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क्या कंगाल हो जायेगा रूस?

जानकारों का कहना है कि रूस की अर्थव्यवस्था कम से कम दस साल की कमाई तो गंवा चुकी है। अब उसे आगे यूं ही गंवाते रहना है या फिर वापस कमाने की तरफ़ बढ़ना है, यह पुतिन को सोचना है।
आलोक जोशी

यूक्रेन पर रूस के हमले को चालीस दिन हो चुके हैं। यूक्रेन की हालत ख़राब है यह तो किसी से छुपा नहीं है, लेकिन जिस रफ्तार से यूक्रेन बर्बाद हो रहा है, उसी रफ्तार से रूस का खजाना भी खाली हो रहा है। युद्ध शुरू होते ही ख़बरें आने लगी थीं कि देश कंगाली की कगार पर पहुँच गया है, शेयर बाज़ार को बंद करना पड़ा और रूसी मुद्रा रूबल की क़ीमत रसातल में चली गई।

युद्ध नहीं रुका लेकिन पिछले एक महीने में तसवीर फिर काफ़ी बदल चुकी है। मार्च के महीने में रूसी मुद्रा रूबल दुनिया की सबसे तेज़ी से बढ़ने वाली करेंसी बन चुकी है। अमेरिकी डॉलर के मुक़ाबले रूबल की क़ीमत में साठ परसेंट का उछाल आया है। यूक्रेन पर हमले से पहले एक डॉलर क़रीब छिहत्तर रूबल का होता था, हमले के बाद सात मार्च को इसकी क़ीमत 139 रूबल पर पहुँच चुकी थी जो इतिहास में रूबल की सबसे कम क़ीमत थी। लेकिन मार्च ख़त्म होते-होते एक डॉलर खरीदने के लिए बयासी रूबल से भी कम की ज़रूरत पड़ने लगी। युद्ध शुरू होने के साथ ही लोग रूबल का दाम दिखा दिखाकर पुतिन की आलोचना कर रहे थे कि कैसे उन्होंने अपनी अर्थव्यवस्था का भट्ठा बैठा दिया है लेकिन अब इनमें से ज़्यादातर जानकार चुप्पी साधे बैठे हैं और देख रहे हैं कि आखिर पुतिन ने आपदा में अवसर कैसे ढूंढ निकाला। यह बात समझना रोचक भी है और ज़रूरी भी।

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युद्ध के साथ ही दुनिया भर में रूस की आलोचना शुरू हुई और यह कोशिश भी कि कैसे उसे यूक्रेन से क़दम वापस खींचने को मजबूर किया जाए। हालाँकि अमेरिका या नाटो देशों में से कोई भी सीधे-सीधे युद्ध में उसकी मदद के लिए आगे नहीं आया, लेकिन अमेरिका और पश्चिमी देशों ने रूस पर तरह-तरह के प्रतिबंध लगाकर उस पर दबाव बनाने की कोशिश ज़रूर की। रूस से लेनदेन पर रोक लगाना, अंतरराष्ट्रीय बैंकिंग लेनदेन के सॉफ्टवेयर स्विफ्ट से उसे बाहर करना ऐसे ही क़दम थे। 

दुनिया के दूसरे बैंकों में जमा रूस की लगभग चौंसठ हज़ार करोड़ डॉलर की रक़म को भी फ्रीज कर दिया गया ताकि उसके पास नकदी की किल्लत हो जाए। इन सारे क़दमों का लक्ष्य था रूस पर दबाव बनाना कि वो यूक्रेन पर हमला बंद करे और पीछे हटने के लिये तैयार हो। इन्हीं क़दमों का असर था कि रूबल की क़ीमत में तेज़ गिरावट आई। क्योंकि जिस देश से कोई लेनदेन ही नहीं होगा, विदेशी मुद्रा बाज़ार में उसकी मुद्रा कोई क्यों अपने पास रखना चाहेगा।

लेकिन इस कहानी में एक पेंच था। और पेंच भी मामूली नहीं। वो यह है कि रूस दुनिया में कच्चे तेल और गैस के सबसे बड़े निर्यातकों में से एक है। और उसके सबसे बड़े खरीदार यूरोप के वे देश हैं जो उस पर प्रतिबंध  लगाने में हिस्सेदार हैं। इन देशों को पता है कि रूस के तेल के बिना उनका गुजारा नहीं हो सकता। 

अगर रूस से तेल की सप्लाई बंद हो जाए तो दुनिया भर में तेल और गैस के दाम कैसे बढ़ेंगे इसका नमूना पिछले एक महीने में दिख चुका है।

कच्चे तेल का दाम जो हमले के पहले नब्बे डॉलर प्रति बैरल के आसपास था, हमला होते ही तेज़ी से भागना शुरू हुआ और एक सौ तीस डॉलर तक पहुँचा। हालाँकि उसके बाद से इसमें उतार चढ़ाव चल रहा है और युद्ध खत्म होने की उम्मीद जागते ही यह फिर सौ डॉलर के आसपास मंडराने लगा। लेकिन इससे यह बात साफ़ हो रही है क़ीमत सिर्फ रूस को नहीं चुकानी है, पूरी दुनिया को चुकानी पड़ेगी।

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रूस के राष्ट्रपति पुतिन भी शायद इस बात को अच्छी तरह समझते हैं। इसीलिए उन्होंने आर्थिक प्रतिबंधों के मुक़ाबले में एक जवाबी चाल चल दी। एक तरफ़ तो पुतिन पहले ही रूस से निर्यात करने वाली कंपनियों को निर्देश दे चुके थे कि वो अपना अस्सी परसेंट भुगतान रूबल में ही लेने पर जोर दें। जाहिर है कंपनियों को अपने खरीदारों को इसके लिए राजी करना होगा, लेकिन इन कंपनियों पर तो रूस की सरकार का जोर चलता है। और ऐसा करने से अंतरराष्ट्रीय बाज़ार में रूबल की मांग भी पैदा हो जाती। इसके ऊपर तुरुप का पत्ता चला उन्होंने यह शर्त लगाकर कि जो देश रूस के मित्र नहीं हैं यानी जो नाटो या अमेरिका के साथ हैं उन्हें अब रूस से तेल खरीदना है तो भुगतान रूबल में ही करना होगा।  

यूरोपीय संघ के बहुत से बड़े छोटे देश जो रूस से तेल खरीदते हैं और उन्होंने इसके लिए लंबे समय के करार कर रखे हैं। इस वक़्त वो न तो किसी और तरफ देखना चाहते हैं और न ही ऊँची कीमत चुकाना चाहते हैं। यही वजह है कि रूस पर प्रतिबंध लगने के समय से ही इन सबने साफ कर दिया था कि युद्ध और पाबंदियों के बावजूद वो रूस से तेल खरीदना जारी रखेंगे। खास बात यह है कि रूस से पश्चिमी यूरोप को जानेवाला तेल और गैस यूक्रेन के रास्ते पाइप लाइन से भी जाता है। सांप भी मर जाए और लाठी भी न टूटेवाला यह फॉर्मूला चलता तो रूस पर दबाव काफी बढ़ जाता, लेकिन पुतिन की शर्त ने मामला उलट दिया। अब दबाव दोनों तरफ बराबर हो चुका है। अगर आप रूबल को नहीं मानते तो फिर तेल और गैस कहीं और से ले लो।

लेकिन जानकारों को लगता है कि यह भी दबाव की रणनीति ही ज़्यादा है। क्योंकि जिस वक़्त राष्ट्रपति पुतिन चेतावनी दे रहे थे कि शुक्रवार से रूबल में भुगतान न करनेवाले देशों को सप्लाई बंद कर दी जायेगी, उस वक़्त भी रूस की बड़ी तेल कंपनियों से सप्लाई बदस्तूर जारी थी।

दूसरी तरफ़ जर्मनी और इटली जैसे देशों की सरकारें भी पूरी तरह मुतमईन दिख रही थीं। उनका कहना है कि रूस की ये शर्तें उनके देश पर लागू नहीं होती हैं।

तेल की खरीद बिक्री से आगे इस क़िस्से का एक पहलू यह भी है कि दुनिया भर में इस संकट का असर महसूस होने लगा है। रूस सिर्फ़ तेल ही नहीं बेचता। गेहूं, मक्का, तिलहन, कोयला और अनेक धातुओं का भी वो बहुत बड़ा निर्यातक है। वो पैलेडियम का दुनिया में सबसे बड़ा उत्पादक और निर्यातक है। यह वो धातु है जो सेमी कंडक्टर यानी कंप्यूटर चिप बनाने के लिए बेहद ज़रूरी है। दुनिया पहले ही सेमी कंडक्टर की किल्लत से जूझ रही है और अब इस युद्ध ने दबाव और बढ़ा दिया है। ऐसी अनेक चीजें हैं जिनके दामों में लगातार तेजी पूरी दुनिया को परेशान कर रही है और अब वो रूस के साथ तनाव को और बढ़ाने के बजाय बात को ख़त्म करवाने के पक्ष में दिख रही है। हालाँकि रूस और यूक्रेन दोनों ही देशों के भीतर राष्ट्रवाद का ज्वार भी दिख रहा है, लेकिन बाक़ी दुनिया की आबादी सही और ग़लत के बारे में राय रखते हुए भी मामला ख़त्म करवाना चाहती है। 

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रूस के लिए भी यह याद रखना ज़रूरी है कि पैंतरेबाज़ी में दूसरे देशों को झुकाने या दबाने का आभास पैदा करने तक तो ठीक है, लेकिन इस लड़ाई की सबसे बड़ी क़ीमत उसे और उसकी जनता को ही चुकानी है। और यह क़ीमत हर रोज़ बढ़ती जा रही है। 

अंतरराष्ट्रीय अर्थव्यवस्था पर नज़र रखने वाली एजेंसियां रूस की जीडीपी में सात से लेकर पैंतीस परसेंट तक की गिरावट का अनुमान लगा चुकी हैं। हर रोज़ रूस को कम से कम दो लाख करोड़ रुपए का नुक़सान हो रहा है। और जब यह लड़ाई रुकेगी, उसके बाद भी इस नुक़सान को थमने में और फिर वहां से वापस संभलने में अभी बहुत वक़्त भी लगने वाला है। जानकारों का कहना है कि रूस की अर्थव्यवस्था कम से कम दस साल की कमाई तो गंवा चुकी है। अब उसे आगे यूं ही गंवाते रहना है या फिर वापस कमाने की तरफ़ बढ़ना है, यह पुतिन को सोचना है। पुतिन को यह भी सोचना होगा कि अगर यह तनातनी यूँ ही चली तो फिर लेनदेन के लिए डॉलर और रूबल के बीच कोई तीसरा रास्ता भी खोलना पड़ सकता है। आज के हालात में ऐसा लगता है कि वो रास्ता चीन की मुद्रा युआन ही हो सकती है। लेकिन अगर चीन की मुद्रा युआन रूस और यूरोप के बीच व्यापार आगे बढ़ाने में इस्तेमाल होने लगी, तो इससे दुनिया की आर्थिक व्यवस्था में चीन का रुतबा कितना बढ़ेगा। यह सोचने का काम पुतिन के साथ ही अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडन को भी करना होगा।

(हिंदुस्तान से साभार)
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