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प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने सार्वजनिक क्षेत्र की संपत्तियों को बेचकर भारी धनराशि एकत्र करने की अपनी योजना का खुलासा किया है। इसमें कोई नई बात नहीं है और देश की जो आर्थिक स्थिति है, उसमें यह मजबूरी है। आश्चर्य इसमें है कि वो ग़लत तर्क दे रहे हैं कि बिज़नेस करना सरकार का काम नहीं है। अगर इसे मान लिया जाए तो सरकार का काम पहले के फ़ैसलों को पलटना, नए नियम बनाना और मनमानी करना भी नहीं है।
बेशक, सरकार के कुछ काम अच्छे होंगे, कुछ बुरे होंगे, कुछ ज़रूरी होंगे और कुछ मजबूरी के होंगे। पर एक आदर्श सरकार का काम सरकारी संपत्ति बेचकर खर्च चलाना नहीं हो सकता है।
बेशक कहा जा सकता है कि बिक्री का मक़सद यह नहीं है। पर यह भी सरकारी संपत्ति को बेचने का सही कारण नहीं है। सरकार का काम पारदर्शिता रखना और योजनाबद्ध ढंग से एक लक्ष्य के लिए काम करना भी है। बेशक लक्ष्य जनकल्याण ही होगा, धन कमाना नहीं होगा, पर घोषित तो हो। कोई सरकार धन कमाते हुए जन कल्याण कर सकती है और कोई नहीं कमाकर भी करती रह सकती है और प्रचारकों की सरकार कुछ नहीं करके भी जनकल्याण करने का प्रचार कर सकती है।
नरेन्द्र मोदी की सरकार इस मायने में विचित्र है कि उसे जनकल्याण का दिखावा या प्रचार करने की भी ज़रूरत नहीं है। उनकी लोकप्रियता बनी हुई है और मीडिया में विरोध नहीं के बराबर है।
बुद्धिजीवियों को विरोध करने से रोकने के सारे उपाय किए जा चुके हैं और कुछ जारी हैं। सरकार एक तरह से मनमानी पर उतर आई है।
नरेन्द्र मोदी बहुत मेहनत से प्रचार करके यहाँ तक पहुँचे हैं। कहने की ज़रूरत नहीं है कि सत्ता पाने के लिए उन्होंने कुछ ग़ैरज़रूरी वायदे भी किए थे। मनमोहन सिंह जैसे योग्य व्यक्ति को भ्रष्ट, नाकारा और मौनमोहन साबित कर दिया था। राफेल सौदे में भ्रष्टाचार के गंभीर आरोप लगे हालाँकि बाद में अदालत से क्लीन चिट मिल गयी। पर वो मनमोहन सिंह पर रेनकोट पहनकर नहाने का आरोप लगाने से नहीं चूके।
उनकी कथनी-करनी में संबंध ना पहले था, ना अब है और ना आगे हो सकता है। पर यह भी सच है कि वे भिन्न कारणों से जनता का भारी समर्थन पा रहे है।
नोटबंदी, जीएसटी, लॉकडाउन, ताली-थाली बजवाना इसका उदाहरण है और समर्थन का आनंद लेने से अलग कुछ नहीं है। धारा 370 हटाना इसमें शामिल है और इसके साथ यह तथ्य भी कि विस्थापित हिन्दू भी उनसे नाराज हैं। पर उन्हें किसी की कोई परवाह नहीं है। इसलिए वे जो कर रहे हैं उसे तर्क और कारण की कसौटी पर कसना बहुत मुश्किल है।
नरेन्द्र मोदी ने सार्वजनिक संपत्ति बेचना तय कर लिया तो सरकार में कोई सवाल उठाने वाला नहीं है। जवाब देने के लिए एक साथ 8-10 मंत्रियों को लगा देने के अलावा विपक्ष की उन्हें परवाह ही नहीं है। वरना सरकार का काम कारोबार करना नहीं है तो यह बताना ज़रूरी है कि वे बिक्री से मिलने वाले पैसों का क्या करेंगे। कितने आए कहाँ रखे हैं आदि। यहाँ भी हालत यह है कि सरकार अनुमान करती है, काम करती है और अनुमान को संशोधित करती है और फिर लक्ष्य से पीछे रह जाती है। यह भी वैसे ही चल रहा है।
आपको याद होगा, केंद्र सरकार ने रिजर्व बैंक से उसका रिजर्व फंड कैसे वसूला था। क्या यह सरकार का काम है? बाद में वित्त मंत्री ने कह दिया था कि खर्च के बारे में उन्हें कोई जानकारी नहीं है। कोरोना के बाद जिस पैकेज की घोषणा वित्त मंत्री ने कई दिन प्रेस कांफ्रेंस कर की उसका क्या असर हुआ – फायदा हुआ कि नहीं, अपेक्षा से कम है या ज्यादा कुछ बताने की ज़रूरत सरकार को नहीं लगी। किसी ने पूछा भी नहीं। क्या सरकार का काम नहीं था कि वह इन पैसों के बारे में बताती।
जहाँ तक सरकारी संपत्ति बेचने की बात है, अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार में विनिवेश मंत्रालय था। अरुण शौरी उसके मंत्री थे। आज कौन है, आप जानते हैं? किसी ने उनका नाम काम सुना? सब कुछ वित्त मंत्रालय के अधीन है। विनिवेश मंत्रालय बंद और विनिवेश ज्यादा –बेशक सरकार चाहे तो कर सकती है। पर जनहित में सस्ती रेलगाड़ियाँ सरकार नहीं चलाएगी तो कौन सा कारोबारी चलाएगा।
उत्तर पूर्व के सुदूर इलाकों के लिए सरकारी विमानसेवा नहीं होगी तो निजी कंपनी घाटा उठाने का काम क्यों करेगी। और उत्तर पूर्व के लोग अगर मुख्य भारत से कटे रहेंगे तो उसका दूरगामी असर क्या होगा या हो सकता है, बताने की जरूरत नहीं है पर उसकी कल्पना तो की ही जानी चाहिए
अभी भी जहाँ कोई नेटवर्क काम नहीं करता है वहाँ बीएसएनल ही चलता है। यह कहना गलत है कि सरकार बिजनेस कर रही है। सरकार बिजनेस नहीं कर रही है, जनसेवा के आवश्यक काम कर रही है।
बिहार में राज्य परिवहन निगम की सेवा ख़राब है, राज्य पिछड़ा है। भ्रष्टाचार समेत चाहे जिस कारण से राज्य में सरकार के लिए अपनी बसें चलाना फ़ायदेमद न हो, पर ऐसे राज्य में विदेशी निवेश किस आधारभूत संरचना पर आएगा? एक समय दिल्ली में भी यही हाल था। प्राइवेट बसें चलाने की छूट दे दी गई थी। सड़कों पर ऐसा खून फैला कि पूछिए मत। हालांकि, परेशानी प्रदूषण से ज्यादा हुई।
फिर डीटीसी को दुरुस्त करना पड़ा। मेट्रो चलाया गया। मेट्रो का किराया बढ़ाने के समय यह तर्क दिया गया था पर तब सरकार को फ़ायदा भी चाहिए था और उसका नुक़सान हुआ। दिल्ली में दुपहिए से चलना मेट्रो पर चलने से सस्ता और व्यावहारिक है। नतीजा सड़क जाम, प्रदूषण आदि है। अगर घाटे में भी दिल्ली में सार्वजनिक परिवहन ठीक हो, मेट्रो सस्ता हो सड़कों पर भीड़ नहीं होगी। सरकार का काम यही सब देखना और दुरुस्त करना है।
अगर यह मान लिया जाए कि कारखाना चलाना या कारोबार करना सरकार का काम नहीं है तो चिकित्सा सुविधा उपलब्ध करवाना किसका काम है? सरकार का काम बीमा करवाना और बीमा कंपनियों को कमाने का मौका देना भी नहीं है। अगर सरकार संपत्ति की बिक्री से आने वाले धन का इस्तेमाल अस्पताल बनाने जैसे जरूरी काम में करे तो विनिवेश से शिकायत कम होती। सड़क निजी ठेकेदार बनवा रहे हैं टॉल वसूलेंगे और सरकार का कोई काम ही नहीं है जबकि इससे महँगाई बढ़ेगी।
सरकार ने ऐसी कई व्यवस्था की है जिससे महंगाई बढ़ेगी। उदाहरण के लिए मेरी बिल्डिंग में एक बड़े राशन विक्रेता ने अपनी मशीन लगा दी है। यहाँ बगैर किसी विक्रेता के सिर्फ मशीन से दूध, ब्रेड, सब्जी, मक्खन, चिप्स, शीतल पेय आदि जैसी तमाम चीजें खरीदी जा सकती हैं-चौबीसो घंटे 365 दिन। यही सब चीजें बेचकर दो लोग अपना जीवन चला सकते थे। अब मशीन से बड़ी कंपनी कमाएगी। पर दूध आप छोटे विक्रेता से खरीदते थे, टैक्स नहीं लगता था। उत्पादक सीधे बेचता था मुनाफ़ा कम होता था। अब टैक्स लगेगा। मुनाफ़ा कई लोग कमाएंगे।
बेशक यह विकास है और देर सबेर होना ही था। पर जिनका विकास नहीं हुआ वे भूखों मरें? सरकार शायद जानती ही नहीं है कि लोग उससे क्या अपेक्षा करते हैं और यह आपदा में अवसर की तरह पीएम केयर्स शुरू करके धन बटोरना तो नहीं ही हो सकता है। बाकी इस पैसे से जो वेन्टीलेटर खरीदे जाने थे वो कहाँ गए किसी ने नहीं बताया। बेशक प्रचार पूरा हुआ। सरकार अभी यह तय करने में लगी हुई है कि जनता क्या नहीं कर सकती है और वह उन्हें कैसे कस सकती है। ऐसे में उसने पूरा इंतजाम कर लिया है कि देश में क्या हो रहा है इसका पता ना उसे चलेगा ना बाकी लोगों को।
संभव है, भारतीय जनता पार्टी और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की योजना यही हो और यह लंबे समय तक सत्ता में बने रहने के लिए आवश्यक माना गया हो। वरना एनजीओ को विदेशी चंदे पर रोक लगवाकर, लोकोपकार बंद करवाना भी तो सरकार का काम नहीं हो सकता है।
स्थिति यह रही है कि महामारी के समय हजारों एनजीओ बंद कर दिए गए थे और जो चंदे से काम कर सकता था वो पैसे पीएम केयर्स में चले गए।
सरकार का काम संपूर्ण व्यवस्था को दुरुस्त रखना है। दिल्ली में फ्लैट के दाम जितने बढ़े हैं उतने एनसीआर में नहीं बढ़े। एनसीआर में 25 लाख में खरीदा गया फ्लैट सवा करोड़ का नहीं हुआ। लेकिन मयूरविहार पटपड़गंज ही नहीं द्वारका का फ्लैट भी डेढ़ से दो करोड़ का हो गया है। सरकार का काम इसमें भी दिखता है। पर कोई देखना चाहे तब ना?
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