहीं है, उसे इसे प्रकट करने की पूरी छूट होनी चाहिए, तब तक जब इससे हिंसा को उकसावा नहीं मिलता है।
सर्वोच्च अदालत ने बलवंत सिंह बनाम पंजाब राज्य के मामले में कहा था कि सिर्फ़ नारे लगाना देशद्रोह नहीं है क्योंकि समुदाय के दूसरे लोगों ने इस पर कोई प्रतिक्रिया नहीं दी थी। इसी तरह सुप्रीम कोर्ट ने केदार नाथ सिंह बनाम बिहार राज्य के मामले में दिए निर्णय में कहा था, यदि किसी की मंशा हिंसा भड़काना नहीं हो तो चाहे उसके शब्द कितने भी कठोर हों, उस पर देशद्रोह का मामला नहीं बनता है।
- 1.भारत के लोगों को कुचलने के लिए बना ब्रिटिश हथियार आज भी बरक़रार रखना कितना जायज़ है?
- 2.दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र भारत में अभिव्यक्ति की आज़ादी इतना महत्वपूर्ण है कि इसे संविधान के मौलिक अधिकारों में शामिल किया गया है। ऐसे में क्या राजद्रोह की परिभाषा फिर से तय नहीं की जानी चाहिए?
- 3. क्या इस विकल्प पर विचार करना ठीक होगा कि राजद्रोह को फिर से परिभाषित किया जाए और उस हिसाब से ही उससे जड़े दंड तय किए जाएँ?
- 4.देश के नागरिकों को दूसरों को चोट पहुँचाने (राइट टू ऑफ़ेन्ड) का कितना हक़ है?
- 5.'राइट टू ऑफ़ेन्ड' कब नफ़रत फैलाने का आरोप बन जाएगा?
- 6.अभिव्यक्ति की आज़ादी और धारा 124ए के बीच संतुलन कैसे स्थापित किया जाए?
- 7.अब जबकि राजद्रोह समझे जाने वाले काम से निपटने के लिए कई क़ानून हैं, धारा 124ए कोई मक़सद पूरा करता है?
- 8.धारा 124ए से जुड़ी सज़ा कम कठोर करने या इसे धारा को बिल्कुल ख़त्म कर देने से समाज को फ़ायदा होगा या नुक़सान?
- 9.जब अदालत की अवमानन पर सज़ा हो सकती है तो सरकार की अवमानना पर सज़ा का प्रावधान क्यों न हो?
- 10.धारा 124ए का दुरुपयोग न हो, इसके लिए क्या उपाय किए जा सकते हैं?
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