झारखंड में चुनाव प्रचार जोरों पर है और तीसरे चरण के लिए मतदान हो चुका है। चौथे और पाँचवें चरण का मतदान 16 और 20 दिसंबर को होगा और 23 को चुनाव नतीजे आ जाएंगे। कुल मिलाकर 11 दिन का समय शेष है और इसमें झारखंड का राजनीतिक भविष्य लिखा जाना है। राज्य में बीजेपी की जीत का पूरा दारोमदार प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह पर ही है और विधानसभा चुनाव के शोर के बीच यह सवाल जोर-शोर से पूछा जा रहा है कि क्या बीजेपी की नैया पार लग पाएगी?
बीजेपी की मुश्किलों में इज़ाफा
पिछले तीन चरण का चुनाव प्रचार देखें तो बीजेपी और विपक्षी महागठबंधन में कांटे की टक्कर देखने को मिली है। बीजेपी की परेशानी इस बार दो बातों से बढ़ी है। पहली यह कि लोकसभा चुनाव में बड़ी जीत के बाद भी वह महाराष्ट्र और हरियाणा में 2014 जैसा चुनावी करिश्मा नहीं दोहरा सकी। दूसरी दिक़्क़त ज़्यादा बड़ी है और वह यह है कि पाँच साल तक सरकार में उसकी सहयोगी रही ऑल झारखंड स्टूडेंट्स यूनियन (आजसू) ने भी उसका साथ छोड़ दिया है।
केंद्र में बीजेपी की सहयोगी लोकजनशक्ति पार्टी (एलजेपी) और बिहार में उसकी सहयोगी जनता दल (यूनाइटेड) जेडी (यू) भी उसके ख़िलाफ़ चुनाव लड़ रही हैं। ऐसे में उसके सहयोगियों ने ही उसकी मुश्किलों में इज़ाफा कर दिया है।
विपक्ष की एकजुटता पड़ेगी भारी!
झारखंड के पिछले और इस बार के विधानसभा चुनाव में एक और बड़ा अंतर है। वह यह कि पिछली बार विपक्ष बिखरा हुआ था जबकि इस बार उसने गठबंधन किया है। झारखंड मुक्ति मोर्चा (जेएमएम), कांग्रेस, राष्ट्रीय जनता दल (आरजेडी) और झारखंड विकास मोर्चा (झाविमो), वाम दलों का गठबंधन बनने की बहुत चर्चा हुई लेकिन सीटों के बंटवारे को लेकर बात नहीं बनी और झाविमो, वाम दलों ने गठबंधन में शामिल होने से इनकार कर दिया। कांग्रेस, जेएमएम और आरजेडी ने चुनाव प्रचार में पूरी ताक़त झोंकी है और रघुबर दास को घेरने की कोशिश की है।
अनुच्छेद 370, एनआरसी से मिलेंगे वोट?
महाराष्ट्र और हरियाणा के विधानसभा चुनाव में बीजेपी ने अनुच्छेद 370 और नेशनल रजिस्टर ऑफ़ सिटीजंस (एनआरसी) को मुद्दा बनाया था और उसे उम्मीद थी कि उसे वोट भी मिलेंगे लेकिन ऐसा नहीं हुआ। एक बार फिर बीजेपी ने झारखंड में इन मुद्दों पर वोट बटोरने की कोशिश की है।
झारखंड में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, बीजेपी अध्यक्ष और गृह मंत्री अमित शाह ने चुनावी रैलियों में इन मुद्दों का जिक्र किया है। यह देखना होगा कि यहाँ इस मुद्दे पर बीजेपी को वोट मिलते हैं या नहीं।
अमित शाह अपनी चुनावी रैलियों में एनआरसी के अलावा राम मंदिर मुद्दे पर सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले का जिक्र भी करते हैं और यह बताने की कोशिश करते हैं कि उनकी सरकार ने इस मुद्दे पर जल्द सुनवाई करवाई और तभी कोर्ट का फ़ैसला आ सका।
मुंडा-रघुबर दास की सियासी लड़ाई!
बीजेपी के लिए मुश्किलें यहीं नहीं थमती। राज्य के मुख्यमंत्री रघुबर दास के ख़िलाफ़ बीजेपी में सबसे बड़े सियासी प्रतिद्वंद्वी हैं केंद्रीय मंत्री अर्जुन मुंडा। इस लड़ाई की शुरुआत हुई थी 2014 में। 2014 के झारखंड विधानसभा चुनाव में अर्जुन मुंडा खरसांवा विधानसभा क्षेत्र से उम्मीदवार थे। मुंडा इस सीट से पहले भी चुनाव जीत चुके थे और उन्हें भरोसा था कि वह चुनाव जीत जाएंगे। लेकिन वह चुनाव हार गए और मुख्यमंत्री बनने से चूक गए। झारखंड की राजनीति के जानकार बताते हैं कि पिछली बार मिली हार को अर्जुन मुंडा अब तक नहीं भूले हैं और वह यह मानते हैं कि उनकी हार में रघुबर दास की भूमिका थी।
मुंडा की शह पर हुई बग़ावत!
इस बार के विधानसभा चुनाव में खेल पलट गया है। इस बार रघुबर दास के ख़िलाफ़ ही जोरदार बग़ावत हुई है और इसके अहम किरदार हैं उनकी ही सरकार में मंत्री रहे सरयू राय। सरयू राय की बग़ावत के कारण माना यह जा रहा है कि रघबुर दास चुनाव हार सकते हैं और बग़ावत करने के लिए उन्हें अर्जुन मुंडा ने शह दी है। खरसांवा से इस बार टिकट के लिए अर्जुन मुंडा की पत्नी मीरा भी दावेदार थीं लेकिन उन्हें टिकट नहीं मिला। राजनीति के जानकार बताते हैं कि मीरा को रघुबर दास के विरोध के कारण टिकट नहीं मिला।
बीजेपी आलाकमान ने मुंडा-दास की सियासी लड़ाई को रोकने के लिए इस बार लोकसभा चुनाव में मुंडा को खूंटी सीट से उम्मीदवार बनाया और जीतने के बाद केंद्र में मंत्री भी बनाया लेकिन कहा जाता है कि मुंडा फिर से राज्य का मुख्यमंत्री बनना चाहते हैं।
आदिवासी वोटों की भूमिका अहम
झारखंड में 27% आदिवासी हैं लेकिन बीजेपी ने पिछली बार ग़ैर-आदिवासी रघुबर दास को मुख्यमंत्री बनाया था और इस बार भी उसका पूरा जोर सवर्ण और ओबीसी जातियों पर है। पिछले विधानसभा चुनाव में भी बीजेपी को बड़ी संख्या में इन समुदायों ने वोट दिया था। लेकिन इस बार बीजेपी आदिवासी वोटों को अपने पाले में लाना चाहती है क्योंकि इस बार आजसू भी उसके साथ नहीं है। आजसू के साथ होने से उसे आदिवासी वोटों का कुछ हिस्सा मिल जाता था।
राज्य में 25 सीटें आदिवासी बहुल हैं और पिछली बार इनमें से अधिकांश सीटों पर बीजेपी और झामुमो को जीत मिली थी। लेकिन इस बार झामुमो ने भी पूरा जोर आदिवासी वोटों को अपने पाले में करने में लगााया है। इस तरह आदिवासी मतदाताओं के वोटों को लेकर बीजेपी और झामुमो में संघर्ष जारी है।
बीजेपी से नाराज़ हैं मुसलमान?
झारखंड में इस बार क्या मुसलमान बीजेपी के ख़िलाफ़ वोट डालेंगे? यह सवाल इसलिए पूछा जा रहा है क्योंकि राज्य में पिछले 5 सालों में मॉब लिंचिंग की घटनाओं में कई मुसलमानों की हत्याएं हुई हैं। इसे लेकर मुसलमानों में ख़ासा आक्रोश है और उन्होंने इन घटनाओं के ख़िलाफ़ प्रदर्शन भी किए हैं। कुछ महीने पहले भीड़ ने तबरेज़ अंसारी नाम के मुसलिम युवक की बाइक चोरी के शक में पीट-पीटकर हत्या कर दी थी और इसके ख़िलाफ़ झारखंड ही नहीं पूरे देश भर में प्रदर्शन हुए थे।
झारखंड में 14 फीसदी मुसलमान हैं और वे सत्ता के समीकरणों को प्रभावित करते हैं। कांग्रेस ने डॉ. इरफान अंसारी को कार्यकारी अध्यक्ष बनाकर मुसलिमों को अपनी ओर लाने की कोशिश की है। राज्य के देवघर, जामताड़ा, लोहरदगा, गिरिडीह, गोड्डा, चतरा, लोहरदगा और राजमहल के इलाक़ों में मुसलिम आबादी बड़ी संख्या में है और अगर मुसलमान एकजुट होकर बीजेपी के ख़िलाफ़ वोट करेंगे तो निश्चित रूप से पार्टी की मुश्किलें बढ़ेंगी।
15 नवंबर 2000 को राज्य गठन के बाद से ही राजनीतिक अस्थिरता का शिकार रहे झारखंड में अब तक नौ मुख्यमंत्री बन चुके हैं। नेताओं की मौक़ापरस्ती और सियासी चालबाज़ियों को समझना है तो झारखंड से बेहतर उदाहरण दूसरा नहीं मिलेगा।
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