गृह मंत्री अमित शाह ने कुछ महीने पहले इस आरोप का खंडन किया था कि मोदी सरकार जम्मू और कश्मीर की जनसांख्यिकी को बदलने की कोशिश कर रही है।
लेकिन कश्मीर घाटी में एक मजबूत धारणा है कि नई दिल्ली जम्मू और कश्मीर को अस्थिर करने के मिशन पर है। यह डर केवल आम आदमी को ही नहीं बल्कि कई क्षेत्रीय दलों जैसे नेशनल कॉन्फ्रेन्स, पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी (पीडीपी), पीपुल्स कॉन्फ्रेन्स और अवामी नेशनल कॉन्फ्रेन्स को भी है जो लगातार आरोप लगा रहे हैं कि नई दिल्ली जम्मू और कश्मीर के जनसांख्यिकी को बदल रही है।
‘दिल्ली से हो रहे हैं फ़ैसले’
राजनीतिक पर्यवेक्षक ऐसी चिंताओं को सही ठहरा रहे हैं। कश्मीर विश्वविद्यालय में राजनीति विज्ञान विभाग के पूर्व प्रमुख प्रोफेसर नूर अहमद बाबा ने ‘सत्य हिंदी’ के साथ एक साक्षात्कार में कहा, "लोगों का डर निराधार नहीं है। क्योंकि 5 अगस्त, 2019 से अब तक नई दिल्ली की ओर से जो निर्णय लिए जा रहे हैं, वे एकतरफा हैं। यहां कोई चुनी हुई सरकार नहीं है। हर निर्णय दिल्ली में लिया जा रहा है। यहां के प्रमुख राजनीतिक दलों से कोई राय नहीं मांगी जा रही है। इस स्थिति ने यहां के लोगों के दिलों में डर पैदा कर दिया है। उन्होंने नई दिल्ली पर विश्वास खो दिया है। केंद्र सरकार द्वारा कश्मीरियों की इन चिंताओं को दूर करने के लिए कोई कदम नहीं उठाया जा रहा है।”
“
नई दिल्ली द्वारा जम्मू-कश्मीर का विशेष संवैधानिक दर्जा समाप्त करके उसके राज्य का दर्जा छीनने, इसे दो भाग में विभाजित करने और फिर इसे सीधे केंद्र के नियंत्रण में लाने के 5 अगस्त, 2019 के निर्णय ने कश्मीरियों के विश्वास को चोट पहुंचाई है। पिछले एक साल में नये कानूनों के लागू होने से कश्मीरी लोगों और नई दिल्ली के बीच की दूरी बढ़ रही है।
नूर अहमद बाबा, पूर्व प्रोफेसर, कश्मीर विश्वविद्यालय
वर्तमान में, बाहरी लोगों को जम्मू और कश्मीर में अधिवास (डोमिसाइल) प्रमाण पत्र जारी किए जाने और राज्य में संसदीय और विधानसभा क्षेत्रों का फिर से परिसीमन करने की प्रक्रिया से लोग चिंतित हैं।
'परिसीमन आयोग' की स्थापना
इस साल मार्च में, केंद्र सरकार ने असम, नागालैंड, मणिपुर और अरुणाचल प्रदेश के साथ-साथ जम्मू और कश्मीर में संसद और विधानसभाओं के निर्वाचन क्षेत्रों का फिर से परिसीमन करने के लिए सुप्रीम कोर्ट की सेवानिवृत्त न्यायाधीश रंजना प्रकाश देसाई के नेतृत्व में एक 'परिसीमन आयोग' की स्थापना की। संसद के पंद्रह सदस्यों को आयोग के सदस्यों के रूप में नामित किया गया था।
जम्मू और कश्मीर के पाँच सांसद (नेशनल कॉन्फ्रेन्स के तीन और बीजेपी के दो) भी सूची में शामिल थे। लेकिन नेशनल कॉन्फ्रेन्स के तीन सांसदों- फारूक़ अब्दुल्ला, न्यायमूर्ति (सेवानिवृत्त) मसूद हसनैनी और अकबर लोन ने आयोग का हिस्सा बनने से इनकार कर दिया।
यहां यह उल्लेख किया जा सकता है कि जम्मू-कश्मीर पुनर्गठन अधिनियम, 2009 के तहत जम्मू-कश्मीर में परिसीमन किया जा रहा है। भारत सरकार ने इस अधिनियम को पारित करके पिछले साल 5 अगस्त को जम्मू-कश्मीर को राज्य के दर्जे से वंचित किया था।
‘5 अगस्त का फ़ैसला अस्वीकार्य’
‘सत्य हिन्दी’ से बात करते हुए, न्यायमूर्ति मसूद हसनैनी ने कहा, “हम इस अधिनियम को अवैध और भारत के संविधान के विरुद्ध मानते हैं। हमने इसे सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी है। देश के सुप्रीम कोर्ट ने भी हमारे मामले को सुनवाई के लिए स्वीकार कर लिया है। इसका मतलब यह है कि जब तक मामला तय नहीं हो जाता, तब तक यहां लागू होने वाला कोई भी कानून असंवैधानिक होगा। इसीलिए हम परिसीमन आयोग का हिस्सा नहीं बने। अगर हम इस कमीशन में शामिल हो जाते, तो इसका मतलब होता कि हमने पिछले साल 5 अगस्त के फ़ैसले को स्वीकार कर लिया है। कश्मीरी लोगों और कश्मीर के राजनीतिक दलों ने 5 अगस्त के फ़ैसले को न तो स्वीकार किया है और न ही पिछले एक साल से यहाँ की आबादी को बदलने के लिए जो क़ानून बने हैं उन्हें स्वीकार किया है। हम लड़ेंगे।”
हालाँकि, जम्मू और कश्मीर विधानसभा के निर्वाचन क्षेत्रों के नए परिसीमन की प्रक्रिया शुरू हो गई है। संभावना है कि सात नए निर्वाचन क्षेत्र बनेंगे। उनमें से 2 घाटी में और 5 जम्मू में होंगे। उल्लेखनीय है कि 5 अगस्त, 2019 से पहले, जम्मू और कश्मीर की विधानसभा में सदस्यों की संख्या 87 थी। इनमें से घाटी में 46 सीटें, जम्मू में 37 और लद्दाख में 4 सीटें थीं। चूंकि लद्दाख को अलग केंद्र शासित प्रदेश का दर्जा दिया गया है, इसलिए इसमें अब विधानसभा नहीं होगी। इसलिए, परिसीमन अब केवल जम्मू और कश्मीर घाटी में होगा।
क्या है बीजेपी की मंशा?
जम्मू और कश्मीर में आखिरी बार परिसीमन 1995 में किया गया था। यह परिसीमन जम्मू और कश्मीर के अपने संविधान और कानूनों के अनुसार किया गया था। उसके बाद, सरकार ने फ़ैसला किया था कि 2026 तक कोई नया परिसीमन नहीं होगा। लेकिन केंद्र सरकार ने इसे नज़रअंदाज़ करते हुए अब यहां नया परिसीमन स्थापित करना शुरू कर दिया है। वास्तव में, बीजेपी शुरू से कहती रही है कि मुसलिम-बहुल घाटी में हिंदू-बहुल जम्मू की तुलना में अधिक सीटें हैं, इसलिए इसे ठीक करने की आवश्यकता है।
यह नया परिसीमन केंद्रीय कानूनों और विनियमों के तहत तब किया जा रहा है जब कोई चुनी हुई सरकार नहीं है। न केवल परिसीमन बल्कि उपराज्यपाल प्रशासन द्वारा बाहरी लोगों के लिये अधिवास प्रमाण पत्र जारी किए जा रहे हैं।
अधिवास प्रमाण पत्र का मुद्दा
5 अगस्त के क़दम के परिणामस्वरूप, जम्मू-कश्मीर के लोगों ने आवास और रोजगार के अपने विशेषाधिकार भी खो दिये हैं। इस के बाद, सरकार ने यहां एक नया अधिवास कानून लागू किया है। नए कानून के तहत, उन लोगों को अधिवास प्रमाण पत्र जारी किये जा रहे हैं, जो जम्मू-कश्मीर में जन्म से नहीं रह रहे हैं, जिनमें लाखों शरणार्थी शामिल हैं। ये दशकों पहले पश्चिम पाकिस्तान से आए थे और जम्मू के सीमावर्ती इलाकों में बस गए थे। नए कानून के तहत, बाहरी लोग जो यहां 15 साल से रह रहे हैं या जिन्होंने सात साल तक पढ़ाई की है, या जो केंद्रीय संस्थानों के अधिकारियों और कर्मचारियों के रूप में दस साल ड्यूटी दे चुके हैं वे भी निवास के अधिकार प्राप्त कर सकेंगे।
वास्तव में, यह नया कानून यहाँ 1927 से लागू "स्टेट सब्जेक्ट लॉ" के बदले में लागू किया गया है। स्टेट सब्जेक्ट लॉ के तहत, केवल जम्मू और कश्मीर के स्थायी निवासी ही यहां जमीन खरीद सकते थे और यहां सरकारी नौकरी पा सकते थे। लेकिन अब सरकार इसकी जगह अधिवास प्रमाण पत्र प्रदान कर रही है।
नवीनतम आंकड़ों के अनुसार, अब तक साढ़े बारह लाख अधिवास प्रमाण पत्र जारी किए गए हैं। हालांकि, लेफ़्टिनेंट गवर्नर एडमिनिस्ट्रेशन के प्रवक्ता, रोहित कंसल ने हाल के दिनों में पत्रकारों को बताया कि अब तक जारी अधिवास प्रमाणपत्र 99 प्रतिशत ऐसे लोगों को जारी किए गए हैं जो पहले से ही स्टेट सब्जेक्ट लॉ के हिसाब से राज्य के स्थायी निवासी हैं। दूसरे शब्दों में, केवल एक प्रतिशत प्रमाण पत्र बाहरी लोगों को प्रदान किए गए हैं। हालांकि, आलोचकों को इस पर भी आपत्ति है। पूर्व केंद्रीय मंत्री सैफुद्दीन सोज ने इन एक प्रतिशत लोगों की सूची जारी करने की मांग की है।
सत्य हिन्दी के साथ एक विस्तृत साक्षात्कार में, सोज़ ने कहा, "समस्या यह नहीं है कि कितने बाहरी लोगों को अधिवास प्रमाण पत्र जारी किए गए हैं। असली सवाल यह है कि एक निर्वाचित सरकार की अनुपस्थिति में यह सब क्यों किया जा रहा है?”
सोज़ ने कहा, “हमारे देश में लोकतंत्र है। लेकिन जम्मू-कश्मीर की वर्तमान सरकार (उपराज्यपाल की सरकार) लोकतांत्रिक सरकार नहीं है। इस सरकार का लोगों से कोई संपर्क नहीं है। इस सरकार को नए परिसीमन या अधिवास प्रमाण पत्र जारी करने का कोई नैतिक अधिकार नहीं है।’’
कांग्रेस के वरिष्ठ नेता सोज ने कहा, ‘‘पिछले साल 5 अगस्त को जो हुआ, उस पर यहां के लोगों और राजनीतिक दलों को कड़ी आपत्ति है। हमारे लिए यहां नए कानूनों को लागू करना स्वीकार्य नहीं है। इसलिए, हमारे देश के शासकों को यह सोचना चाहिये कि वे एकतरफा कदम के माध्यम से अपने फैसले हम पर नहीं थोप सकते। ”
कश्मीर के निवासी हाशिए पर?
वर्तमान में, कश्मीर में यह धारणा है कि उनसे सब कुछ छीना जा रहा है। वरिष्ठ पत्रकार सिबत मोहम्मद हसन ने इस संबंध में सत्य हिन्दी से कहा, “साधारण लोग ख़तरा महसूस कर रहे हैं। उन्हें लगता है कि नई दिल्ली ने कश्मीर में ऐसी नीति अपनाई है, जो नीति इजरायल ने फ़िलिस्तीनियों को उनकी जमीन और उनके अधिकारों से वंचित करने के लिये अपनाई है। यानी, जिस तरह से इजरायल ने फिलिस्तीनियों को अपनी जमीन में ही गुलाम बनाया, यही हाल मुसलिम बहुल जम्मू-कश्मीर में जन्मजात निवासियों को हाशिए पर रख कर किया जा रहा है और आबादी को अस्थिर करने का प्रयास किया जा रहा है। दुर्भाग्य से, मोदी सरकार कश्मीर में इस धारणा को दूर करने के लिए कुछ भी नहीं कर रही है, जिससे संदेह और मजबूत हो रहे हैं।”
कश्मीरियों की परवाह नहीं?
जाहिर है, मोदी सरकार को परवाह नहीं है कि कौन क्या कहता है। वह पिछले एक साल से जम्मू-कश्मीर पर एकतरफा फ़ैसले लागू कर रही है। इसलिए, यह विश्वास के साथ कहा जा सकता है कि कश्मीरियों की चिंताओं की परवाह किए बिना, अधिवास प्रमाण पत्र जारी करने की प्रक्रिया जारी रहेगी और नया परिसीमन किया जाएगा।
लेकिन यह निश्चित है कि इन एकपक्षीय क़दमों के कारण, न केवल कश्मीरी लोगों और नई दिल्ली के बीच की दूरी प्रत्येक बीते दिन के साथ बढ़ रही है, बल्कि नेशनल कॉन्फ्रेन्स और पीडीपी जैसे राजनीतिक दलों और नेताओं में भी नाराजगी बढ़ रही है, जिन्होंने कश्मीर में भारत की जड़ों को मजबूत करने में हमेशा योगदान दिया है।
अपनी राय बतायें