कर्नाटक, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र आदि राज्यों में ऑपरेशन लोटस यानी विधायकों की खरीद-फरोख्त के जरिए विपक्षी दलों की सरकारें गिराने का भाजपा का अभियान कामयाब रहा है। यहीं नहीं, गोवा, अरुणाचल प्रदेश, मणिपुर आदि राज्यों में जहां भाजपा ने स्पष्ट बहुमत से सरकार बनाई, वहां भी उसने अपने सहयोगी दलों और विपक्षी दलों के विधायकों को आसानी से तोड़ कर अपनी ताकत में इजाफा कर लिया, लेकिन झारखंड में वह ऐसा नहीं कर पा रही है।
प्रवर्तन निदेशालय यानी ईडी, सीबीआई, आयकर आदि केंद्र सरकार की तमाम एजेंसियां झारखंड में सत्तारूढ़ गठबंधन में शामिल दलों के पीछे लगी हुई हैं, अदालतों में मामले दायर किए गए हैं, जिनकी सुनवाई चल रही है, चुनाव आयोग में शिकायत हुई है, जिसका फैसला आया हुआ है और लोकपाल में भी मामला लंबित है। इसके अलावा गठबंधन के विधायकों को तोड़ने के भाजपा के प्रयास भी चल रहे हैं। इसके बावजूद भाजपा का ऑपरेशन लोटस कई कारणों से कामयाब नहीं हो पा रहा है।
भाजपा का ऑपरेशन लोटस विफल होने का पहला कारण झारखंड विधानसभा में विधायकों का संख्याबल है। कर्नाटक, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, मणिपुर, अरुणाचल प्रदेश, गोवा, आदि राज्यों में भाजपा का ऑपरेशन लोटस सफल रहा तो उसकी अहम वजह यह थी कि दो राज्यों- कर्नाटक और महाराष्ट्र में भाजपा चुनाव में बहुमत से दूर रहने के बावजूद सबसे बड़ी पार्टी बन कर उभरी थी लेकिन दूसरी पार्टियों ने चुनाव बाद गठबंधन करके भाजपा को सत्ता से दूर रखा था।
मध्य प्रदेश में भाजपा बहुमत से सिर्फ सात सीटें पीछे रह गई थी। इसलिए इन तीन राज्यों में उसका ऑपरेशन सफल हुआ। इससे पहले मणिपुर, अरुणाचल प्रदेश गोवा में भी भाजपा धनबल के बूते कांग्रेस और अन्य छोटी-छोटी स्थानीय पार्टियों को तोड़ने में कामयाब रही थी। लेकिन झारखंड की स्थिति इन सभी राज्यों से जरा अलग है। वहां भाजपा स्पष्ट रूप से चुनाव हारी और उसके मुख्यमंत्री भी चुनाव हारे थे। उसे महज 26 सीटें मिली थीं। झारखंड की 81 सदस्यों की विधानसभा में सहयोगियों समेत उसके कुल विधायक 30 होते हैं, यानी बहुमत से 11 कम। दूसरी ओर झारखंड मुक्ति मोर्चा (जेएमएम), कांग्रेस और राष्ट्रीय जनता दल (राजद) का चुनाव पूर्व गठबंधन पूर्ण बहुमत से जीता हुआ है।
ऑपरेशन लोटस की नाकामी का दूसरा कारण जनभावना से जुडा है। पिछले विधानसभा चुनाव के बाद झारखंड में चार सीटों पर उपचुनाव हुए हैं और चारों पर भाजपा को हार का सामना करना पड़ा है, जिसका मतलब है कि राज्य का जनमानस अभी भी भाजपा से खुश नहीं है।
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इसका नतीजा यह हुआ है कि राज्य सरकार सावधान हो गई और मुख्यमंत्री ने गठबंधन के विधायकों की निगरानी शुरू करा दी। हर विधायक के पीछे सीआईडी लगा दी गई। उनकी आवाजाही के साथ-साथ बाहर से रांची आने वालों भाजपा नेताओं पर भी नजर रखी जाने लगी। महाराष्ट्र के नेता झारखंड पहुंचे तो खबर खुल गई और फिर कुछ विधायक गुवाहाटी और कोलकाता की दौड़ लगाने लगे तब भी भांडा फूट गया। दोनों बार केस दर्ज हुए और लोग पैसे के साथ पकड़े गए।
दरअसल मरांडी को मुख्यमंत्री बनाने के लिए भागदौड़ कर रहे नेता झारखंड का होने के बावजूद अपने सूबे के विधायकों के बारे में इतना भी नहीं समझ पाए कि यहां जब कोई विधायक पार्टी छोड़ने का मन बनाता है तो वह किसी को अपना नेता नहीं मानता। जैसे महाराष्ट्र में शिव सेना के बागियों ने एकनाथ शिंदे को और मध्य प्रदेश में कांग्रेस के बागियों ने ज्योतिरादित्य सिंधिया को नेता माना, वैसा झारखंड में नहीं होता। झारखंड में सारे विधायक खुद ही सौदेबाजी करते है और लेन-देन भी खुद ही करते हैं। लेकिन इस पूरी प्रक्रिया में इतने छेद होते हैं कि मामला खुल जाता है।
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पहली बार जब राजधानी रांची में ही लोग पकड़े गए थे तो दूसरी इस बार सेंटर बदल दिया गया। इस बार कोलकाता, गुवाहाटी और दिल्ली में लोग मेल-मुलाकात कर रहे थे। एक केंद्रीय कमान बन गई थी और यही कारण है कि राष्ट्रपति चुनाव में नौ विधायकों की क्रॉस वोटिंग के बारे में पहले से किसी को कानोंकान खबर नहीं हुई।
जानकार सूत्रों के मुताबिक कांग्रेस के जो तीन विधायक पश्चिम बंगाल में नकदी के साथ पकड़े गए वे तीनों राष्ट्रपति चुनाव मे क्रॉस वोटिंग करने वालों में शामिल नहीं थे। वे तीनों अलग सौदेबाजी कर रहे थे।
राज्य के पूर्व मुख्यमंत्री रघुवर दास के प्रति पार्टी आलाकमान का सद्भाव है लेकिन वे विधायक नहीं हैं। अर्जुन मुंडा भी तीन बार मुख्यमंत्री रहे हैं और केंद्र में मंत्री हैं इसलिए वे भी विधायक नहीं हैं। पार्टी के आदिवासी मोर्चे के राष्ट्रीय अध्यक्ष समीर उरांव भी सांसद हैं और पिछड़ी जाति की राजनीति में पार्टी का चेहरा बन कर उभर रही अन्नपूर्णा देवी भी सांसद व केंद्रीय मंत्री हैं।
झारखंड के हालात को देखते हुए पार्टी आलाकमान किसी गैर विधायक को मुख्यमंत्री बनाने का जोखिम नहीं लेना चाहता। अपनी पार्टी का भाजपा में विलय करके घर वापसी करने वाले बाबूलाल मरांडी विधायक दल के नेता हैं और इस नाते मजबूत दावेदार हैं मगर उनके रास्ते में दो बाधाएं है। पहली बाधा तो यह है कि उनकी विधानसभा की सदस्यता पर तलवार लटकी है। उनकी पार्टी के तीन में से दो विधायक कांग्रेस मे गए थे और उन्होंने मरांडी को पार्टी से निकालने का ऐलान किया था। इस आधार पर स्पीकर के पास उनकी अयोग्यता का मामला लंबित है। दूसरे, कांग्रेस से बगावत की तैयारी कर रहे कुछ विधायक उनका नेतृत्व मानने को तैयार नहीं हैं।
इन सब कारणों के अलावा बिहार में पिछले दिनों हुआ घटनाक्रम भी एक कारण बना है, जिससे गठबंधन के उन विधायकों का हौंसला बढ़ा है जो बगावत करके भाजपा के साथ जाने की सोच रहे थे। बहरहाल भाजपा ने हथियार नहीं डाले हैं। ऑपरेशन लोटस के तहत काम अभी भी जारी है, बल्कि यूं कहें कि उसमें अब तेजी आ गई है और मामला अब निर्णायक दौर में है।
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