loader
फाइल फोटो

कश्मीरी पंडितों को किस कारण पलायन करना पड़ा?

कश्मीरी पंडित 32 साल से इंतज़ार में हैं कि कभी तो दशकों पुराने उनके जख्मों पर मरहम लगेगा। पर घाव भरना तो दूर, लगता है कि उन जख्मों को बार-बार कुरेदने की कोशिश ही हुई है। कुछ ऐसे ही दर्द कई कश्मीरी पंडित अब तब बयां कर रहे हैं जब इस मुद्दे पर एक फ़िल्म 'द कश्मीर फाइल्स' रिलीज हुई है। हालाँकि, इस फ़िल्म में कश्मीरी पंडितों के साथ घटी घटनाओं को दिखाया गया है, लेकिन इस फ़िल्म में दिए गए तथ्यों और इस फ़िल्म के मक़सद को लेकर विवाद हो रहा है।

फ़िल्म के विवाद से इतर, सबसे अहम सवाल है कि आख़िर कश्मीरी पंडितों के साथ ऐसा क्या हुआ कि उन्हें अपना घर, अपनी कमाई का ज़रिया, अपनी ज़मीन सबकुछ छोड़ना पड़ गया? वे किस दर्द से गुजरे और ऐसा किन वजहों से हुआ कि उन्हें पलायन करना पड़ा?

ताज़ा ख़बरें

पलायन की वजह जानने से पहले यह जान लीजिए कि आख़िर यह पूरा मामला क्या है। कश्मीर घाटी से 1990 के शुरुआती महीनों में कश्मीरी हिंदुओं यानी कश्मीरी पंडितों का पलायन हुआ था। हालाँकि, यह पलायन बाद तक भी जारी रहा। अनुमान है कि 90 हजार से लेकर 1 लाख तक कश्मीरी पंडित घाटी छोड़ने के लिए मजबूर हुए। कुछ रिपोर्टों में इनकी संख्या क़रीब डेढ़ लाख भी बताई जाती है। पलायन से पहले और पलायन के दौरान सैकड़ों लोग मारे गए। जम्मू-कश्मीर सरकार की एक रिपोर्ट में कहा गया है कि 1989 से 2004 के बीच इस समुदाय के 219 लोग मारे गए थे। हालाँकि, कश्मीरी पंडित संघर्ष समिति का दावा रहा है कि 650 कश्मीरी पंडित मारे गए थे।

घाटी से कश्मीरी हिंदुओं के पलायन का कारण मोटे तौर पर इन हत्याओं को माना जाता है। कई कश्मीरी पंडितों ने अपने लोगों में से कुछ हाई-प्रोफाइल अधिकारियों की हत्याओं से दहशत का अनुभव किया। 

वैसे उनको धमकियाँ लंबे समय से मिल रही थीं, लेकिन कहा जाता है कि 19 जनवरी की रात एक भयावह हमला हुआ था। 32 साल बाद भी कश्मीरी पंडित उस रात को याद कर कांप उठते हैं जिसने उन्हें पलायन के लिए मजबूर किया।

19 जनवरी 1990 की उस घटना को कई लेखकों ने पिछले कुछ वर्षों में पलायन और व्यक्तिगत अनुभवों को लिखा है।

कर्नल तेज कुमार टीकू की किताब, 'कश्मीर: इट्स एबोरिजिन्स एंड देयर एक्सोडस' में इस घटना का ज़िक्र करते हुए लिखा गया है-

"जैसे ही रात हुई, अल्पसंख्यक समुदाय दहशत में आ गया, घाटी इस्लामवादियों के युद्ध वाले नारों से गूंजने लगी, उन्होंने पूरी घटना को बड़ी सावधानी से रचा था; इस्तेमाल किए जाने वाले नारों और इसके समय के चयन में भी सावधानी बरती गई थी। अत्यधिक उत्तेजक, सांप्रदायिक और धमकी भरे नारों ने मार्शल गीतों के साथ, मुसलमानों को सड़कों पर आने और 'गुलामी' की जंजीरों को तोड़ने के लिए उकसाया। इन नारों ने वफादारों से काफिर को अंजाम तक पहुँचाने का आग्रह किया ताकि वे सच्चा इस्लामी तंत्र ला सकें। इन नारों को पंडितों के लिए धमकियों के साथ मिलाया गया था। उन्हें तीन विकल्पों के साथ पेश किया गया था- रालिव, त्सालिव या गैलीव (इसलाम में धर्मांतरण, जगह छोड़ दें या मिट जाएँ)। हजारों कश्मीरी मुसलमान घाटी में सड़कों पर नारे लगाते हुए उतरे..."

लेखक और पत्रकार राहुल पंडिता ने अपनी पुस्तक, 'आवर मून हैज़ ब्लड क्लॉट्स' में उन घटनाओं का सिलसिलेवार विवरण दिया है जो पलायन के बारे में बताती हैं। इसमें पंडिता सितंबर 1989 में राजनीतिक कार्यकर्ता टीका लाल टपलू की हत्या के बारे में लिखते हैं और कई अन्य हत्याओं के बारे में बताते हैं।

जम्मू-कश्मीर से और ख़बरें

तो सवाल है कि आख़िर घाटी में ऐसा माहौल कैसे बन गया? आख़िर उस घटना से पहले ऐसी क्या-क्या घटनाएँ घटी थीं?

जो घटना 1990 में घटी उसकी जड़ कुछ लोग 1980 के दशक की शुरुआती घटनाओं में भी देखते हैं। 1982 में शेख अब्दुल्ला की मृत्यु के बाद नेशनल कॉन्फ्रेंस की कमान उनके बेटे फारूक अब्दुल्ला को सौंप दी गई थी। वह 1983 में चुनाव जीत गए। लेकिन फारूक अब्दुल्ला के रिश्तेदार गुलाम मोहम्मद शाह जुलाई 1984 में पार्टी से हट गए और सरकार गिर गई। उन्होंने कांग्रेस से हाथ मिलाया और मुख्यमंत्री बने। इसके साथ ही राज्य में राजनीतिक अस्थिरता आ गई।

kashmiri pandits exodus causes 1989-90 incidents - Satya Hindi

एक घटना 1984 में घटी। तब इंदिरा गांधी सरकार ने दिल्ली की तिहाड़ जेल में कश्मीरी अलगाववादी मकबूल भट को फाँसी दी और उसका शव उसके परिवार को नहीं सौंपा गया बल्कि जेल परिसर में ही दफना दिया गया। माना जाता है कि इससे घाटी में तनाव और बढ़ गया।

इसी बीच क़रीब दो साल बाद अयोध्या में बाबरी मसजिद का विवाद भी बढ़ा। जब हिंदुओं को प्रार्थना करने की अनुमति देने के लिए बाबरी मसजिद के ताले खोले गए तो दोनों समुदायों के बीच संबंध और तनावपूर्ण हो गए। देशभर में हिंदू-मुसलमानों के बीच झड़पें हुईं। जम्मू कश्मीर में कुछ जगहों पर दंगे हुए और मंदिरों को उजाड़ दिया गया।

मार्च 1986 में राजीव गांधी ने गुलाम मोहम्मद शाह को बर्खास्त कर दिया और राज्य पर शासन करने के लिए फारूक अब्दुल्ला को वापस लाने का फ़ैसला किया। 

1987 में चुनावों में धांधली के आरोप लगे और फिर अब्दुल्ला को मुख्यमंत्री नियुक्त किया गया। ऐसा माना जाता है कि इस घटना ने कश्मीर में उग्रवाद के पनपने में योगदान दिया। फिर एक के बाद एक कई हत्याएँ हुईं।

1989 में दहशत का दौर

14 सितंबर 1989 को वकील और बीजेपी सदस्य टीका लाल टपलू की श्रीनगर में उनके घर में हत्या कर दी गई थी। आरोप जेकेएलएफ पर लगा। टपलू की मौत के तुरंत बाद 4 नवंबर को श्रीनगर उच्च न्यायालय के एक न्यायाधीश नीलकंठ गंजू की गोली मारकर हत्या कर दी गई। जस्टिस नीलकंठ गंजू ने मकबूल भट को मौत की सजा सुनाई थी।

दिसंबर 1989 में जेकेएलएफ के सदस्यों ने तत्कालीन केंद्रीय मंत्री मुफ्ती मोहम्मद सईद की बेटी डॉ. रुबैया सईद का अपहरण कर लिया और पांच आतंकवादियों को रिहा करने की मांग की, जिसे बाद में पूरा किया गया। कहा जाता है कि बाद में इन आतंकवादियों का हिंसा में बड़ा हाथ रहा। इन घटनाओं से क्षेत्र में आतंकवाद को और बढ़ावा मिला।

ख़ास ख़बरें

एक रिपोर्ट के अनुसार 4 जनवरी 1990 को श्रीनगर स्थित समाचार पत्र ने एक आतंकवादी संगठन हिजबुल मुजाहिदीन के सूत्रों के हवाले से एक पत्र को प्रकाशित किया जिसमें सभी हिंदुओं को तुरंत कश्मीर छोड़ने की धमकी दी गई थी। 14 अप्रैल 1990 को एक अन्य समाचार पत्र ने उसी चेतावनी को फिर से प्रकाशित किया। इसी बीच दीवारों पर ऐसे पोस्टर चिपकाए गए जिसमें सभी कश्मीरियों को इस्लामी नियमों का सख्ती से पालन करने के लिए धमकी भरे संदेश थे।  

19 जनवरी 1990 को ही जगमोहन यानी जगमोहन मल्होत्रा जम्मू कश्मीर के दूसरी बार राज्यपाल नियुक्त किए गए थे। उनके पहले कार्यकाल 1984- जुलाई 1989 के बीच 1986 का कश्मीर दंगा हुआ था। जगमोहन बीजेपी नेता रहे थे। उन पर आरोप लगता रहा है कि उन्होंने कश्मीरी पंडितों के पलायन को बढ़ावा दिया।

इस बीच 19 जनवरी को स्थिति हाथ से निकल गई। लाउडस्पीकर से घोषणाएँ हुईं और हिंदुओं को छोड़ने की चेतावनी दी गई थी।

पहले ही घाटी छोड़ने लगे कश्मीरी पंडितों को डराने के लिए यह काफी था। वे कुछ सामान लेकर अपने घरों को छोड़कर भागने लगे।

21 जनवरी को भारतीय सैनिकों ने हस्तक्षेप करने का फ़ैसला किया। सीआरपीएफ ने श्रीनगर के गाव कदल ब्रिज पर प्रदर्शन कर रहे कम से कम 50 कश्मीरी मुसलमानों को मार गिराया। इससे कश्मीरी मुसलमानों में और नाराज़गी बढ़ी। 

इसके बाद भी पलायन का दौर जारी रहा। कश्मीर घाटी से पलायन कर कश्मीरी पंडित कश्मीर में रिफ्यूजी कैंप में चले गए। उनमें से कुछ जो ज़्यादा कुलीन और पढ़े-लिखे थे वे देश के दूसरे हिस्सों में रोजगार पा चुके हैं और गुजारा कर रहे हैं लेकिन बड़ा हिस्सा अभी भी उन कैंपों में गरीबी में दिन बिता रहा है।  

कश्मीर घाटी में अल्पसंख्यक हिंदू कश्मीरी पंडित समुदाय के पलायन के 32 साल हो गए हैं। जनवरी और मार्च 1990 के बीच घटी यह घटना ठीक उसी समय हुई थी जब बीजेपी पूरे उत्तर भारत में अपनी रफ़्तार बढ़ा रही थी। वर्षों से कश्मीरी पंडितों की दुर्दशा और उनका पलायन एक प्रबल हिंदुत्व मुद्दा बन गया है। इस मुद्दे को गाहे-बगाहे क़रीब-क़रीब हर चुनाव में उठाया जाता रहा है। लेकिन क्या उनकी स्थिति बदली? क्या वे कश्मीर घाटी में वापस लौट पाए?

सत्य हिन्दी ऐप डाउनलोड करें

गोदी मीडिया और विशाल कारपोरेट मीडिया के मुक़ाबले स्वतंत्र पत्रकारिता का साथ दीजिए और उसकी ताक़त बनिए। 'सत्य हिन्दी' की सदस्यता योजना में आपका आर्थिक योगदान ऐसे नाज़ुक समय में स्वतंत्र पत्रकारिता को बहुत मज़बूती देगा। याद रखिए, लोकतंत्र तभी बचेगा, जब सच बचेगा।

नीचे दी गयी विभिन्न सदस्यता योजनाओं में से अपना चुनाव कीजिए। सभी प्रकार की सदस्यता की अवधि एक वर्ष है। सदस्यता का चुनाव करने से पहले कृपया नीचे दिये गये सदस्यता योजना के विवरण और Membership Rules & NormsCancellation & Refund Policy को ध्यान से पढ़ें। आपका भुगतान प्राप्त होने की GST Invoice और सदस्यता-पत्र हम आपको ईमेल से ही भेजेंगे। कृपया अपना नाम व ईमेल सही तरीक़े से लिखें।
सत्य अनुयायी के रूप में आप पाएंगे:
  1. सदस्यता-पत्र
  2. विशेष न्यूज़लेटर: 'सत्य हिन्दी' की चुनिंदा विशेष कवरेज की जानकारी आपको पहले से मिल जायगी। आपकी ईमेल पर समय-समय पर आपको हमारा विशेष न्यूज़लेटर भेजा जायगा, जिसमें 'सत्य हिन्दी' की विशेष कवरेज की जानकारी आपको दी जायेगी, ताकि हमारी कोई ख़ास पेशकश आपसे छूट न जाय।
  3. 'सत्य हिन्दी' के 3 webinars में भाग लेने का मुफ़्त निमंत्रण। सदस्यता तिथि से 90 दिनों के भीतर आप अपनी पसन्द के किसी 3 webinar में भाग लेने के लिए प्राथमिकता से अपना स्थान आरक्षित करा सकेंगे। 'सत्य हिन्दी' सदस्यों को आवंटन के बाद रिक्त बच गये स्थानों के लिए सामान्य पंजीकरण खोला जायगा। *कृपया ध्यान रखें कि वेबिनार के स्थान सीमित हैं और पंजीकरण के बाद यदि किसी कारण से आप वेबिनार में भाग नहीं ले पाये, तो हम उसके एवज़ में आपको अतिरिक्त अवसर नहीं दे पायेंगे।
अमित कुमार सिंह
सर्वाधिक पढ़ी गयी खबरें

अपनी राय बतायें

जम्मू-कश्मीर से और खबरें

ताज़ा ख़बरें

सर्वाधिक पढ़ी गयी खबरें